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बढ़ती महंगाई, घटते वेतन, भारी बेरोजगारी के भंवर में फंसे आम आदमी ने चाही तो थी रोटी किंतु उसे मिला है फिर एक “पैकेज”। मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं हूं इसलिए इस शब्द “पैकेज” की विषयात्मक व्याख्या करना मेरे लिए संभव नहीं है, किंतु मैं आम जन की प्रतिनिधि होने के नाते आम जन के नजरिये से इसे समझने की कोशिश कर रही हूं।भारत की अर्थव्यवस्था को क्रय शक्ति समतुल्यता के आधार पर विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था माना जाता है, किंतु अमरीकी डालर के विनिमय मूल्य के आधार पर लगभग ग्यारह खरब डालर के सकल घरेलू उत्पाद के कारण हमें दसवीं बड़ी अर्थव्यवस्था का दर्जा प्राप्त है। आज वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर है। इस दौर से हमारी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं है तथा इस मंदी के दुष्प्रभावों का दौर शुरू हो चुका है। इस दौर से निपटने के लिए कई देशों ने अपने यहां आवश्यक कदम उठाये हैं जोकि उनकी अर्थव्यवस्था के अनुकूल हैं। हमारे देश में भी केन्द्र सरकार द्वारा आये दिन नाना प्रकार के उपायों की घोषणा की जा रही है, किंतु इन उपायों में व्यावहारिक पक्ष का बोध कम ही हो रहा है। इन उपायों के पीछे किताबी दृष्टिकोण अधिक नजर आता है बजाय आम जन की तकलीफों को दूर कर सकने वाले परिणामोन्मुख प्रयासों के।मंदी से उबरने के लिए अर्थशास्त्रियों ने कई प्रकार के सिद्धांत प्रतिपादित किये हैं। इनमें मुख्य तौर पर सरकार द्वारा ही वृहद वित्तीय पैकेज की बात कही जा रही है अर्थात् बाजार में मुद्रा की उपलब्धता को बढ़ाने हेतु सरकारों द्वारा खर्च करना। यह खर्च या वित्तीय पैकेज हजारों करोड़ रुपयों का है, जोकि सरकार के पास आम जनता से ही आये हैं। इस पैकेज को खर्च करने के लिए एक समग्र तथा व्यापक कार्य योजना की नितांत आवश्यकता है। इस कार्ययोजना के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले यह अति आवश्यक है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को तय कर लें। विगत कुछ सप्ताहों में केन्द्र की सरकार द्वारा उठाये गये कदमों को देखें तो हमारी प्राथमिकताओं के संबंध में विस्तृत सोच का अभाव स्पष्ट तौर पर खटकता है। आज नागरिक उड्डयन के क्षेत्र में हल्ला मच रहा है तो एक पैकेज घोषित कर दो। कल अधोसंरचना तथा स्थावर सम्पदा क्षेत्र मंदी के शिकार हुए तो दूसरा पैकेज दे दो। दुर्भाग्यवश हमारी केन्द्र सरकार वित्तीय पैकेज जैसे अस्र का उपयोग केवल अस्थाई व तात्कालिक उपाय के बतौर कर रही है और इस सबके लिए जिम्मेदार है हमारे प्रधानमंत्री में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा जन आकांक्षाओं को समझ पाने की अक्षमता। हमारे प्रधानमंत्री व वित्त मंत्री पर जन आकांक्षाओं से ज्यादा विषय विशेषज्ञों का प्रभाव है। ये विशेषज्ञ आपस में कभी भी एकमत नहीं होते और अंत में आर्थिक क्षेत्रवार पैकेज बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं।हमारे यहां किसी भी उपाय का अंतिम परिणाम क्या हुआ, यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की जाती है। कुछ समय पहले विदर्भ के किसानों के लिए केन्द्र द्वारा ऐसा ही एक पैकेज घोषित किया गया था। इस पैकेज का क्रियान्वयन बिल्कुल भी ठीक तरीके से नहीं हुआ। केन्द्र सरकार को आज यह पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि क्या विदर्भ का किसान खुशहाल हो गया? क्या सरकारी मदद उसके लिए औचित्यपूर्ण व पर्याप्त थी? क्या आत्महत्याएं बंद हो गर्इं? विदर्भ में आवश्यकता थी किसानों को सीधी सहायता उपलब्ध कराने की और हुआ क्या? बहुत सारा पैसा किसानों के कर्ज की क्षतिपूर्ति की मद में सहकारी बैंकों को दे दिया गया। किसानों को जर्सी गायें उपलब्ध कराई गर्इं। जब किसान के ही पास खाने को कुछ नहीं है तो बेचारा गायों को क्या खिलाता? अंत में ये गायें औने पौने दामों में सक्षम लोगों के पास पहुंच गर्इं। आवश्यकता थी किसानों को खाद बीज-आदि सामग्री उपलब्ध कराने की और व्यवस्था हुई खाद, बीज हेतु सस्ते कर्जों की। किसान सिर्फ यही चाहता है कि समय पर खाद बीज इत्यादि उपलब्ध हो और फसल का उचित मूल्य उसे मिले। क्या उक्त पैकेज से ये दो मूलभूत समस्यायें हल हो गर्इं? यहां अलग से यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि सैद्धांतिक रूप से किसानों का पैकेज व्यावहारिक तौर पर सहकारी बैंकों का पैकेज बन गया। अब बात हो रही है अधोसंरचना तथा स्थावर सम्पदा क्षेत्र में बीस हजार करोड़ के पैकेज की। आज स्थावर संपदा क्षेत्र में हुए निवेश का बड़ा हिस्सा मुनाफा कमाने के लालच में किया गया निवेश है और सत्ता के गलियारों में तो आम चर्चा है कि यह पैसा भले ही मारीशस जैसे देशों के रास्ते आया हो पर यह है हमारे राजनीतिज्ञों की काली कमाई। आज जरूरत है कि ऐसे निवेश पर लगाम कसी जाए। चीन ने ऐसा सफलतापूर्वक कर दिखाया है। आजकल पांच लाख से बीस लाख तक के गृह ऋणों पर सस्ती दर पर कर्ज देने की भी बात हो रही है। सोचने वाली बात यह है कि आज कितने शहरों में संपत्तियां इस मूल्य वर्ग में उपलब्ध हैं? जो आय वर्ग इन कर्जों को लेता है वह खींचतान कर ही इसकी किश्त चुकाता है। बाजार का हल्का सा भी झटका इनकी योजनाओं को तार-तार कर देता है। आखिर मुझे तो ऐसा लगता है कि यह पैकेज भी घर खरीदने वाली जनता के बजाय कर्ज देने वाली संस्थाओं का और निवेश करने वाले समूहों का पैकेज बन जाएगा।आज हम मंदी के इस दौर को केवल आर्थिक समस्या मानने की भूल कर रहे हैं, जबकि इसके सामाजिक पहलू भी हैं। आज विदेशों में वर्षों से कार्यरत कई भारतीय अपने देश वापस लौटने को मजबूर हैं। यहां देश के अंदर भी असंख्य लोग अपनी नौकरियां खो चुके हैं। बेरोजगारी का दानव मुंह फाड़े खड़ा है। दूसरी ओर कई लोगों का वेतन आधा हो गया है। सूचना प्रौद्योगिकी, वित्त आदि कई क्षेत्रों में लोगों को बीस लाख रुपए सालाना तक के पैकेज मिले, किंतु साथ में सस्ते कर्जों के भी पैकेज आ गये। हमारे नवधनाढ्य युवा वर्ग ने दोनों पैकेजों को हाथों हाथ लिया। सस्ते कर्जों के लालच में फंसकर हममें से कई परिवार भौतिकतावाद के गुलाम हो चुके हैं, परंतु वेतन में कटौती की वजह से आज किश्तें चुकाने के लिए पैसा नहीं है। इस तरह की सामाजिक विषमतायें हमारे बीच अपराध को ही बढ़ावा देंगी। आर्थिक परेशानियां जन्म देती हैं कौटुंबिक परेशानियों को। कौटुंबिक बिखराव जन्म देता है सामाजिक टूटन को और सामाजिक टूटन की परिणति सांस्कृतिक ह्म#ास के रूप में होती है। अतएव यह आवश्यक है कि हम इस मंदी को सिर्फ आर्थिक समस्या नहीं मानते हुए सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक समस्या भी मानें। मैं यहां यह जानना चाहूंगी कि क्या केन्द्र के पास इन सब सामाजिक सरोकारों के लिए भी कोई पैकेज देने की योजना है?आज न सिर्फ कृषि बल्कि लघु उद्योग भी इस मंदी के दौर से जूझ रहे हैं। मंदी जैसी कोई भी आपदा हमें परावत्र्ती बना देती है। इस आपदा के मारे आज तक अप्रभावित आम जन के मन में भी कुछ ऐसे सवाल उठने लगे हैं कि- क्या मेरी नौकरी सुरक्षित है? अपनी नौकरी को बचाने में क्या मेरे पास पर्याप्त निपुणता व कुशलता है? अपनी नौकरी खो देने पर मैं क्या करूंगा? क्या इन परिस्थितियों को नियंत्रित कर सकने की क्षमता मुझमें है? मैं ऐसा क्या करूं कि मेरा इस समस्या से बचाव हो जाएगा?यकीन मानिये, इन सारे सवालों के उत्तर दस नये सवालों को ही जन्म देंगे और अंततोगत्वा एक संभ्रम की स्थिति निर्मित करेंगे।यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि आज हम सब कहीं न कहीं इस मंदी के मारे हैं। आज किसी न किसी रूप में हम सब पीड़ित व व्यथित स्थिति में हैं। स्वाभाविक रूप से इससे हमें उबारने की प्राथमिक जिम्मेदारी हमारी केन्द्र सरकार की है। मंदी हो या फिर कोई अन्य आर्थिक समस्या, आज आवश्यकता है एक सुनियोजित, सुपरिभाषित, और परिणामोन्मुख कार्य योजना की जो न सिर्फ आज की समस्याओं का समाधान करे बल्कि आने वाले समय की संभावित समस्याओं की पहचान कर उनका भी समाधान करने की क्षमता रखे। ऐसी कार्ययोजना के ही साथ आज आवश्यकता है एक दूरदर्शी, व्यापक और समेकित दृष्टिकोण वाले नेतृत्व की जो इस कार्ययोजना का क्रियान्वयन व सटीक परिपालन सुनिश्चित करे। यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज केन्द्र सरकार के स्तर पर हमारे पास दोनों ही नहीं हैं। सर्वप्रथम यह महत्वपूर्ण है कि सरकारी राहत पैकेज के लिए प्राथमिकता के आधार पर उचित उत्पादकता वाले क्षेत्रों का चयन हो। हमारी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित अर्थव्यवस्था है तो फिर हमें आज उड्डयन और सूचना प्रौद्योगिकी के अनुषांगिक क्षेत्रों से पहले कृषि तथा कृषि आधारित मूल क्षेत्रों को तरजीह देनी होगी और हमें उड्डयन और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्रों को कृषि जैसे क्षेत्रों से जोड़ना होगा। नागरिकों के लिए सस्ते हवाई सफर से पहले हमें कृषि उत्पादों के निर्यात हेतु उचित वायुमार्ग अधोसंरचना के बारे में सोचना होगा। सूचना व संचार क्रांति का उपयोग हमें ऑनलाइन बैंकिंग से पहले किसानों को मौसम व फसल के भावों की जानकारी देने हेतु करना सीखना होगा। कुल मिलाकर सार यह है कि हमें अपनी प्राथमिकताएं सही तौर पर सुनिश्चित करनी होंगी और विकसित देशों का अंधानुकरण बंद करना होगा।आज केन्द्र सरकार को चाहिए कि इस समय वह अपने अफसरों के कथित विश्लेषणात्मक सामथ्र्य, लक्ष्य निर्धारण निपुणता और नियोजन क्षमता के ही भरोसे बैठी न रहे, बल्कि जन आकांक्षाओं के अनुरूप, सीधे जनता को लाभ पहुंचाने वाले उपाय क्रियान्वित करे। (लेखिका इंदौर से लोकसभा सांसद हैं)12
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