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बसप्पा का दधीचि-सा त्याग-आचार्य सी.वी.नागेश्वरबंगलुरू निवासी आचार्य सी.वी. नागेश्वर जी का जीवन भारत की ऋषि परम्परा का साक्षात दर्शन है। राजस्थान के पिलानी इंस्टीटूट आफ इंजीनियरिंग में वे वर्षों तक “फाइबर ग्लास टेक्नोलॉजी” के प्रोफेसर रहे लेकिन विधि, इतिहास, पुरातत्व, बौद्ध साहित्य, दर्शन शास्त्र, संस्कृत और हिन्दी साहित्य, संगीत, विज्ञान, संस्कृत, चीनी, जापानी, जर्मन आदि विषयों-भाषाओं का उन्होंने न सिर्फ अपनी रुचि के कारण गहन अध्ययन किया वरन् अकादमिक उपाधियां भी प्राप्त कीं। विवेकानंद केन्द्र के सन्यासी के रूप में 60 की उम्रा के बाद सारा अरुणाचल प्रदेश व असम पैदल ही छान मारा। जीवन जगत की सार्थकता जानने की लालसा ने उन्हें वेदों के अध्ययन की प्रेरणा दी। संप्रति: वे वेद विज्ञान गुरुकुल, चेननहल्ली के पूर्णकालिक आचार्य हैं। उनके जीवन-अनुभवों पर आधारित अत्यंत प्रेरक कहानियों की पुस्तक कर्नाटक विद्याभारती ने प्रकाशित की है “रीकलेक्शंस एंड रिफ्लेक्शंस”। पुस्तक अंग्रेजी में है, इसमें उल्लिखित जीवंत कहानियों की श्रंृखला का अनूदित पाठ यहां प्रस्तुत है-बात उन दिनों की है जब मैं अपनी इंटरमीडिएट शिक्षा ग्रहण कर रहा था। तब बसप्पा हमारे स्कूल में जीव विज्ञान प्रयोगशाला में सहायक हुआ करते थे। वे भगवान शंकर के परम भक्त थे। उनका रहन-सहन भी साधारण, सरल और बहुत पवित्र था। कोई ऐसा दिन नहीं होता था कि वे अपन माथे पर भभूत न धारण करते हों। चलते-फिरते, उठते-बैठते उनके मुख से अधिकांश समय ॐ नम: शिवाय, ॐ नम: शिवाय मंत्र जाप सुनाई पड़ता था। वे प्रयोगशाला को हमेशा साफ-सुथरा और अत्यंत व्यवस्थित रखते थे। जब हमारे अध्यापक श्री राजा आयंगर हमें प्रयोग सिखाते तो वे भी वहां खड़े रहते और प्रयोग के लिए सहायक प्रत्येक वस्तु तैयार रखते। विभिन्न जीव-जन्तुओं के बारे में उनका ज्ञान भी बड़ा विशद था। वे हमें रासायनिक मिश्रण में सुरक्षित जीव-जन्तुओं के अवशेषों को समझने में भी मदद करते। उन्हें न सिर्फ अपने दायित्व का भली-भांति ज्ञान था वरन् विषय पर भी उनकी गहरी पकड़ थी। अपना खाली समय व्यर्थ गंवाने की बजाय वे जीव विज्ञान की पुस्तकें पढ़ते। उनके पास “वेब्स्टर” का अंग्रेजी शब्दकोश सदा उपलब्ध रहता और जब कभी उन्हें किसी अंग्रेजी शब्द या वाक्य को समझने में कठिनाई होती, निःसंकोच किसी अध्यापक या हम विद्यार्थियों से पूछ लेते। वे खुद भी प्रयोगशाला में प्रयोग करने में माहिर थे। हमारे स्कूल में एक बात बड़ी प्रसिद्ध थी कि प्रयोगशाला में अब तक यदि किसी ने सूक्ष्मदर्शी यंत्र का सर्वाधिक उपयोग किया है या करता है तो वे बसप्पा ही हैं। उन्हें मानो जीव विज्ञान और अपनी प्रयोगशाला से प्यार हो गया था। उनका जीव विज्ञान का ज्ञानबसप्पा आजीवन अविवाहित रहे, उनका अपना परिवार तो नहीं था लेकिन उनके ह्यदय में मानो विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए अपने बच्चों के समान प्यार उमड़ता था। हम लोगों के लिए तो वे ममत्व की मूर्ति थे। अक्सर वे स्कूल आते तो अपने साथ खाने-पीने की ढेर सारी सामग्री ले आते और भोजन-अवकाश के समय हम विद्यार्थियों में बांट देते। हमें खाते देखकर उन्हें असीम आनंद मिलता। मैं जब भी उनके मुखमंडल को देखता, उनके चेहरे पर अद्भुत आत्मतोष की अनुभूति दिखाई पड़ती। वे सचमुच एक समर्पित आत्मा थे, ऐसे समर्पित कि सारा स्कूल ही उनके लिए मंदिर बन गया था। हम सभी छात्र भी उन्हें बहुत प्यार करते और इसी प्रकार सभी अध्यापकों के मन में भी उनके प्रति बहुत आदर भाव रहता था।उनकी कर्मठ और समर्पित छवि के कारण सारा विद्यालय जीव विज्ञान प्रयोगशाला को बसप्पा की प्रयोगशाला के नाम से ही जानता था। इंटरमीडिएट परीक्षा पास करने के बाद मैंने उच्च शिक्षा के लिए महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया लेकिन अक्सर छुट्टियों में हमारा उनसे मिलना होता, उनके प्रेम पगे आचरण का प्रभाव ही कुछ ऐसा था। जब मैं बंगलुरू आ गया तो उनसे मिलना लगभग न के बराबर हो गया।कालांतर में मैंने अपने एक निकटतम मित्र, जो बसप्पा के बहुत करीबी भी थे, से जाना कि उनका निधन हो गया। ये समाचार सुनते ही मेरी आंखों से आंसू बह निकले। किंतु उनके निधन के बाद जो कुछ घटित हुआ उसे जानकर मैं बसप्पा की महानता पर इस कदर अभिभूत हुआ कि आज भी उनकी याद मेरे मन में वैसी ही ताजा है जैसे स्कूली दिनों में रहती थी। मेरे मित्र ने बताया कि मरने के पहले बसप्पा अपनी वसीयत लिख गए थे कि उनकी पार्थिव देह का अंतिम संस्कार न किया जाए। उनके शरीर क्षरण के बाद शेष अस्थि पंजर जीव विज्ञान प्रयोगशाला को दान कर दिए जाएं। और इसके बारे में विद्यालय में किसी को कुछ भी न बताया जाए। वसीयत में उन्होंने प्रयोगशाला में अस्थि-पंजर के साथ अपने नामोल्लेख पर भी सख्त मनाही लिखी। बसप्पा की इस वसीयत का बाद में उनके परिजनों ने अक्षरश: सम्मान करते हुए उनकी अस्थियां प्रयोगशाला को चुपचाप सौंप दीं। मैंने अपने मित्र से जब ये जाना तो सहसा मेरे मानस पटल पर बसप्पा के साथ बिताए समय की यादें उमड़ आईं। वे जीव विज्ञान प्रयोगशाला से न सिर्फ प्रेम करते वरन् उसकी एक-एक चीज को करीने से संवार कर रखते। हमें बातों ही बातों में जीव-जन्तुओं के सुरक्षित नमूनों को दिखाकर कितनी ही शंकाओं का समाधान उन्होंने किया। ऐसे ही एक बार मानव शरीर और अस्थि तंत्र पर बातचीत के दौरान मैंने उनका उचाट मन देखा तो पूछा- “बसप्पा, आप आज कुछ अनमने से दिख रहे हैं? तब उन्होंने कहा कि “हां, तुम सबको मैं मानव शरीर और अस्थि तंत्र के बारे में ठीक से समझा नहीं पा रहा हूं, काश हमारी प्रयोगशाला में किसी मानव का अस्थि-पंजर होता।” अपने जाने के बाद बसप्पा ने अपनी प्रयोगशाला के इस अधूरेपन को अपना कंकाल अर्पित कर पूरा किया।अभी कुछ वर्ष पहले, करीब-करीब पचास सालों के बाद मैं अपने उसी प्यारे विद्यालय को देखने गया तो अपनी जीवविज्ञान प्रयोगशाला भी देखी। मैंने दीवार पर बसप्पा के अस्थि-पंजर को टंगा पाया तो सहज ही मेरा शीश उनकी याद में झुक गया। सचमुच उन्हें भगवान शिव ने अपने समीप ही कोई स्थान दिया होगा, उनकी याद में मेरी आंखों में कुछ बूंदे लुढ़क आईं तो वहां खड़े अध्यापक और विद्यार्थी इसका मर्म नहीं भांप पाए। उन्हें लगा कि स्कूल के साथ जुड़ीं यादों के कारण मैं भावुक हो गया लेकिन ये तो आधा सत्य था जो वे मुझे देखकर समझ पाए। वास्तव में विद्यालय में किसी को नहीं मालूम था कि इस अस्थि पंजर का सच क्या है। मैंने भी बसप्पा की भावना का ख्यालकर इसे बताना उचित नहीं समझा।प्राचीनकाल की एक कथा मैं बचपन से सुनता आया हूं कि ऋषि दधीचि ने राक्षसों के वध के लिए अपनी अस्थियां, विशेषकर रीढ़ की हड्डी देवों को दान कर दी थी। अपने जीवन में मैंने वही घटना साक्षात बसप्पा के साथ घटित होते देखी। बसप्पा ने अपना पूरा अस्थि-पंजर ही अपने प्रिय विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए दान कर दिया। उनका अस्थि पंजर ही स्वयं में उनकी याद का महान जीवंत स्मारक है।23
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