प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा
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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा

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Mar 2, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2008 00:00:00

सहयोग की बात हो, पर ईमानदारी सेभारत की 38 हजार वर्ग कि.मी. भूमि वापस करे चीन-अशोक चौरसियाकांग्रेसनीत यू.पी.ए. सरकार एवं इसके सहयोगी वामपंथी नेता प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की 13 जनवरी से 15 जनवरी, 2008 तक हुई चीन यात्रा को सफल, दूरगामी लक्ष्यों वाली, ऐतिहासिक, एक नई दिशा की शुरूआत आदि बताते हुए अपनी पीठ खुद थपथपा रहे हैं। परन्तु अरुणाचल प्रदेश के तवांग पर चीन ने दावा ठोककर अपनी नीयत साफ कर दी है, वह भी भारतीय प्रधानमंत्री की बीजिंग में चीन के प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ से भेंट के समय। भारत विशेषज्ञ एवं चीनी विदेश मंत्रालय के प्रमुख सलाहकार मा च्या ली ने दोनों नेताओं के संयुक्त बयान से पहले ही एक चीनी टीवी चैनल से बातचीत के दौरान चीन का रुख यह कहकर स्पष्ट कर दिया कि “तवांग हर हाल में चीन को चाहिए।” दोनों प्रधानमंत्रियों के संयुक्त बयान में भी चीनी प्रधानमंत्री ने ऐसा ही संकेत दिया। परन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि भारतीय पक्ष या सरकार की तरफ से इस चीनी बयान का खण्डन नहीं किया गया और न ही चीनी सेनाओं द्वारा भारतीय सीमाओं में बार-बार घुसपैठ का ही मामला जोरदार ढंग से उठाया गया। उल्टे भारत के रक्षा एवं गृह मंत्री घुसपैठ के मामलों से पहले तोभारतीय थल सेना प्रमुख ने सरकारी बयान से एक कदम और आगे जाकर इस चीनी अतिक्रमण को चिंताओं से परे बताया। थल सेना अध्यक्ष जनरल दीपक कपूर का तर्क था कि चीनी सेना एवं भारतीय सेना अपनी-अपनी सीमा सम्बंधी अवधारणा के आधार पर गश्त करती हैं। अत: यह कोई गंभीर मामला नहीं है और न ही इससे चिंता की कोई बात है। जनरल कपूर, ए.के. एण्टनी एवं प्रणव मुखर्जी शायद यह भूल गए कि सन् 1962 का चीनी हमला इसी प्रकार की अवधारणा का परिणाम था। भारतीय क्षेत्र अक्साईचीन में चीन ने सड़क मार्ग का निर्माण प्रारंभ किया जिसे भारतीय सेना ने रोका, चीन ने भारत के विरोध जताने पर युद्ध छेड़ दिया। युद्ध में भारत को अपनी 38,000 वर्ग कि.मी. जमीन चीनियों के हाथों गंवानी पड़ी, जिस पर आज भी चीन कब्जा जमाए बैठा है। इसमें जम्म्ू-कश्मीर की 3,000 वर्ग कि.मी. एवं अरुणाचल प्रदेश की 35,000 वर्ग कि.मी. भूमि शामिल है। पहले ही पूरे तिब्बत को हड़पने के बाद चीन अरुणाचल प्रदेश की 90,000 वर्ग कि.मी. जमीन पर आज भी दावा ठोक रहा है। बदले में भारत सरकार एवं इसके नेता जबान तक नहीं खोल पा रहे हैं। क्या यह सच नहीं है कि बार-बार चीनी सेनाओं द्वारा भारतीय सीमा में अतिक्रमण से कभी भी उत्तेजना भड़क सकती है जिसका परिणाम युद्ध में बदल सकता है? पिछले नवम्बर, 2007 में चीन ने तवांग में घुसकर एक बुद्ध मूर्ती को तोड़ा एवं वहां कब्जा जमा लिया। 1986 में संगदूरंग चू घाटी पर कब्जा कर लिया। आखिर भारत यह सब कब तक बर्दाश्त करेगा?परमाणु ऊर्जा पर चीन का सहयोग, व्यापार के क्षेत्र में सहयोग, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता पर चीनी समर्थन के संकेत मात्र से यू.पी.ए. सरकार व नेता गद्गद् हो रहे हैं। यू.पी.ए. के सहयोगी कम्युनिस्ट तो मानो फूले नहीं समा रहे हैं। सन् 1950 के दशक में प्रधानमंत्री नेहरू की अगुवाई में भारत-चीन सम्बंधों के ऐसे ही बखान किये गये थे। “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” के नारे नेहरू ने खूब लगवाए। चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को भारत में निमंत्रित किया और खूब आवभगत की थी।वर्ष 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन का दौरा किया था तथा अपनी स्पष्ट एवं दृढ़इतिहास गवाह है कि विश्व में भारत ही पहला गैर साम्यवादी देश था, जिसने माओत्से तुंग की साम्यवादी सरकार को केवल मान्यता ही नहीं दी बल्कि बीजिंग से राजनीतिक सम्बंध भी कायम किया। नेहरू को अंदाजा ही नहीं था कि जिस माओ एवं चीनी साम्यवादी शासन की हिमायत वे कर रहे हैं वही साम्यवादी चीन एवं माओवाद भारत का अमन-चैन, सुख-शांति छीनने एवं भारतीय सीमा को असुरक्षित करने को आतुर है। वह सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र की सुरक्षा के लिए हमेशा एक चुनौती एवं खतरा बना रहेगा।1962 में चीनी आक्रमण से पूर्व, चीन से भारत को कोई खतरा नहीं है, यह कहकर भारतीय रक्षा बजट में 25 प्रतिशत की कटौती करवाने वाले मेनन ही थे। आज एक बार फिर केन्द्र सरकार में कांग्रेसनीत यू.पी.ए. सरकार की प्रमुख सहयोगी कम्युनिस्ट पार्टी है। जाहिर है चीन से सम्बंधों के नीति निर्धारण मेंसन् 1962 के युद्ध में भारत की पराजय ने नेहरू के सारे भ्रम तोड़ दिए। अंतत: मेनन को मंत्री पद से हटाना पड़ा। आज पुन: कांग्रेस चीनी मोह में फंसी दिखाई दे रही है। फर्क सिर्फचीन की निगाहें केवल तवांग पर ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण नेपाल एवं भूटान पर टिकी हुई हैं। पिछले वर्ष चीन ने भूटान के उत्तरी क्षेत्र में कई स्थानों पर जबरन कब्जा कर लिया। नेपाल में भी वह प्रयासरत है कि चीन के हिमायती माओवादियों का नेपाल के शासन पर कैसे कब्जा हो। दुर्भाग्य तो यह है कि देश के किसी भी बड़े नेता ने इस चीनी बयान की कड़े शब्दों में निंदा नहीं की है।दलाई लामा ने तो स्पष्ट रूप से कह दिया है कि -“भारत गुरु है और तिब्बत उसका शिष्य। प्राचीन काल से तिब्बत का अटूट सम्बंध भारत से है, इसकी धर्म-संस्कृति से है। मैं 24 वर्ष की आयु से ही भारत में रह रहा हूं। अत: मैं भारतीय हूं। तिब्बत का आधार भारत है, न की चीन। तिब्बत तिब्बतियों का है।”यह बात सत्य है कि भारत-चीन सम्बंध जितने मधुर एवं दृढ़ होंगे उतना ही विश्व के बदलते परिप्रेक्ष्य में दोनों देशों को लाभ होगा। दोनों देश विश्व की शीर्ष शक्ति हो सकते हैं। इसके लिए चीन को अपनी ईमानदारी का सबूत देना होगा। चीन तवांग का ख्वाब देखना बंद करे और भारत को उसकी 38 हजार वर्ग कि.मी. जमीन वापस करे।9

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