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राजेन्द्र निशेशमोल-भाव कर लिया समय ने, सच के सौदागर रहे नहीं।विष-बेलों सी फैल रही अब कुण्ठाओं की फसल अनूठी, सजते नागफनी से सपने लाचारी ने इज्जत लूटी।सूखे ताल-तलैया सारे चहकते चराचर रहे नहीं।अंधियारी के घर में आकर सूरज गर्वित होता जाता, व्याकुलता की मदिरा पीकर रुग्ण मसीहा नाच दिखाता।अपने सुख को बन्धक रख दें वे सरल मुसाफिर रहे नहीं।समझौतों की सांकल देखे सूरज नित-नित है मुस्काता, गिरवी रखकर सम्मानों को जंगल सा सन्नाटा गाता।जर्जर नाव, उफनती नदियां, हाथ में पतवार रहे नहीं।23
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