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सूरदास कारी कामरि पै चढ़त न दूजौ रंग-डा. अविनाश चन्द्र अग्निहोत्रीसंत सूरदास एक महान भक्ति कवि एवं हिन्दी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। उनका आदर्श चरित्र और जीवन दर्शन अंधेरे को भी उजाला प्रदान करता है। सूरदास जहां भक्त, वैरागी, त्यागी और संत थे, वहीं वे उत्कृष्टतम काव्य प्रतिभा के धनी भी थे। इसलिए उनके अन्तर्मन की पावन भक्तिधारा मन्दाकिनी की भांति कल-कल करके प्रस्फुटित हुई।सूरदास आशु कवि थे। उन्होंने काव्य लिखा नहीं बल्कि उनके मुखारविन्द से स्वत: श्रीकृष्ण की लीला गान करते हुए पद झड़ने लगे थे और वे पद-रूप रसामृत-बिन्दु की तरह एकत्र होकर सागर ही नहीं काव्य रस का महासागर बन गए, जिसे “सूरसागर” के नाम से जाना जाता है।जीवन वृत्तमहाकवि सूरदास का जीवन वृत स्वल्प अंश में ही ज्ञात है। उनके लिए महत्व अपनी अस्मिता का नहीं, आराध्य का था। इसलिए उनके जीवन सम्बंधी साक्ष्य नहीं के बराबर मिलते हैं। फिर भी उपलब्ध सामग्री के द्वारा आधुनिक विद्वानों ने जो विवेचना की है, उसी के आधार पर सूरदास का संक्षिप्त जीवन वृत्त प्रस्तुत है।उनका जन्म एक निर्धन ब्रााहृण परिवार में सम्भवत: सन् 1535 की वैशाख शुक्ल पंचमी मंगलवार को हुआ। जन्म स्थान के सम्बंध में चार स्थान प्रसिद्ध हैं-गोपाचल, मथुरा का कोई एक गांव, रुनकता तथा सीही।चार भाइयों में सूरदास सबसे छोटे एवं नेत्रहीन थे। माता-पितावे संगीत-शास्त्र के परम ज्ञाता, काव्य नैपुण्य एवं गान-विद्या विशारद विषय में प्रतिभा संम्पन्न थे। सूरदास के गोलोकवासी होने के समय के सम्बंध में भी विद्वान एक मत नहीं हैं। अधिकांश साहित्यकार सूरदास का निधन सं. 1640 का समय मानते हैं। इस दृष्टि से उनको 105 वर्ष की दीर्घायु मिली, जिसको उन्होंने समर्पण-भाव से आराध्य के लीला-गान में व्यतीत कर भक्तों को और हिन्दी के भक्ति-काव्य को सुधासिक्त कर दिया।अकबर से भेंटकुछ लोगों के अनुसार सम्राट अकबर सूरदास से मिलने आए थे। कहते हैं कि तानसेन ने अकबर के समक्ष सूरदास का एक पद गाया। पद के भाव से मुग्ध होकर सम्राट अकबर मथुरा जाकर सूरदास से मिले। सूरदास ने बादशाह को मना रे माधव सौं करु प्रीती गाकर सुनाया। बादशाह ने प्रसन्न होकर सूरदास को अपना यश वर्णन करने का आग्रह किया। तब निर्लिप्त सूरदास ने नाहिन रहनो मन में ठौर पद गाया। पद के अन्तिम चरण सूर ऐसे दरस को ए मरत लोचन व्यास को लेकर बादशाह ने पूछा “सूरदास जी तुम अंधे हो, फिर तुम्हारे नेत्र दरस को कैसे प्यासे मरते हैं?” सूरदास ने कहा “ये नेत्र भगवान को देखते हैं और उस स्वरूपानन्द का रसपान प्रतिक्षण करने पर भी अतृप्त बने रहते हैं।” अकबर ने सूरदास से द्रव्य-भेंट स्वीकार करने का अनुरोध किया। पर निडरतापूर्वक भेंट अस्वीकार करते हुए सूरदास ने कहा आज पीछे हमको कबहूं फेरि मत बुलाइयो और मोको कबहूं लिलियो मती।सूरदास का काव्य श्रीमद्भागवत से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। उन्होंने आजीवन श्री गोवद्र्धन नाथजी के चरणों में बैठकर ब्राजभाषा काव्य के रूप में जो भागीरथी का संचार किया, उसका वेग आज तक विद्यमान है।सूरदास कृष्ण-भक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। नागरी प्रचारिणी सभा की खोज के अनुसार सूरदास के नाम से 25 रचनाएं उपलब्ध हैं किन्तु अधिकांश विद्वान उनकी केवल तीन रचनाओं को ही-सूरसागर, सूर-सारवली और साहित्य-लहरी प्रामाणिक मानते हैं। सूरसागर सूरदास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी लोकप्रियता का पता इससे चलता है कि देश-विदेश के विभिन्न पुस्तकालयों में इसकी सौ से अधिक हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं। अमरीका में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पुस्तकालय एवं ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय में भी सूरसागर की हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं। “सूरसागर” लगभग पांच हजार गेय पदों का संग्रह है। इस ग्रंथ में अधिकांश पदों में कृष्ण लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत के आधार पर किया गया है और कुछ पदों में विनय-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। सूर-सारवली में कुल 1107 पद हैं, जिनमें होली के रूपक से सृष्टि-रचना एवं विभिन्न अवतारों का वर्णन किया गया है।सूरदास ने सर्वप्रथम ब्राजभाषा को समृद्ध साहित्यिक भाषा का रूप दिया। उनके पूर्व ब्राजभाषा का प्रयोग साहित्य में बहुत कम हुआ है। सूरदास का शब्द भण्डार व्यापक एवं समृद्ध है। उन्होंने आवश्यकतानुसार संस्कृत के तत्सम शब्दों को अपनाया है, ध्वनि एवं संगीतात्मकता लाने के लिए अरबी-फारसी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग करके भाषा को स्वाभाविक बनाया है। सूरदास ने कृष्ण के बचपन एवं किशोरावस्था की लीलाओं को ब्राज के तत्कालीन जीवन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया है। कृष्ण के जन्मोत्सव, अन्नप्राशन, वर्षगांठ आदि प्रसंगों के वर्णन में ब्राज के तत्कालीन जीवन का प्रतिबिम्ब है।राष्ट्रीय जीवन में सूरदाससंत सूरदास द्वारा रचित काव्य साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान भारतीय लोक संस्कृति और परम्परा को उच्च शिखर पर आसीन कराने में हुआ। उन्होंने द्वापर के नायक श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का समसामयिक लोक-आस्था के अनुरूप चित्रण किया और भगवान को एक लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया। भगवान को लौकिक रूप में प्रस्तुत कर सूरदास ने हमारे समाज को एक नई आस्था एवं अवधारणा दी है। वास्तव में सूरदास का काव्य लालित्य, वात्सल्य और प्रेम का काव्य है।13
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