यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाम खुला पत्र- 2
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यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाम खुला पत्र- 2

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Mar 2, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Mar 2008 00:00:00

संसाधनों, रोजगार और विकास पर डाकासुप्रसिद्ध अर्थ विशेषज्ञ श्री नमित वर्मा द्वारा देश में आर्थिक घोटाले के संदर्भ में यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी को विस्तृत पत्र लिखा गया था। उस पत्र का प्रथम भाग पाचजन्य के 16 दिसम्बर अंक में प्रकाशित किया गया था। यहां प्रस्तुत है उसी पत्र का दूसरा भाग, जो 23 दिसम्बर, 2007 को लिखा गया था। सं.मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार द्वारा कानून और संवैधानिक प्रक्रिया का गंभीर उल्लंघन किए जाने का मामला हाल ही में सामने आया है। सरकार और उसकी एजेंसियों केइस घोटोले में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) और भारत सरकार द्वारा बाजार से लिए गए गैरकानूनी ऋण की बयाज अदायगी के लिए बजट संसाधनों के करोड़ों रुपए, अनधिकृत तरीके से गैर बजटीय मद में भेजा जाना शामिल है। इस रकम का इस्तेमाल इराक पर जमे अमरीकी कब्जे के लिए संसाधनों की उगाही में किया गया है।एमएसएस बांड घोटाले में निम्नलिखित अपराध किए गए हैं : (1) रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर और केंद्र सरकार ने अमरीकी राजदूत डेविड कैंपबेल मल्फोर्ड के कहने पर रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 का उल्लंघन किया। (2) धोखेबाजी से बहुमूल्य भारतीय संसाधनों का अमरीका को हस्तांतरण किया गया। (3) इराक में अमरीकी घुसपैठ के लिए गुप्त रूप से फंड सहयोग दिया गया। (4) भारत की आर्थिक सुरक्षा को नुकसान पहुंचाने और हमारे संसाधनों को चुराने के लिए विदेशी सरकारों, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से मिलकर साजिश रची गई।कुछ ईमानदार सरकारी कर्मचारियों ने बताया कि अपने-अपने स्तर पर उन्होंने बार-बार कोशिश की कि सरकार खुद अपने नियमों का उल्लंघन न करे। उन्होंने कानूनों के उल्लंघन का विरोध भी किया था। लेकिन शीर्ष स्तर पर उनकी बात नहीं मानी गई। इसका सबूत “आरबीआई वर्किंग रिर्पोट आन इंस्टÜमेंट्स आफ स्टेरिलाएमएसएस सुविधा भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 का पूरी तरह से उल्लंघन है। लेकिन सरकार ने इसे यह महसूस करते हुए शुरू किया कि “रिजर्व बैंक को अधिक लचीला बनाने के लिए डिपाजिट सुविधा अनिवार्य हो गई है। डिपाजिट सुविधा से अल्पकालिक ब्याज दरों की गतिशीलता के लिए आधार मुहैया कराने के प्रावधान पर आंच नहीं आएगी।”रिजर्व बैंक के अधिकारियों ने 21 नवम्बर, 2007 को लिखे मेरे पहले खुले पत्र का जवाब देते हुए संकेत किया था कि वर्किंग ग्रुप पर डिपाजिट सुविधा के लिए विदेशी बैंकों का भारी दबाव था क्योंकि इस सुविधा से “बैंकों को भुगतान से आने वाली अतिरिक्त तरलता का इस्तेमाल करने में मदद मिलेगी।”आरबीआई वर्किंग ग्रुप रिपोर्ट (2 दिसम्बर, 2003) में स्वीकार किया गया है कि “ग्रुप ने एक स्थाई डिपाजिट सुविधा की संभावना पर विचार किया। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 अपने मौजूदा रूप में आर.बी.आई. को बैंकों से साफ आधार पर ऋण लेने और उस पर ब्याज का भुगतान करने की20 दिसम्बर, 2003 को भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100 खरब डालर पार कर गया था। चूंकि डालर कमजोर था, इसलिए भारत सरकार पर भारी दबाव था कि वह डालर को बेचकर अपने विदेशी मुद्रा भंडार को दूसरी मुद्राओं, खासतौर पर यूरो में रखे। जब यह मुद्दा पहले सार्वजनिक बहस और फिर अंतत: हमारे राष्ट्रीय संसाधनों की लूट की चिंता का विषय बना, तो तत्कालीन सरकार डालर से हटने के लिए बाध्य हुई।लगातार बढ़ते अमरीकी राष्ट्रीय बजटीय घाटे के दबाव से कमजोर हुए डालर को जब भारत सरकार ने भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार पोर्टफोलियो से हटाना शुरू किया तो अमरीकियों ने इसे रोकने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। इसी क्रम में अमरीकी ट्रेजरी बांड्स के 21 अधिकृत डीलरों में से एक, क्रेडिट सुइस फस्र्ट बोस्टन के अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष डेविड कैंपबेल मल्फोर्ड को भारत का राजदूत भी बनाया गया। भारतीय रिजर्व बैंक और भारत सरकार पर इस बात के लिए दबाव डाला गया कि अमरीकी हित की रक्षा के लिए भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार में भारी मात्रा में डालर और अमरीकी ट्रेजरी बांड बनाए रखा जाए। यह दबाव सहायक अमरीकी विदेश मंत्री क्रिस्टीन रोक्को की अगुवाई में 11 फरवरी, 2004 को मुम्बई आए अमरीकी दल की बातचीत के समय देखा गया। फिर 16 फरवरी, 2004 को नई दिल्ली में भारत सरकार और अमरीकी व्यापार प्रतिनिधि राबर्ट जेलिक की बातचीत के दौरान भी यह दबाव देखा गया।इस अमरीकी दबाव के सामने झुकते हुए और अपने वैधानिक दायित्व को ताक पर रखते हुए गवर्नर वाई.वी. रेड्डी ने 23 फरवरी, 2004 को बाजार स्थिरीकरण योजना की घोषणा की जो आरबीआई वर्किंग ग्रुप की सलाह और भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 का खुला उल्लंघन था।वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने 8 जुलाई, 2004 को अपने बजट भाषण में राष्ट्र से कहा, “वित्तीय दायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम (एफआरबीएम) 2003 से बजट प्रस्तुतिकरण प्रक्रिया सरल हुई है। सरकार ने वित्तीय और आर्थिक नीतियों को कारगर बनाने के लिए 5 जुलाई, 2004 से प्रभावी अधिनियम और नियमों को अधिसूचित कर अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की। एफआरबीएम अधिनियम के तहत मैं 2007-2008 तक राजस्व घाटे को खत्म कर दूंगा। मैं एफआरबीएम अधिनियम को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हूं। राजस्व घाटे के खात्मे से बढ़े हुए सार्वजनिक निवेश के लिए सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत अतिरिक्त निवेश के लिए उपलब्ध हो जाएगा। इससे आदर्श वित्तीय स्थिति को नुकसान भी नहीं होगा।”इसके विपरीत, एमएसएस बांड घोटाले से सकल घरेलू उत्पाद का 6.5 प्रतिशत सार्वजनिक निवेश के लिए अनुपलब्ध हो गया।यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि गवर्नर वेणुगोपाल रेड्डी ने 30 जून, 2007 को जयपुर में अपने व्याख्यान में माना कि “तदर्थ ट्रेजरी बिल्स के जरिए स्वत: मुद्रीकरण अप्रैल 1997 से बंद था। वित्तीय दायित्व एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम 2003 ने, आरबीआई को सभी सरकारी प्रतिभूतियों के प्राथमिक प्रचालन में भाग लेने की अनुमति न देकर, स्थिति को और अधिक मजबूत किया है।”इसके पहले, 23 फरवरी, 2004 को एमएसएस योजना को लागू करने की वैधता पर उठे सवालों के कारण गवर्नर रेड्डी को “अनुज्ञप्ति” के लिए अधिकारहीन सरकार (लोकसभा 6 फरवरी, 2004 को भंग कर दी गई थी और चुनावों की प्रक्रिया चल रही थी) के पास जाने के लिए बाध्य होना पड़ा। साजिशकर्ताओं ने सोचा कि सहमति पत्र पर वित्त मंत्रालय के हस्ताक्षर होने से उन्हें भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 को ताक पर रखने का पर्याप्त अधिकार मिल जाएगा।महत्वपूर्ण बात यह है कि इस सहमति पत्र का मूल पाठ, जिसे सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 4 (1) के प्रावधानों के तहत जनता को उपलब्ध कराया जाना चाहिए था, कहीं नहीं मिलता।भारतीय रिजर्व बैंक के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि सहमति पत्र, जिस पर वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक ने 25 मार्च, 2004 को दस्तखत किए थे, में केवल अवैध बाजार स्थिरीकरण योजना के यौक्तिक और संचालन स्वरूपों का ब्यौरा है। उसमें अनुज्ञप्ति की कोई धारा नहीं है। इसकी पुष्टि के लिए हमें सहमति पत्र की अधिकृत कापी मिलने तक इंतजार करना होगा। इस बीच हम 25 मार्च, 2004 से आगे घटी घटनाओं का जायजा लें।इस तरह के दूरगामी नीतिगत फैसले को पहले उपलब्ध मौके पर संसद के संज्ञान में लाना चाहिए था। यह वित्त मंत्री चिदंबरम की उन भावनाओं के अनुरूप होता जो उन्होंने 8 जुलाई, 2004 को अपने बजट भाषण के समापन पर व्यक्त की थीं। उन्होंने महान संत तिरवल्लुवर का उद्धरण दिया था, “अच्छे शासक वही हैं जो मर्यादाओं का पालन करते हैं, अपराध नहीं करते और सम्मान एवं साहस के पथ पर चलते हैं”।इसके विपरीत, वित्त मंत्री ने एमएसएस मुद्दे को अपने बजट भाषण से अलग रखा। उन्होंने इसका जिक्र केवल भारत सरकार की ऋण स्थिति शीर्षक के तहत प्राप्ति बजट 2004-05 खंड के तहत किया। उन्होंने इस खंड में एमएसएस की अस्पष्ट सफाई देते हुए कहा, “भारत सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक की सलाह से अप्रैल 2004 से बाजार स्थिरीकरण योजना शुरू की है। इस योजना में भारी विदेशी मुद्रा आने से उत्पन्न अतिरिक्त लिक्विडिटी को समायोजित करने के लिए ट्रेजरी बिल्स और/ या दिनांकित प्रतिभूतियों को जारी करने का प्रावधान है।”वित्त मंत्री ने यह रहस्योद्घाटन नहीं किया कि (1) एमएसएस के साथ ब्याज होगा, जो बाद के बजटीय खर्चों द्वारा वहन किया जाएगा और (2) भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 आरबीआई को ब्याज पर बाजार से ऋण लेने कीकानूनों का उल्लंघन कर विदेशियों के फायदे के लिए राष्ट्र का खजाना लूटा जाना और इस तरह देश को मंदी और गरीबी के कुंए में धकेल दिया जाना, यह देशद्रोह है।भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1964 बैच के आईएएस अधिकारी गवर्नर रेड्डी को गैरकानूनी आदेशों पर चलने या उन्हें जारी करने की बजाय यह अच्छी तरह मालूम होना चाहिए था।जैसा कि खुले पत्र के पहले भाग में विस्तार से चर्चा की गई थी। यह साजिश विदेशी संस्थागत निवेशकों, अमरीकी सरकार में बैठे समर्थकों और भारत सरकार में बैठे उनके पिट्ठुओं ने रची थी।अमरीकी सरकार ने अपने कुछ मंदी वाले रुझानों के बदले में भारतीय अर्थव्यवस्था के तेजी के रुझानों को हासिल करने के लिए एक रास्ता ढूंढ लिया। इस रास्ते को हासिल करने में आरबीआई ने मदद की। आरबीआई ने भारतीय बाजार के निवेश योग्य संसाधनों से 2.4 लाख करोड़ रुपए निकाल लिए और इस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था में कर्ज संक्रमण का संकट पैदा कर दिया। फिर निवेश के इस 2.4 लाख करोड़ रुपए को अमरीकी अर्थव्यवस्था में लगा दिया गया उकनी मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था के बावजूद वहां रोजगार में वृद्धि हुई। अमरीकी सरकार को भारत सरकार से हजारों करोड़ रुपए का भारी-भरकम अनुदान/सब्सिडी मिली। ऐसा कैसे और क्यों हुआ?वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था में, भारत उन मुट्ठीभर अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जो निवेश पर सकारात्मक मुनाफे की पेशकश करते हैं। नतीजा यह कि भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक निवेश के लिए बहुत उपयुक्त मानी जा रही है। इसके विपरीत, अमरीकी अर्थव्यवस्था भारी मंदी के दौर से गुजर रही है जो निवेश पर बहुत ही कम मुनाफे की पेशकश करती है या मुनाफे की पेशकश ही नहीं करती। इसलिए वहां वैश्विक निवेश नहीं हो रहा है।भारतीय रिजर्व बैंक ने जब निवेश योग्य फंड को भारत आने पर मोड़कर अमरीका में ट्रेजरी बांड में लगाया तो उसे क्षतिपूर्ति ब्याज या कम-से-कम उतनी रकम देने के लिए बाध्य होना पड़ा, जितनी कि वैश्विक निवेशकों को मुक्त भारतीय अर्थव्यवस्था में कमाने की उम्मीद थी। क्षतिपूर्ति वाले एमएसएस बांड पर प्रभावी लाभ 8.5 और 7.25 प्रतिशत के बीच था। ऊंची दर पर कर्ज लेने और निवेश पर फायदा न होने के इस अंतर की कीमत देश को चुकानी पड़ी। वैश्विक निवेश को एक विकासशील अर्थव्यवस्था से एक मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था की तरफ मोड़ दिया गया। हर गुजरते हुए दिन के साथ भारत सरकार पर ब्याज का बोझ बढ़ता जा रहा है, क्योंकि विदेशी संस्थागत निवेशक भारत सरकार में बैठे अपने पिट्ठुओं के कारण यहां आते जा रहे हैं। आज तक भारत सरकार अमरीकी ट्रेजरी को सब्सिडी के रूप में 25,000 करोड़ रुपए से अधिक की रकम दे चुकी है।हमारा बढ़ता हुआ बाजार हमारी अर्थव्यवस्था के विकास में अब कोई योगदान नहीं दे पा रहा है। इसके विपरीत, निवेश में ठोस वृद्धि और अर्थव्यवस्था में भारी उत्पादन के अभाव में बढ़ती भारतीय मांग के कारण अर्थव्यवस्था में ऋणग्रस्त और ऋण बकाए की नई समस्या पैदा हो रही है। यह अजीब बात है कि भारतीय बाजार में खपत बढ़ रही है और वृद्धिगत निवेश तथा उत्पादन में गिरावट आ रही है।यह सब ऐसे समय हुआ है जब प्रधानमंत्री एक समझबूझ वाले अर्थशास्त्री हैं और उन्हें इस तरह की वित्तीय कार्रवाइयों की अच्छी समझ है। ऐसे में प्रधानमंत्री और आरबीआई गवर्नर की प्रेरणाओं एवं नीयत पर सवाल उठाए बिना कोई नहीं रह सकता। देशवासी इस देशद्रोहपूर्ण साजिश की जिम्मेदारी तय करने के लिए अपनी सामथ्र्य अनुसार देश में उपलब्ध विभिन्न कानूनी प्रावधानों का इस्तेमाल करें। भारतीयों की विशाल संख्या के लिए इसका अर्थ यह है कि यदि मंदी की स्थिति पैदा होने दी गई तो आय और खपत में कटौती से जीना दूभर हो जाएगा।8

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