कड़े कानून से मिटेगा आतंक
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कड़े कानून से मिटेगा आतंक

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Feb 11, 2008, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Feb 2008 00:00:00

क्रिकेट के नियमों से हाकी नहीं खेलतेडा. हरबंश दीक्षितअध्यक्ष, विधि विभाग, के.जी.के. कालेज, मुरादाबादपूर्व मुख्य न्यायमूर्ति आर.सी.लाहोटी के लिए उनके कार्यकाल का अंतिम दिन उन भावनाओं को व्यक्त करने का था जिन्हें वे न्यायाधीश के रूप में व्यक्त नहीं कर सके थे। वे आतंकवाद के प्रति सरकारी रवैए से बहुत दुखी थे। न्यायमूर्ति लाहोटी जब 31 अक्तूबर, 2005 को सेवानिवृत्त हुए थे तो उसके कुछ दिनों पहले ही दिल्ली बम धमाकों से दहल चुकी थी जिसमें सैकड़ों निर्दोष नागरिकों की जानें गयी थीं। न्यायमूर्ति लाहोटी केवल उस खून-खराबे से ही दुखी नहीं थे। कानूनविद् और न्यायाधीश के रूप में उनका सुदीर्घ और गौरवपूर्ण अनुभव था। वे कानूनी ढांचे की कमजोरी की गंभीरता को समझते थे। उनकी पीड़ा की असली वजह यह थी कि इतना खूब-खराबा होने के बावजूद सरकार के पास आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए मजबूत कानूनी ढांचा नहीं है। 1 नवम्बर 2005 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने साक्षात्कार में उन्होंने अमरीका का उदाहरण देते हुए कहा था कि हमने इस बात पर गौर करने की जरूरत नहीं समझी कि आखिर ऐसा क्या है कि अमरीका में 11 सितम्बर की घटना के बाद कोई आतंकी वारदात नहीं हुई और हम अभी भी आतंकवाद के नित नए रूपों का शिकार होते जा रहे हैं। इसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि जहां अमरीका ने एकमात्र आतंकी घटना से सबक सीखा और वहां के शासकों ने दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कठोर कानून बनाया, जांच की वैज्ञानिक पद्धति पर जोर दिया और राष्ट्रीय एकजुटता का परिचय दिया वहीं हम इस मामले में फिसड्डी रहे, क्योंकि हमारे पास इसके लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है।हमारी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि हम जेट युग की तकनीक से लैस आतंकियों का मुकाबला बैलगाड़ी युग के कानूनी ढांचे से कर रहे हैं। हमारा मौजूदा कानून हर अभियुक्त को निर्दोष मानकर चलता है, वह इस सिद्धांत का अनुकरण करता है कि सौ दोषी व्यक्ति भले छूट जाएं किंतु एक बेगुनाह को सजा न मिले। वह पुलिस तंत्र पर अविश्वास करता है। उसमें अभियुक्त को दोषी साबित करने के लिए यह जरूरी है कि उसके ऊपर लगाए गए आरोप को संदेह से परे साबित किया जाए। मौजूदा कानून में अभियुक्त के लिए जमानत पर छूटकर गायब हो जाना या फिर से आतंकी गतिविधियों में शामिल हो जाना कठिन नहीं होगा। जांच में वैज्ञानिक तौर-तरीकों का अभाव इन कानूनों को और भी कमजोर कर देता है। परिणाम यह होता है कि अपराधी कानून की पकड़ से या तो दूर रहते हैं या उसके अनगिनत सुराखों के सहारे बच निकलते हैं।आतंकियों की मौजूदा पौध अपने ध्येय के प्रति पूरी तरह समर्पित है। उनके पास धन की प्रचुरता है। उनमें गजब की प्रतिबद्धता है। उनके पास पढ़े-लिखे कुशल युवक हैं जो सटीक योजना बनाने में माहिर हैं। वे आबादी के बीच छिपने तथा आम आदमी का समर्थन हासिल करने में सिद्धहस्त हैं। वे अपने को बचाने के लिए तथाकथित मानवाधिकार गुटों को स्थापित करने, उन्हें पोषित करने तथा उनकी सहायता लेने की कला के विशेषज्ञ हैं। घटनाओं को मजहबी, साम्प्रदायिक रंग देकर सरकार को रक्षात्मक मुद्रा में लाने की कला उन्होंने बखूबी सीख ली है। ऐसे हालात में पुराने कानूनी ढांचे के सहारे उन पर विजय नहीं पायी जा सकती।नए दौर के आतंकियों से निबटने के लिए नए दौर के कानूनी हथियारों की जरूरत है जिसमें यह व्यवस्था हो कि यदि आरोप साबित होने लायक प्रथम दृष्टया साक्ष्य हैं तो खुद को निर्दोष साबित करने का भार अभियुक्त पर होना चाहिए। जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के सामने किए गए इकबालिया बयान को सबूत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए और जमानत के नियम कठोर होने चाहिए। अमरीका और ब्रिटेन सहित उन सभी देशों ने आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए कठोर कानून बनाए हैं जो इस समस्या का सामना कर रहे हैं। अमरीका में तो इस समस्या से निबटने के लिए सात केन्द्रीय तथा कई प्रांतीय कानून हैं।सबसे पहले 1996 में यू.एस.एंटी टेररिज्म एंड इफेक्टिव डेथ पेनल्टी ऐक्ट” पारित किया गया जिसमें आतंकियों के लिए मृत्यु दंड सहित कठोर दंड देने का प्रावधान था। 11 सितम्बर की घटना के बाद अमरीका ने कानूनी ढांचे को पहले से भी अधिक कठोर बना दिया। 23 सितम्बर 2001 को राष्ट्रपति बुश ने “एक्जिक्यूटिव आर्डर 13324” पर दस्तखत किए जिसमें सरकार को उन व्यक्तियों तथा संगठनों की सम्पत्ति अभिग्रहित और जब्त करने का अधिकार मिल गया जो आतंकी गतिविधियों की मदद करते हों या उन्हें प्रायोजित करते हों। सन् 2001 में ही “यूनाइटिंग एंड स्ट्रेंथनिंग अमरीका बाई प्रोवाडिंग अप्रोप्रिएट टूल्स फार इंटरसेÏप्टग एंड आब्सट्रÏक्टग टेररिज्म एक्ट 2001” (यू.एस.ए.पेट्रिया एक्ट) पारित किया गया, जिसमें 2006 में संशोधन करके उसे और अधिक कठोर बना दिया गया। इसके एक साल बाद होमलैंड सिक्यूरिटी एक्ट 2002, तथा “सपोर्ट एंटी टेररिज्म बाई फास्टरिंग इफेक्टिव टेक्नॉलाजी एक्ट” (सेफ्टी एक्ट) 2002 उसके बाद सन् 2005 में “इल्लीगल” इमीग्रेशन कंट्रोल एक्ट 2005 पारित किया गया। सन् 2006 में मिलिट्री एक्ट बनाया गया जिसमें विदेशी आतंकी संगठनों की पड़ताल करके आतंकियों को दंडित करने का अधिकार सेना को दे दिया गया।ब्रिटेन जैसे देश में भी आतंकवाद से मुकाबला करते समय किसी तरह की कोई कोताही नहीं बरती जाती। वहां पर भी कानूनी ढांचे को इतना मजबूत बना दिया गया है कि आतंकवादी को उनकी उदारता का लाभ न मिल सके। आयरिश विद्रोह से निबटने के लिए बनाए गए पुराने कानूनों को यदि अलग रख दें तो ब्रिटेन में सन् 2002 में टेररिज्म एक्ट के माध्यम से आतंकियों पर नियंत्रण के लिए कठोर कानूनी उपबंधों का ढांचा तैयार किया गया। उसके एक साल बाद “एंटी टेररिज्म क्राइम एंड सिक्युरिटी एक्ट 2001” तथा सन् 2005 में प्रिवेंशन आफ टेररिज्म एक्ट 2005 पारित किया गया। साल भर बाद टेररिज्म एक्ट 2006 पारित हुआ जिसमें कई बातों के अलावा सरकारी एजेंसियों को अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने से पहले अभियुक्त को 28 दिन तक जेल में रखे जाने का अधिकार मिल गया है। इस समय “काउंटर टेररिज्म बिल 2008” पर चर्चा चल रही है जिसमें अन्य उपायों के अलावा यह प्रस्ताव है कि आतंकवादियों के खिलाफ अदालत में आरोप लगाए जाने से पहले 42 दिनों तक निरुद्ध किया जा सकता है। बेल्जियम में “एंटी टेररिज्म एक्ट 2003,” आस्ट्रेलिया में “एंटी टेररिज्म एक्ट 2005”, कनाडा में “एंटी टेररिज्म एक्ट 2001” तथा न्यूजीलैंड में “टेररिज्म सप्रैशन एक्ट 2002” लागू है।उपरोक्त सभी कानूनों की खासियत यह है कि इनमें आतंकियों के साथ शठे शाठ्यं समाचरेत् का दृष्टिकोण अपनाया गया है। उन्हें लोकतांत्रिक उदारता की छूट लेने से रोका गया है। सबूत इकट्ठा करने के मामले में सरकारी एजेंसियों को अधिक अधिकार दिए गए हैं। वे आतंकी संगठनों की बातचीत को रिकार्ड करके उसे अदालत में सबूत के तौर पर पेश कर सकते हैं। आतंकियों के खिलाफ गवाही देने वाले लोगों को सुरक्षा की व्यवस्था की गयी है। यदि किसी व्यक्ति पर आतंकी गतिविधि में शामिल होने का पुख्ता सबूत है तो अपने को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी उस अभियुक्त की होती है। हमारे देश में भी दो बार इस तरह के कानूनों के साथ प्रयोग किया जा चुका है। सबसे पहले टाडा बना जो सन् 1985 से 1995 तक लागू रहा तथा उसके बाद पोटा बना जो सन् 2001 में लागू हुआ तथा मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने के तुरन्त बाद वापस ले लिया। पोटा की विशेषता यह थी कि उसमें आतंकवाद की बहुत व्यापक परिभाषा दी गयी थी। आतंकी गतिविधियों या संगठनों में भाग लेने वाला, प्रश्रय देने वाला या सहायता देने वाला व्यक्ति आतंकी गतिविधियों का हिस्सेदार माना जा सकता था। इसके अलावा इसकी धारा 4 में कुछ खतरनाक किस्म के हथियारों को रखना दंडनीय था। धारा 6 में आतंक से हासिल की गयी सम्पत्ति को गैर कानूनी घोषित किया गया था और धारा 8 में उसे जब्त करने का अधिकार मिला हुआ था। इसके अलावा इसमें साक्ष्य देने वालों को सुरक्षा देने की तथा जिम्मेदार पुलिस अधिकारियों के सामने अपराध की स्वीकृति को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किए जाने की व्यवस्था थी। जमानत के मामले में धारा 49 में कहा गया था कि अभियुक्त को तब तक जमानत नहीं दी जाएगी जब तक कि अदालत को यह विश्वास न हो जाए कि अभियुक्त ने अपराध नहीं किया है। इस तरह के उपबंधों का लाभ यह होता है कि आतंकियों को उदार कानून का फायदा उठाने का मौका नहीं मिल पाता। मौजूदा समय में सत्तर फीसदी मुकदमों की सुनवाई के दौरान ही अदालत से जमानत पर छूट कर या तो वे पुन: आतंकी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं या गायब हो जाते हैं।पारंपरिक फौजदारी कानूनों से अलग हटकर पोटा की धारा 53 में यह व्यवस्था थी कि यदि यह साबित हो जाता है कि किसी व्यक्ति के पास से प्रतिबंधित हथियार या विस्फोटक सामग्री बरामद की गयी थी तो अदालत उसे तब तक दोषी मानेगी जब तक अभियुक्त अपने को निर्दोष साबित नहीं कर देता। इस तरह के उपबंधों की उपादेयता यह है कि साक्ष्य इकट्ठा करने वाली एजेंसी या अभियोजन पक्ष की कमी के कारण आतंकियों को कानून से बच निकलने का मौका नहीं मिल पाता। जैसा कि बनारस के संकट मोचन मंदिर में विस्फोट करने वाले वलीउल्लाह के साथ हुआ। देशद्रोह का आरोपी होने के बावजूद उसे केवल दस साल की सजा हो सकी क्योंकि अभियोजन तथा जांच की कमी के कारण उस पर देशद्रोह का आरोप साबित नहीं हो सका। बाद में जब मीडिया ने इस विषय को तूल दिया तो तीन राजपत्रित पुलिस अधिकारी और 9 अन्य पुलिसकर्मी इसमें ढील बरतने के दोषी पाए गए। यदि वलीउल्लाह पर पोटा जैसे कानून के अन्तर्गत मुकदमा चलता तो उसे अधिक कठोर दंड मिलता जो दूसरों के लिए एक उदाहरण के रूप में काम करता।हमारे देश में अमरीका और ब्रिटेन की तुलना में आतंकी घटनाएं कई गुना अधिक होती हैं जबकि उनसे लड़ने का हमारा कानूनी ढांचा उनकी तुलना में बहुत कमजोर है। हम आतंकियों के समर्थकों के प्रति इस कदर मुखापेक्षी होते जा रहे हैं कि जामिया मिलिया जैसे केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति को उनके पक्ष में तकरीर करनी पड़ती है, केन्द्रीय मंत्री को उसका समर्थन करना पड़ता है और इस होड़ में आगे बढ़ने की ललक में दूसरे राजनेता पुलिस बल के शहीदों की सत्यनिष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं। यह केवल हमारे देश में ही संभव है। अमरीका में एक के बाद एक कठोर कानून बनाए गए किंतु सम्प्रदायवाद के आधार पर किसी ने विरोध नहीं किया। ब्रिटेन में किसी भी राजनेता ने आतंकवाद से लड़ने के लिए बनाए गए किसी कानून का इस आधार पर विरोध नहीं किया कि उसके माध्यम से पंथ विशेष के लोगों का उत्पीड़न किया जाएगा। किंतु उनके ठीक विपरीत हमारे यहां वह सब कुछ हुआ जो आतंकियों के मनोबल को बढ़ाता हो तथा सुरक्षा एजेंसियों के मनोबल को गिराता हो। इतना ही नहीं, हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने उस मुहिम को अपना समर्थन दिया।पिछले आम चुनाव में कांग्रेस की अध्यक्ष ने पूरे देश भर में घूम-घूमकर यह कहा कि आतंकवाद निरोधी अधिनियम (पोटा) के माध्यम से अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न किया जा रहा है। अपनी बात को साबित करने के लिए कुछ वास्तविक तथा ढेर सारे काल्पनिक आंकड़े दिए गए। वायदा किया गया कि सत्ता में आते ही उसे निरस्त कर दिया जाएगा। वे सत्ता में आए और पोटा को निरस्त कर दिया गया। ऐसी कानून व्यवस्था में जहां सौ वास्तविक अपराधियों में, बमुश्किल 20 को सजा मिल पाती है, वहां आम नागरिकों को आतंकियों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया। आतंकियों तथा उनके समर्थकों के लिए इससे अच्छी स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती। दूसरे किसी भी कानून की तरह पोटा जैसे किसी भी कानून में कमियां हो सकती हैं किंतु उसे पूरी तरह निरस्त कर देने से समस्या का समाधान नहीं होता है। यदि वास्तव में ऐसा लगता है कि कानून के किसी उपबंध में कोई कमी है तो उसमें संशोधन करके उसको ठीक किया जा सकता है। पोटा के साथ ऐसा हुआ भी था। अनुभव के आधार पर जब यह पाया गया कि आतंकी गतिविधि की परिभाषा बहुत व्यापक है तथा उस कानून का वास्तव में दुरुपयोग हो सकता है तो पोटा में सन् 2003 में दो संशोधनों का प्रस्ताव किया गया था। आतंकी गतिविधि की परिभाषा में संशोधन करके उसे अधिक सटीक कर दिया गया था और उसके प्रभाव क्षेत्र को सीमित कर दिया गया था। उसमें दूसरा महत्वपूर्ण संशोधन यह था कि धारा 60 में गठित समीक्षा समितियों की संरचना और अधिकार क्षेत्र में संशोधन कर दिया गया। संशोधन के बाद समीक्षा समितियों को यह जांच करने का अधिकार मिल गया था कि पोटा के अन्तर्गत दर्ज किए गए मामले वास्तविक हैं या किसी को बेवजह प्रताड़ित करने के लिए हैं। कानून के दुरुपयोग की संभावना को समाप्त करने का इससे बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता था। किंतु नयी सरकार के लिए शायद निर्दोष लोगों की सुरक्षा तथा राष्ट्र की अखंडता बहुत मायने नहीं रखती थी। उन्होंने पोटा को निरस्त कर दिया। आज भी वे उस भस्मासुरी खोल से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।भारत में जारी आतंकवाद की एक खास बात और है कि ज्यों-ज्यों इसका चेहरा बेनकाब होता जा रहा है, उसका जिहादी स्वरूप साफ नजर आने लगा है। जिहादी को मासिक वेतन दिया जा रहा है। मौत होने पर विशेष पैकेज की व्यवस्था है। घर के लोगों को विशेष सुविधा का वायदा किया जाता है। नवयुवकों को काल्पनिक त्रासदी दिखायी जाती है। इतिहास को तोड़-मरोड़ कर स्वर्णिम अतीत और सुनहरे भविष्य का सपना दिखाया जाता है। इस मुहिम में काम आने पर जन्नत के दरवाजे खुलने की गारंटी दी जाती है। अशिक्षा और गरीबी इस आग में घी का काम करती हैं और ढुलमुल तथा पुरातन कानूनी ढांचा उन्हें अभयारण्य देता है। उन्हें कुछ भी करके बेदाग छूट जाने का भरोसा रहता है।आतंकवाद की सबसे शातिर चाल यह होती है कि वह काल्पनिक भय और लाभ से शुरुआती खुराक पाता है, अपने ताकतवर प्रतिद्वंदी की सदाशयता तथा न्यायप्रियता की दुहाई देकर अपना बचाव करता है और उससे संजीवनी पाकर उसे ही नष्ट करता है। लोकतंत्र की उदार परंपराओं का दुरुपयोग करके उसमें जगह बनाता है और फिर उसके ही ताने-बाने को नष्ट करने का षड्यंत्र करता है। अपने विरोधियों को सरेआम फांसी पर लटकाता है तथा दूसरों से मानवता के आधार पर क्षमादान चाहता है। मानवाधिकार जैसे उदात्त सिद्धांतों की आड़ लेता है। उसे रक्षाकवच ही नहीं बल्कि हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद ने हमारे दो प्रधानमंत्रियों की बलि ली है, कम से कम सत्तर हजार निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतारा है तथा अरबों की सम्पत्ति नष्ट की है। अब वह देश की एकता- अखंडता पर निगाह गड़ाए हुए है। हमें यह याद रखना चाहिए कि जब राष्ट्र पर संकट हो तो कोई सुरक्षित नहीं रहता और क्रिकेट के नियमों से हाकी खेलने वाले पराजित ही नहीं बल्कि नष्ट होने को भी अभिशप्त होते हैं।12

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