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सरोकार स्तंभ के रूप में हमने एक और प्रयास प्रारंभ किया है। प्रकृति, पशु-पक्षी, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार और नाते-रिश्तों से हमारा विविध रूप रंग-रस व गंध का सरोकार रहता है। हमारी प्रकृति व संस्कृति परस्पर पूरक हैं, परस्पर निर्भरता ही ष्मा लगातार कम हो रही है।द बनवारी लाल ऊमर वैश्यभारत कभी वन-कुंजों से आच्छादित था। इसके पूर्व में चैत्र रथ, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में विभ्राज और उत्तर में सवित वन शोभित थे, जहां आम्रकुंजों में अप्सरायें, विद्याधर बालाएं, किन्नरियां और यक्षणियां विहार करती थीं। अमराई में कोयल पंचम राग में कूकती थीं। मंजरियों की भीनी-भीनी गंध से वनांचल में मादकता फैलती थी। समाधिस्थ शंकर को जगाने के लिए कामदेव अपनी रति और प्रीति के संग यहां आए थे और आम्र मंजरी के पुष्पबाण से शंकर पर संधान किया था। आम्र लक्ष्मीवृक्ष है।धरती पर आम्रकुंजों को स्वर्ग माना जाता है जहां देवता रमण करते हैं, जिस प्रकार अमरावती में शची परिजात पुष्पों से अपना वेणी श्रृंगार करती हैं। प्राचीन भारत में वसुंधरा पर स्वर्ग उतारने के लिए आम्र कुंजों की कल्पना की गई थी। उसी के तहत भारत देश को आम्र कुंजों से विभूषित किया गया था। पूरब का चैत्ररथ पूर्वोत्तर भारत पश्चिम बंगाल, असम, मणिपुर, अरुणाचल, त्रिपुरा आदि आम्रकुंज के नाम से चर्चित थे। आम्र कुंज उन राज्यों के नाम का पर्याय बन गया था। अमराई से छनकर आने वाली वायु लहरी लोगों को आह्लादित और प्रसन्नचित करती है। ताप संताप का दमन होता है और शीतलता की अनुभूति होती है। आम्र कुंज प्रदूषण की रोकथाम और पर्यावरण का आह्वान करता है। भारतीय पुराणों में आम्रकुंजों को चित्रित किया गया है। वैदिक काल में आम्रकुंजों की छाया में स्वाध्याय होता था। पुराण ने उत्कल के एकात्म क्षेत्र का वर्णन किया है। जहां आम्रकुंज बहुल क्षेत्र था।रामायण काल और श्रीमद्भागवत युग में भारत आम्रकुंजों से समृद्ध था तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्रोत था। बौद्धकाल में श्रमण आम्रकुंजों में ठहरते थे। भगवान बुद्ध जेतवन में विश्राम करते थे। बिहार की अमराई में आम्रपाली पल्लवित हुई थी। वह अपने ग्रामीण पिता के साथ आम्रकुंज की रखवाली करती थी। जिससे वह आम्रपाली कहलाई और अंत में वह वैशाली की महारानी बनी। बौद्धकाल में आम्रकुंज में ग्राम पंचायत होती थी जहां गांव के वाद-विवादों का निस्तारण होता था। आम्र देवता उस निर्णय के साक्षी होते थे। लोक संस्कृति में आम्रकुंज देवकुल का निवास माना जाता है। किसी मांगलिक कार्य के समय आम्र वृक्ष की पूजा करती है। आम्र की टहनी से पर्यावरण की देवी शीतला देवी की पूजा सम्पन्न की जाती है। कलश को आम्र पल्लव से सुशोभित किया जाता है। यज्ञ में पल्लव द्रोण और पन्नस्रुवा से घी की आहुति दी जाती है। आम्र बहुआयामी वृक्ष है।हिन्दू काल में दक्षिण भारत आम्रकुंजों का परिक्षेत्र था। केरल आम्रों का निर्यात करता था। मलयालम भाषा में आम्र को मैंगस कहा जाता था। भारतीय आम्रों की रसात्मक अनुभूति से यूरोपियन भी मैंगस ही कहने लगे जो कालांतर में “मैंगो” हो गया। संस्कृत में आम्र के कई पर्याय हैं। रसीले आम्र को रसाल, सुगंध रंग से युक्त आम्र को सहकार और अमरकोश में आम्र को पिकवल्लभ एवं कोकिल प्रिय कहा गया है क्योंकि आम्रकुंजों में कोकिला अपनी रागिनी छेड़ती है। अमवा के बगिया में कूके कोयलिया और मोर लहराये धानी चुनरिया। अब गांवों में ये गीत सुनाई नहीं देते बल्कि गांवों में अश्लील फूहड़ गीतों की भरमार है। गंवई संस्कृति की जगह अब सिनेमा टेलीविजन संस्कृति का बोलबाला है। आम्र कुंजों के संहार से कोकिल गांवों से पलायित हो गई हैं क्योंकि उनका आशियाना उजड़ गया है। पक्षी का रैनबसेरा आम्रकुंज धराशायी हो गया है। अब वहां कालोनी बन रही हैं जहां नगर के सेठ और सरकारी अधिकारी निवास करते हुए एकांत की जिंदगी जिएंगे। उन्हें आम्रकुंज की संस्कृति और सभ्यता से क्या लेना देना। प्रदूषण और जनसंख्या ने आम्रकुंजों के स्वर्ग को उजाड़ डाला है। द13
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