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वृंदावन बिहारी लाल की जय!इस गगनभेदी जयघोष के साथ ही दोपहर की आरती पूर्ण होने का आभास हो जाता था। दर्शनार्थी परिक्रमा के रास्ते बाहर निकलते। बाहर विधवा वृद्धाएं, वंचित बच्चे सहसा एक पंक्ति में खड़े होकर राधे-राधे की रटन्त लगाते। भीड़ में से कुछ धनी, श्रीमंत भोजन, वस्त्र, कम्बल या कुछ और लाइन बनाकर खड़ीं उन वृद्धाओं को बांटते और “आसीस” पाकर धन्य मानते। बचपन में अक्सर देखा है यह दृश्य। और अब भी यदा-कदा देखने में आता है। उत्सव-त्योहार का समय हो तो “प्रसाद” बांटने वालों की संख्या ज्यादा दिखती है। बचपन में समझ नहीं आता था कि मंदिर से निकलकर ये चमकदार कपड़े वाले यह सब बांटा क्यों करते हैं? क्या मंदिर में कोई बैठा है जो उनको कहता है- जाओ, बाहर कुछ बेसहारा वृद्धाएं हैं उन्हें वस्त्र, कम्बल बांटो? बालमन का कौतुहल। एक बार दादी से पूछ ही लिया-ये कौन लोग हैं और क्यों यह सब बांटते हैं? दादी बतातीं- ठाकुर जी इनको ऐसा करने के लिए कहते हैं। तब इतना समझ नहीं आता था, पर वास्तव में उन सीधे सरल शब्दों में भारत की सांस्कृतिक भाव धारा का सूत्र था- “ठाकुर जी कहते हैं।”सच है, ठाकुर जी का दरसन ही व्यक्ति के मन में ऐसा भाव पैदा करता है कि वह दीन-दुखियों को कुछ देने को खुद से ही बढ़ता है। भारत की सत्य सनातन संस्कृति का यह अद्भुत आयाम है। हमारे देवालय देव दर्शन के साथ ही समाजोत्थान के केन्द्र हैं। केदारनाथ से कन्याकुमारी तक, काशी विश्वनाथ से तिरुपति बालाजी तक और सोमनाथ से असम में संत शंकर देव की भक्ति धारा को जीवंत रखने वाले सत्रों तक, ये देवालय भारत के जन-मन में आध्यात्मिक-सांस्कृतिक भाव-गंगा को प्रवाहित किए हुए हैं।इन देवालयों के साथ ही भारत के संतों-महात्माओं ने केवल कथा-उपदेशों के जरिए ही नहीं तो खुद आगे होकर समाज हित के अनेक प्रकल्प खड़े किए हैं। संस्कृति, संस्कार, सेवा की त्रयी इन पूज्य संतों के मार्गदर्शन में ही लोक कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर रही है।एक बार आणंद (गुजरात) में स्वामिनारायण पंथ द्वारा संचालित विद्या विहार में पूज्य प्रमुख स्वामी जी से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। विद्या विहार गुजरात में संस्कारप्रद शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र है। संध्या समय भेंट हुई थी। इसके बाद स्वामी जी टहलने चले गए। विद्या विहार के लान में जहां स्वामी जी टहल रहे थे वहां चारों ओर विद्यालय के बच्चे बड़ा सा घेरा बनाकर बैठे थे। कोने में एक माइक लगा था जिस पर एक-एक कर छठी, सातवीं, आठवीं के सफेद कुर्ता-पाजामा पहने छात्र आते और 5-10 मिनट गुजराती में कुछ बोलते। बहुत अधिक समझ नहीं आया तो पास बैठे एक स्थानीय व्यक्ति से पूछ लिया-बच्चे क्या बोल रहे हैं? उसने बताया-बच्चे भारत की सनातन संस्कृति और अपने इष्ट की महिमा अपने शब्दों में व्यक्त कर रहे हैं। प्रमुख स्वामी जी की प्रत्यक्ष उपस्थिति से उनमें एक अनूठी ऊर्जा संचारित हो रही थी। संत की मात्र उपस्थिति अनुग्रह से कम नहीं होती।गुजरात में भूकम्प के बाद पुनर्निर्माण में प्रमुख स्वामी जी और स्वामिनारायण पंथ के अन्य साधुओं के योगदान को कौन भुला सकता है? उनके मद्य निषेध अभियान ने तो गुजरात में एक क्रांति ही कर दी है। पू. आठवले जी उपाख्य “दादा” का स्वाध्याय परिवार, रामकृष्ण मिशन, गायत्री परिवार, अमृतानंदमयी मठ आदि ऐसे अनेक आश्रम,मठ आज समाज में समरसता और समानता के अनूठे प्रयास कर रहे हैं। पहले भी हमने पाञ्चजन्य के विशेषांकों में सेवा को समर्पित इन विभूतियों, आश्रमों, संस्थाओं पर विस्तार से सामग्री प्रकाशित की है। नव चैतन्य अंक (26 अक्तूबर, 2003) और आत्मदीप अंक (6 नवम्बर, 2005) पाठकों को बहुत भाए थे। इस बार हमने प्रतीकात्मक रूप से उन देवालयों की जानकारी एकत्र की है जो आमतौर पर प्रचार से दूर चुपचाप समाज-जागरण और सेवा के नूतन प्रकल्प चला रहे हैं, उन प्रतिनिधि सेवा-केन्द्रों का चयन किया है जो अपने सीमित साधनों के बावजूद एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। साधन, समय और स्थान की सीमा के कारण काफी कुछ ऐसा भी है जो इस बार नहीं दे पा रहे हैं। पाठक अपने सुझाव और इस विषय में अधिक जानकारी हमें भेजें तो आनंद होगा।आपका सम्पादकीय परिवार4
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