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बैरागन नदियां हुईं पर्वत निर्गुण सन्त,प्रेम कहानी में किसे मिलता सदा वसन्त।-मधु प्रसादकैसा जादू कर गया नवयुग का विज्ञान,हंसी अधर से आंख से आंसू अन्तध्र्यान।-रामसनेहीलाल शर्मा यायावरदो कमरे कागज कलम तीन जनों का प्यार,काफी है मेरे लिये छोटा-सा संसार।-रामनिवास मानवरोम-रोम फैशन रमा हुईं युवतियां चीज,पड़ी किनारे सिसकतीं लज्जा और तमीज।-जयकुमार रुसवानाविक खुद बीमार है टूटी है पतवार,शोर मगर हर ओर यह दोषी है जलधार।-शिवनन्दन सिंहगवाक्षआचार्य विष्णुकान्त शास्त्री सभागार में आयोजितवासन्ती काव्य-सन्ध्याशिव ओम अम्बरबड़ा बाजार लाइब्रोरी (कोलकाता) में इस वर्ष वसन्त पंचमी पर आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री सभागार का उद्घाटन करते समय डा. मुरली मनोहर जोशी ने आचार्य जी के प्रेरक व्यक्तित्व को प्रणति निवेदित करते हुए उनके उस पारस संस्पर्श को रेखांकित किया जो लोहे को सहज ही सोने में बदल देता था। अगले दिन उसी सभागार में श्रीमती पुष्पा भारती की अध्यक्षता में एक सुरुचिपूर्ण काव्य-सन्ध्या आयोजित हुई। लाइब्रोरी के अध्यक्ष श्री विमल लाठ ने उसके गौरवशाली इतिहास का उल्लेख करते हुए नवनिर्मित सभागार के साथ उसके वर्तमान के विभावन्त होने का उल्लेख किया तथा आमंत्रित रचनाकारों को मंच पर आसीन कराया। संचालन का दायित्व मुझे दिया गया। मुझे काव्य-चक्र की प्रस्तावना करते समय आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री जी की “ग्रन्थागार” से सम्बंधित पंक्तियां याद आ गईं-अन्धकार की ओर नहीं तुम चलो ज्योति की ओर, रहे गूंजती यह पावन ध्वनि जड़ता को झकझोर। सबसे घना अंधेरा जग में यदि अज्ञान अमा का, ज्ञान-सूर्य को लिये गर्म में ग्रन्थालय है भोर।।मंच पर आसीन वरिष्ठ कवि डा. कुंअर बेचैन ने वागीश्वरी-वन्दना से कार्यंक्रम का मंगलाचरण करते हुए इसी कड़ी में अपने कुछ प्रेरक अशआर भी पढ़े-वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा, किसी दिये पे अंधेरा उछालकर देखो। तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी, किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो।श्री रामेश्वर नाथ मिश्र “अनुरोध” के ओजस्वी स्वर में राष्ट्रीय गौरव को दीप्त करने की सहज सामथ्र्य थी। उनके काव्य-पाठ ने कुछ देर के लिए परिवेश को एक सात्विक अमर्ष की अरुणारी आभा प्रदान की तो स्वयं विमल लाठ जी नई कविता के एक सशक्त और सहज सम्वाद-सक्षम हस्ताक्षर के रूप में सबका मन मुग्ध करते रहे। एक कवि के स्वाभिमान को बड़े ही सौष्ठव से निरूपित करने वाली उनकी चर्चित रचना “फिर” तथा एक महानगर की संवेदनहीनता पर टिप्पणी करने वाली उनकी छोटी-छोटी रचनाएं नई कविता की विधा के वैभव की परिचय-पत्रिकाएं बनीं। हमेशा की तरह इस बार भी कोलकाता के रसज्ञ श्रोताओं ने मेरी रचनाओं को स्नेह, सम्मान और सद्भाव से सुना। श्रद्धेय शास्त्री जी ने अपनी कक्षा में छात्र-छात्राओं को कविताएं याद करने और सही जगह पर उद्धृत करने के संस्कार दिये। अब उनके शिष्य डा. प्रेमशंकर त्रिपाठी तथा उनके स्नेहपात्र और शिष्य भी इस परम्परा को आगे बढ़ाने में लगे हैं। कोलकाता पहुंचकर डा. त्रिपाठी, आदरणीय जुगलकिशोर जैथलिया, श्रीमती तारा दूगड़ आदि के मुंह से विविध रचनाकारों की पंक्तियों को मैत्रीपूर्ण संगोष्ठियों में सुनना कार्यक्रम के आनन्द में अनायास भारी अभिवृद्धि कर देता है!)मेरे बाद डा. कुंअर बेचैन ने अपने विशिष्ट अन्दाज और सम्मोहक स्वर के साथ बड़े ही अच्छे मन से देर तक काव्य-पाठ किया। पुन: उनकी कुछ पंक्तियां उद्धृत करने का लोभ जाग रहा है-पहले तो ये चुपके-चुपके यूं ही हिलते डुलते हैं, दिल के दरवाजे हैं आखिर खुलते खुलते खुलते हैं। दुख ही दुख को मांजा रहा है जैसे कुछ मैले बर्तन, मिट्टी से ही मैले होते मिट्टी से ही धुलते हैं।अध्यक्षासन से सम्बोधित करते हुए श्रीमती पुष्पा भारती जी ने कविवर डा. धर्मवीर भारती तथा डा. हरिवंशराय बच्चन से जुड़े कुछ प्रेरक संस्मरण सुनाये। भारती जी की अद्र्धांगिनी होने के नाते पुष्पा जी हिन्दी साहित्य संसार की सभी महत्वपूर्ण समकालीन संज्ञाओं से सुपरिचित हैं तथा उनके गहन आदरभाव की सहज और स्वाभाविक अधिकारिणी रही हैं। उनके व्यक्तित्व से विच्छुरित होती प्रतिभा की प्रभा और वत्सलता की चन्द्रिका ने समग्र साहित्यिक संयोजन को एक अव्याख्येय दिव्यता और सुवन्द्य गरिमा से वलयित कर रखा था। उन्होंने पहले बच्चन जी की और फिर डा. धर्मवीर भारती की कुछ चुनी हुई पंक्तियों का पाठ करके आयोजन को अनछुई ऊ‚ंचाइयां प्रदान कीं। उनके द्वारा सुनाई गईं भारती जी की ये आस्थामयी पंक्तियां अब भी चेतना में जगमगा रही हैं-चेकबुक पीली हो या लाल दाम सिक्के हों या शोहरत कह दो उनसे जो खरीदने आये हैं तुम्हें हर भूखा आदमी बिकाऊ‚ नहीं होता!कोलकाता पहुंचने से लेकर अन्त तक बड़ा बाजार लाइब्रोरी के अशोक गुप्ता जी तथा अन्य बन्धु हमारे (मेरे और डा. कुंअर बेचैन के) साथ रहे, सुख-सुविधा का ध्यान रखते रहे, लाइब्रोरी की एक शताब्दी की यात्रा-कथा के पड़ावों से परिचित कराते रहे और हम दोनों कोलकाता में साहित्यिक चेतना के जागृत स्वरूप का साक्षात्कार कर विमुग्ध तथा अभिभूत होते रहे। इस पूरे प्रसंग में एक विशिष्ट उल्लेख बिन्दु है सभागार में बैठे हुए उन साहित्य-रसिकों का व्यवहार जिन्होंने हर रचनाकार को पूरी तल्लीनता के साथ सुना तथा अहसास कराते रहे कि वे कवि-दृष्टि को भी समादर देते हैं तथा काव्य-सृष्टि को भी नमन करते हैं- अकुण्ठ भाव से।मुम्बई की फलश्रुतिउत्तर भारतीयों के प्रति अपमानजनक टिप्पणियों, उद्धृत आक्रमणों तथा अनर्गल प्रलापों की वर्षा करके धीरे-धीरे मायानगरी मुम्बई के स्वघोषित नायकों का उन्माद शान्त हो गया, किन्तु अपने पीछे बहुत से खुरदरे प्रश्नचिन्ह छोड़ गया है। इस देश के अधिकांश राजनेता सामयिक सफलता की प्राप्ति के लिए शाश्वत राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करने की अंधी दौड़ के धावक बन गये हैं! अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं वे जिनकी साधना, उपासना और आराधना का केन्द्र कोई जाति, समुदाय, प्रान्त या भाषाभाषी नहीं अपितु समग्र राष्ट्र है। दुष्यन्त कुमार की ये पंक्तियां आज के हालात में पुन: अपनी सार्थकता की उद्घोषणा कर रही हैं-जिन्दगानी का कोई मकसद नहीं है, एक भी कद आज आदमकद नहीं है। पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे, रास्ते में एक भी बरगद नहीं है।स्थितियां इतनी विकट हो रही हैं कि रास्ते की छोड़िये गांव के गांव बरगद से रहित हैं! बरगद अर्थात ऐसा वत्सल व्यक्तित्व जो अपनी छाया में बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को बैठा लेता है, पूरे गांव का अपना होता है। कविता सदा से शांति-मंत्रों के उच्चारण में ही अपनी सामथ्र्य की सिद्धि खोजती आई है किन्तु इतिहास गवाह है कि जब भी किसी निर्दोष क्रौञ्च की हत्या की जाती है, कविता ब्राहृर्षि का शाप बन जाती है। आज ऐसे ही एक शाप से अपनी बात को विराम देता हूं-कब तलक विद्वेष की ये खाइयां खुदवाओगे, कब तलक वटवृक्ष पे विष-वल्लरी फैलाओगे? आज तुम भड़का रहे हो आपसी नफरत की आग, देख लेना कल तुम्हीं इस आग में जल जाओगे!26
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