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पूरे संसार को “दारुल इस्लाम” बनाने का सपना देखने वाले कट्टरपंथी तत्व समय-समय पर दूसरे मत-पंथों के लोगों की भावनाओं को आहत कर अपनी संकीर्णता का परिचय देते रहे हैं। अब से नब्बे वर्ष पूर्व सन् 1920 में लाहौर में इस्लाम के कुछ अनुयायियों ने “कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी” तथा “बीसवीं सदी का महर्षि”, ये दो पुस्तकें प्रकाशित कर हिन्दू समाज की भावनाओं को आहत कर खुली चुनौती दी थी। आर्यसमाज के अग्रणी विद्वान पंडित चमूपति जी को लगा कि यदि इन आपत्तिजनक पुस्तकों का उत्तर नहीं दिया गया तो हिन्दुओं की उदारता का अनुचित लाभ उठाया जायेगा।बिना लेखक का नाम लिए उर्दू में “रंगीला रसूल” का प्रकाशन होते ही कट्टरपंथी मुसलमानों ने बवंडर मचाना शुरू कर दिया। मस्जिदों में इकट्ठा होकर लेखक व प्रकाशक को मजा चखाने की घोषणाएं की जाने लगीं। उर्दू के समाचारपत्रों में भी धमकी भरे लेख छापे गये। पुस्तक के प्रकाशक राजपाल जी (आर्य पुस्तकालय) के पास पहुंचकर कुछ उन्मादियों ने लेखक का नाम बताने को कहा। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक कहा- “मैंने छापी है तो मैं ही जिम्मेदारी लेता हूं। लेखक का नाम कदापि नहीं बताऊंगा।”वर्ष 1926 के शुरू के दिनों में महाशय रामपाल जी अपने प्रकाशन संस्थान में बैठे हुए थे। खुदाबख्श नामक पठान योजनानुसार दुकान में पहुंचा तथा उसने महाशय जी पर छुरे से प्रहार करना शुरू कर दिया। अचानक आर्यसमाज के सुविख्यात संन्यासी स्वमी स्वतंत्रानन्द जी महाशय जी से मिलने आ पहुंचे। उन्होंने छुरे से प्रहार करते देखकर खुदाबख्श को धर दबोचा। राजपाल जी को घायलावस्था में अस्पताल पहुंचाया गया। खुदाबख्श को पुलिस को सौंप दिया गया। मुकदमा चलाकर उसे सात वर्ष की सजा सुनाई गई।कुछ दिन बाद एक अन्य मजहबी उन्मादी ने प्रकाशन संस्थान में पहुंचकर वहां बैठे स्वामी सत्यानन्द जी को महाशय राजपाल समझ कर उन पर छुरे से प्रहार कर घायल कर दिया। उस आततायी को भी पकड़ कर पुलिस को सौंप दिया गया। लाहौर के उन्मादी मुसलमान किसी भी तरह महाशय राजपाल जी की हत्या करने पर तुले हुए थे। उनके विरुद्ध अदालत में मामला भी चलाया गया। लाहौर हाईकोर्ट ने दलीलें सुनने के बाद “रंगीला रसूल” पुस्तक को तथ्यों पर आधारित बताते हुए प्रकाशक महाशय राजपाल जी को बरी कर दिया। इसके बाद से ही पुन: उनकी हत्या की साजिश शुरू कर दी गई।6 अप्रैल, 1929 को महाशय राजपाल जी अपने प्रकाशन संस्थान में बैठे हुए थे कि इलमदीन नामक उन्मादी, मजहबी जुनूनी वहां पहुंचा। उसने छुरे से प्रहार कर उनकी क्रूरतापूर्वक हत्या कर डाली। इलमदीन हत्या कर भाग रहा था कि विद्यारत्न नामक युवक ने पीछा कर उसे जकड़ लिया। उसे पुलिस को सौंप दिया गया।महाशय जी की हत्या का समाचार मिलते ही हजारों हिन्दू वहां पहुंच गये। महाशय कृष्ण तथा अन्य असंख्य आर्यसमाजी तथा अन्य नेताओं ने वहां पहुंचकर महाशय जी को श्रद्धासुमन अर्पित किये। पूरे देश में बलिदान का समाचार मिलते ही आक्रोश व्याप्त हो गया। प्रकाशन जगत के अग्रणी श्री दीनानाथ मल्होत्रा ने अपने बलिदानी पिता की अंतिम यात्रा का वर्णन अपनी हाल ही में प्रकाशित आत्मकथा “भूली नहीं जो यादें” में लिखा है-“हमारे सबसे बड़े भाई प्राणनाथ जी छोटे थे। अतएव डी.ए.वी. संस्थाओं के संचालक महात्मा हंसराज जी ने शव को मुखाग्नि दी। स्वामी स्वतंत्रानंद जी ने प्रार्थना करवाई। अकस्मात् माता जी (सरस्वती जी) हिम्मत करके उठ खड़ी हुर्इं और उन्होंने बड़े मार्मिक शब्दों में कहा- “अपने पति के इस प्रकार मारे जाने का मुझे बहुत दुख है। परन्तु मैं कहना चाहती हूं कि मुझे गर्व भी है कि उन्होंने धर्म की वेदी पर अपने जीवन का बलिदान दे दिया।”महाशय राजपाल जी प्रथम बलिदानी थे, जिन्हें बलिदान के 69 वर्ष बाद जून 1998 में नई दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में तत्कालीन गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने “फ्रीडम टू पब्लिश” (प्रकाशन स्वातंत्र्य) सम्मान से अलंकृत किया था। यह सम्मान बलिदानी राजपाल जी के पुत्र विश्वनाथ जी ने ग्रहण किया था। द10
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