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नासिरा शर्मा की पुस्तकें उजागर करती हैं

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Mar 2, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2008 00:00:00

मुस्लिम देशों का सच-अमरीश सिन्हापुस्तक का नाम – मरजीना का देश इराकलेखिका – नासिरा शर्माप्रकाशक – मनस्वी प्रकाशनएम-8, कृष्णदीप काम्पलेक्स,महारानी रोड, इंदौर-7मूल्य – 200/-पुस्तक का नाम – जहां फव्वारे लहू रोते हैंलेखिका – नासिरा शर्माप्रकाशक – वाणी प्रकाशन 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-2मूल्य – 200/-मुस्लिम लेखिका नासिरा शर्मा का लेखन अक्सर विवादों में रहा है। चाहे वह ईरान की पृष्ठभूमि पर लिखा गया उनका लेख हो या पाकिस्तान और अफगानिस्तान में स्त्रियों की अपमानित और नारकीय जिंदगी का बेखौफ वर्णन। उन्होंने अलग-अलग मुस्लिम देशों की सामाजिक स्थितियों का वर्णन करते वक्त उनकी आपस में तुलना भी की है कि कैसे इराक की महिलाएं पाकिस्तान व तुर्की की महिलाओं की अपेक्षा अधिक स्वतंत्रता से जीती हैं।नासिरा शर्मा ने महिला कथाकार होते हुए ईरान की क्रांति के दौरान वहां जाकर साहस और जिजीविषा के साथ कार्य किया और “सात नदियां एक समंदर” तथा “जहां फव्वारे लहू रोते हैं” जैसी कृतियां गढ़ीं।इराक की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को अपनी नजरों से देखकर, उनमें स्वयं को आत्मसात कर लिखी गई कृति है “मरजीना…”। नासिरा इससे पूर्व ईरान की पृष्ठभूमि पर अपने लेखन से चर्चित हुई थीं। वह स्वयं कहती हैं कि “मैं ईरान को लेकर कुछ लिखने के अंतिम दौर में थी। तथ्य और कागजात, नोट्स आदि संजोकर रखे हुए थे। मैं काफी कुछ लिख भी चुकी थी कि इराक जाने का न्यौता आया। विश्व भर के लेखक, पत्रकारों को इराक आने का निमंत्रण पत्र दराज में डाल दिया कि उपन्यास लिखने की एकाग्रता भंग न हो, वह भी तब जब रचनाकार लिखने के आखिरी चरण में हो। पर मेरे पति ने कहा कि “यह अच्छा अवसर है। अब तक तुमने ईरान पर काम किया है। पर सिक्के के दूसरे हिस्से को भी देखना चाहिए। तुम लेखक-पत्रकार हो। तुम्हें दोनों सिरों को देखना चाहिए अन्यथा पूर्वाग्रह से ग्रसित होने का आरोप लग सकता है” मैंने फिर अपना निर्णय बदला। सोचा, चलो इराक को देखूं व समझूं।” और नासिरा ने इराक का दौरा किया। वहां की सरकारी बैठकों में हिस्सा लिया, युद्धग्रस्त इलाकों में डरते हुए, सहमते हुए, पर हिम्मत दिखाते हुए वह घूमीं, विभिन्न वर्गों के लोगों से मिलीं, परिवारों में जाकर साथ बैठकर गप-शप किए, उन्हें- उनकी पृष्ठभूमि, उनकी सोच को जानने की कोशिश की। रिपोर्ताज शैली में लिखे गए इस लेख-संग्रह में संपन्न देश अमरीका की धौंस को नहीं सहने वाले इराक, इराकवासियों और सद्दाम हुसैन की हिम्मत, हौसले और जिंदादिली की तस्वीर प्रस्तुत की गई है। उन्होंने तब अमरीका की आलोचना की जब अमरीकी दबाव शिखर पर था। 1980 से लेकर 2003 तक इराक ने क्या झेला, इसका बेबाक बयान लेखिका ने इस पुस्तक में ईमानदारी से किया है। हाल के 25-26 वर्षों में इराक ने जो कुछ झेला है उसे दुनियाभर के लोगों ने देखा-पढ़ा-सुना है। वर्ष 2006 में ईद के मौके पर सद्दाम हुसैन को फांसी दे दी गई। इससे भी इराक के बारे में, सद्दाम हुसैन के बारे में, उन्हें चाहने और न चाहने वालों के बारे में लोगों की उत्सुकता बढ़ी है। ऐसे में नासिरा की इस पुस्तक का महत्व बढ़ जाता है। इसमें यह जानने को मिलता है कि सद्दाम ने कैसे निरंतर प्रतिकूल परिस्थितियों में रहते हुए इराक को प्रगतिशील बनाया और इराकवासियों को फिक्रमंद बने रहने का हुनर सिखाया। “बगदाद कई बार उजड़ा और कई बार बसा, मगर हर तबाही के बाद वह उस संस्कृति एवं सभ्यता की बुनियाद पर दोबारा आबाद हो गया। लेखकों ने कलम-दवात में डुबोये और कागज फिर अक्षरों से रंगे जाने लगे। मदरसों की दीवारें उठने लगीं और संगीत में डूबी दवा हजला के पानी पर मचलती लहरों से अठखेलियां करने लगीं।वस्तुत: बगदाद सिर्फ 1980 से 2003 के बीच ही नहीं उजड़ा, पहले भी कई बार लूटमार, आगजनी और कत्लेआम का कहर देख चुका है। कोई 750 वर्ष पहले चंगेज खां के पोते हलाकू के हुक्म से तातारी फौज ने, जिसमें तुर्क, खिरगीज कौरलूक, अलयगूर और मुगल सिपाही मौजूद थे, ऐसा नरसंहार किया था कि बगदाद की सड़कों पर बहते खून में उन सिपाहियों के घोड़ों की टांगें डूब गई थीं। मदरसों से लूटी किताबें दजला में डाल दी गईं जो पानी में फूलकर एक-दूसरे से चिपक गईं और एक पुल की शक्ल में ढल गई, जिसपर से पैदल और सवार बड़े आराम से गुजर जाते थे। बाकी नदी का पानी काफी दूर तक काला हो गया था।लेखिका ने यह पुस्तक वर्ष 2003 में लिखी जब सद्दाम दुनिया की महाशक्ति अमरीका से जूझ रहे थे। लेखिका ने हिम्मत से यह लिखा कि सद्दाम और इराक दोनों ने समाज की महिलाओं की तरक्की को हमेशा तरजीह दी। अरब देश भी मुस्लिम देश हैं लेकिन वे सिर्फ मक्का-मदीना में आने वाले हाजियों की फिक्र रखने तक सीमित रहना चाहते हैं ताकि आने वाले पिछड़े रहें और उनकी दुकान चलती रहे। पाकिस्तान, तुर्की भी मुस्लिम देश हैं, लेकिन वहां की महिलाओं की नारकीय स्थिति किसी से छुपी नहीं है। इराक भी इस्लाम का अनुयायी है लेकिन दूसरे मुस्लिम देशों जैसा पिछड़ापन, रूढ़िवादिता, कट्टरवाद एवं दकियानूसीपन यहां के लोगों में नहीं है। इसलिए लेखिका ने सीधे-सीधे स्वीकारा है कि इराकी महिला का वर्तमान सुनहरा है और यहां के लोग विशेष विचार के अधीन नहीं हैं। इराकी महसूस करते हैं कि अमरीका ने ईरान- इराक को आपस में भिड़ाया ताकि उसके हथियार बिकें। इराकी यह भी महसूस करते हैं कि अमरीका यही चाहता है कि इराकी पिछड़े और रूढ़िग्रस्त रहें। तरक्की न करें। करें तो अमरीकी शर्तों और नियमों पर।यह उपन्यास उल्लेखनीय है विशेषकर सद्दामोत्तर युग में क्योंकि लेखिका ने तब लिख दिया था कि इराक के बहाने अमरीका का पतन शुरू हो गया है। इराक के सिलसिले से जो अमरीका के नैतिक मूल्यों की हार हुई है वह अराजकता के इतिहास में सदा काले अक्षरों में याद की जाएगी। आज अमरीका जिसको विजय कह रहा है दरअसल वह उसके पतन का पहला कदम और पराजय की उद्घोषणा है। अमरीकी डालर कमजोर हो रहा है और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उसकी तूती समाप्त हो गयी है। उसने विश्व के लगभग सभी देशों की जनता के दिलों में नफरत का गहरा बीज बो दिया है। ये शब्द आजईरान का अध्ययन करने के उपरांत नासिरा ने “जहां फव्वारे लहू रोते हैं” लिखा। जरा उनके पत्रों को पढ़ने और दिल से समझने की कोशिश करें हमारे लेखक बंधु, जिनमें लेखिका ने ईरानी क्रांति को उकेरा है। जहां लेखिका ने ब्रिटेन को ईरानी क्रांति का बैकबेंचर माना है, ईरानी क्रांति के जरिए अफगानिस्तान की पीड़ा को समझा है, फिलिस्तीन समस्या को भी समझने की ईमानदार कोशिश की है और पाकिस्तान स्थित फूलों के शहर पेशावर के बारे में लिखा है कि इस शहर ने बढ़ती जनसंख्या, घर-घर हथियारों के जमा होने और सड़क पर हथियार-बंद लोगों के घूमते रहने के बावजूद अपने शांत माहौल और मेहमाननवाजी को दरकिनार नहीं किया है।जिस लेखिका ने निरंतर ईरान-इराक-अफगान पर शोध किया और मुस्लिम देशों की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक स्थिति को दुनिया के समक्ष बेखौफ रखा, जो लगातार स्त्री-विमर्श पर कार्य करती रही है और बिना किसी गुटबाजी एवं लामबंदी के अपनी रचना यात्रा आगे बढ़ाती रही है, विख्यात लेखकों ने उसे अल्पसंख्यकवादी बताया, यह लेखन जगत के लिए अनुचित है। जबकि कई पुरुष लेखकों को आपसी बातचीत में एक-दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए या पुरस्कार समितियों की छिछालेदर करते हुए अक्सर देखा जाता है। कई तो पुरस्कार के लिए विविध प्रकार के स्वस्थ-अस्वस्थ प्रयास व प्रचार-दुष्प्रचार, षडंत्र करते देखे जाते हैं। उन्हें कोई कुछ भी नहीं कहता। नासिरा शर्मा के लेखन पर प्रश्न चिन्ह लगाने एवं उसकी तीखी आलोचना- आरोप लगाने वाले लेखक- साहित्यकार बंधुओं से मेरा निवेदन है कि वे पाठकों के लिए ईमानदारी और हिम्मत से लिखने की अपनी जिम्मेदारी निभाते रहें तथा हिन्दी लेखन जगत को तमाम प्रपंचों से ऊ‚पर उठाने में श्लाघनीय कार्य करते रहें।21

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