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संस्कार

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Dec 8, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Dec 2007 00:00:00

सत् साहित्य को अल्प मूल्य पर उपलब्ध कराने के लिए विख्यात है गोरखपुर की गीता प्रेस। गीता प्रेस की नियमित रूप से प्रकाशित होने वाली पत्रिका कल्याण में धर्म संबंधी साहित्य प्रचुर मात्रा में मिलता है। अपने प्रकाशन के 81वें वर्ष का प्रथम अंक “कल्याण” ने अवतारों को समर्पित किया गया है। कल्याण के इस “अवतार कथांक” में यद्यपि सतयुग, द्वापर एवं त्रेतायुग के अवतारों का भी जीवन चरित्र प्रस्तुत किया गया है, किन्तु यहां हम केवल आधुनिक युग के अवतारों के विवरण क्रमश: प्रस्तुत कर रहे हैं। -सं.डी. आंजनेयशंकरावतार भगवत्पाद आद्य शंकराचार्यपुस्तक का नाम : कल्याण-अवतार कथांकप्रकाशक : कल्याण कार्यालय, गीता प्रेस, गोरखपुर-273005 (उ.प्र.)पृष्ठ : 500, मूल्य : 150 रुपए (सजिल्द)ईसा पूर्व सातवीं शताब्दी में दक्षिण के केरल प्रान्त में पूर्णा नदी के तट पर कलादि (कालड़ी) नामक गांव में एक विद्वान एवं धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्री शिवगुरु एवं उनकी पतिव्रता पत्नी सुभद्रा देवी रहते थे। यह दम्पत्ति वृद्धावस्था के निकट आने के कारण चिन्तित रहता था क्योंकि यह नि:संतान था। ऐसे में श्री शिवगुरु ने पुत्र प्राप्ति हेतु बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से भगवान शंकर की आराधना प्रारम्भ की। उनकी श्रद्धापूर्ण आराधना से संतुष्ट होकर देवाधिदेव भगवान आशुतोष प्रकट हुए एवं अपने अंश से पुत्र प्राप्त होने का वर दिया, जिसकी आयु मात्र सोलह वर्ष की होनी थी। इस वर के परिणामस्वरूप माता सुभद्रा के गर्भ से वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन भगवान शंकर बाल रूप में प्रकट हुए। इनका नाम भी शंकर ही रखा गया। बालक शंकर के तीन वर्ष होने पर उनके पिता ने उनका चूडाकर्म-संस्कार किया, किन्तु तभी श्री शिवगुरु काल-कवलित हो गए। शंकर जब पांच वर्ष के हुए तब यज्ञोपवीत कराकर इन्हें विद्याध्ययन हेतु गुरु के घर भेजा गया। वहां दो वर्ष के अंदर ही ये षडंग सहित वेद का अध्ययन पूर्णकर वापस आ गए। इनकी अलौकिक प्रतिभा देखकर सभी अचम्भित रह गए।विद्याध्ययन के अनन्तर शंकर ने माता के समक्ष संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की, किन्तु माता ने आज्ञा नहीं दी। शंकर मातृभक्त थे, वे उनकी इच्छा के बिना संन्यास नहीं लेना चाहते थे। एक दिन शंकर माता के साथ नदी तट पर गए, वहां स्नान करते समय एक ग्राह ने उनका पैर पकड़ लिया। पुत्र के प्राण संकट में देखकर माता सहायता के लिए चिल्लाने लगीं। तभी शंकर ने माता से कहा-यदि आप संन्यास लेने की आज्ञा दें तो यह ग्राह मुझे छोड़ देगा। माता ने तुरंत “हां” कर दी। हां कहते ही ग्राह ने शंकर का पैर छोड़ दिया। इस प्रकार लगभग आठ वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग दिया। जाते समय माता ने उनसे यह वचन लिया कि उनके अन्तिम समय में वे अवश्य उपस्थित होंगे। ऐसा कहा जाता है कि ग्राह के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही आये थे।घर छोड़ने के बाद श्री शंकर नर्मदा तट पर स्थित स्वामी गोविन्द भगवत्पाद के आश्रम में आये एवं उनसे दीक्षा ग्रहण की। अल्पकाल में ही शंकर ने गुरु के निर्देशन में योग सिद्ध कर लिया। इनकी योग्यता से प्रसन्न होकर गुरु ने इन्हें काशी जाने एवं वेदान्त-सूत्र पर भाष्य लिखने की आज्ञा दी। काशी आने पर श्री शंकर की ख्याति सर्वत्र फैलने लगी। इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए, जो पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। काशी में श्री शंकर शिष्यों को पढ़ाने के साथ भाष्य भी लिख रहे थे। कहते हैं एक दिन भगवान विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में दर्शन देकर इन्हें ब्राह्मसूृत्र पर भाष्य लिखने एवं सनातन धर्म के प्रचार का आदेश दिया। एक दिन गंगा तट पर एक ब्राह्मण के साथ शंकर का वेदान्त-सूत्र पर शास्त्रार्थ हो गया, जो आठ दिन तक चला। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि ये ब्राह्मण स्वयं वेदव्यास हैं तो श्री शंकर ने उनसे क्षमा मांगी। श्री वेदव्यासजी ने प्रसन्न होकर इनकी आयु बत्तीस वर्ष की कर दी। इसके बाद उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की एवं वर्णाश्रम के विरोधी मतवादियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया तथा ब्राह्मसूत्र पर भाष्य एवं अन्य कई ग्रन्थों का लेखन किया। तदनन्तर उन्होंने प्रयाग आकर कुमारिलभट्ट से भेंट की तथा शास्त्रार्थ करने का प्रस्ताव रखा। उस समय कुमारिलभट्ट अपने बौद्ध गुरु से द्रोह करने के कारण आत्मदाह कर रहे थे। उन्होंने श्रीशंकर को महिष्मतीपुरी जाकर मण्डन मिश्र के साथ शास्त्रार्थ करने को कहा। मण्डन मिश्र एवं श्री शंकर के शास्त्रार्थ की मध्यस्थ मण्डन मिश्र की पत्नी भारती थीं। श्रीशंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में पराजित किया। अन्त में मण्डन मिश्र ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। उनका नाम सुरेश्वराचार्य रखा गया। श्रीशंकर ने कई मठों एवं मंदिरों की स्थापना की, जिनके माध्यम से उनके शिष्य औपनिषद-सिद्धान्त की शिक्षा देने लगे।भगवत्पाद आद्य शंकराचार्य जहां निर्गुण, निराकार ब्राह्म और ज्ञानस्वरूप के निरूपण में स्वयं अद्वितीय ज्ञान के रूप में प्रतिभासित होते दीखते हैं, वहीं सगुण-साकार देवतत्त्व की प्रतिष्ठा में उनकी भक्तिविषयक आस्था ही सर्वोपरि दीखती है। उनका सर्व वेदान्त सिद्धान्त संग्रह सभी ग्रंथों से बड़ा है। वह समस्त सूक्ष्म तत्त्वों के विवेचन सहित देवता, आत्मा और परमात्मा आदि के निरूपण में पर्यवसित है। इसी प्रकार विवेक चूडामणि, प्रमाण पञ्चक, शत श्लोकी, उपदेश साहस्री, आत्मबोध, तत्त्वबोध, ब्राह्मसूत्र भाष्य (शारीरकभाष्य), उपनिषदों के भाष्य आदि ग्रन्थ अद्वैत की प्रतिष्ठा के प्रमापक ग्रन्थ हैं।आचार्यचरण ब्राह्मसूत्र के देवताधिकरण में भगवान वेदव्यास के सूत्रों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति-स्मृति आदि शब्द प्रमाणों से सिद्ध होता है कि परब्राह्म की सगुण-साकार सत्ता भी है। देवावतारों में एक ही साथ अनेक रूप-प्रतिपत्ति की सामथ्र्य होती है-“विरोध: कर्मणीति चेन्नानेक प्रतिपत्तार्दर्शनात्” (ब्राह्मसूत्र, देवता सू. 27)। आचार्य बताते हैं कि देवताओं में एक ही समय में अनेक रूप धारण कर सर्वत्र व्याप्त रहने और प्रकट होकर भक्त का इष्ट साधन करने की सामथ्र्य रहती है। यह सिद्धि तो प्राय: योगियों में भी देखी जाती है फिर आजानज (जन्मजात) देवताओं की क्या बात है? “किमु वक्तव्यमाजानसिद्धानां देवानाम्।” देवताओं के अस्तित्व और अवतरणा सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए आचार्य श्रीमद्भगवद्गीता के “नाभावो विद्यते सत:” (2/16)। श्लोक के भाष्य से इस दृश्य संसार की अपेक्षा अदृष्ट परमात्म तत्त्व और देव तत्त्व को अधिक बलवान और नित्य सिद्ध किया है। आचार्यचरण का मानना है कि ऐसा कहना भी ठीक नहीं कि आज के हम लोगों को भगवद् दर्शन नहीं होते तो प्राचीन काल में भी लोगों को दर्शन नहीं होता होगा। आचार्य बताते हैं कि व्यास, बाल्मीकि, वसिष्ठ आदि महर्षियों की प्रतिभा और तप: शक्ति तथा मान्धाता, नल, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि नृप श्रेष्ठों की शक्तियों से आज के अल्पायु-अल्पशक्तिमान व्यक्तियों के सामथ्र्य की तुलना कथमपि नहीं की जा सकती। अत: जो हम लोगों के सामने देवता, गन्धर्व आदि प्रत्यक्ष नहीं हैं, चिरन्तनों की सामथ्र्य की अधिकता के कारण निश्चय ही उनके सामने वे सभी वस्तुएं प्रत्यक्ष हो सकती थीं- “भवति ह्रस्माकमप्रयक्षमपि चिरन्तनानां प्रत्यक्षम्। तथा च व्यासादयो देवादिभि: प्रत्यक्षं व्यवहरन्तीति स्मर्यते।” (ब्राह्मसूत्र, देवता सू. 33 का शंकर भाष्य)आचार्य का कहना है कि अन्त:करण शुद्ध होने पर ही वास्तविकता का बोध हो सकता है। अशुद्ध बुद्धि और मन के निश्चय एवं संकल्प भ्रमात्मक ही होते हैं। अत: सच्चा ज्ञान प्राप्त करना ही परम कल्याण है और उसके लिए अपने धर्मानुसार कर्म, योग, भक्ति अथवा और भी किसी मांग से अन्त:करण को शुद्ध बनाते हुए वहां तक पहुंचना चाहिए।आचार्यचरण ने भगवान् श्रीराम, देवी दुर्गा, सूर्य, गणेश, गंगा आदि सभी विग्रहों की सुन्दर ललित स्तुतियां हमें दी हैं, जिनके श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पाठ से चित्त में अत्यन्त प्रसन्नता होती है और भगवान का साक्षात विग्रह नेत्रों के समक्ष उपस्थित हो जाता है। उन्होंने शक्ति की उपासना पर सौन्दर्य लहरी, ललिता पञ्चक, देव्यपराध क्षमापनस्तोत्र, लक्ष्मीनृसिंह स्तोत्र की रचना की। शिव की आराधना-सम्बंधी उनके स्तोत्र शिवापराध क्षमापनस्तोत्र, वेदसारशिवस्तव, शिवाष्टक, शिवपञ्चाक्षरस्तोत्र आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। भगवान श्रीराम की स्तुतियों में “श्रीरामभुजंगप्रयात” बड़ा ही प्रसिद्ध है। इसके 29 श्लोकों में ही उन्होंने भगवान् श्रीराम के प्रति जो भक्ति दिखाई है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।सनातन धर्म की प्रतिष्ठा और रक्षा हो सके-इसी आशय से आचार्य चरण ने भारत वर्ष के चारों कोनों में चार मठ स्थापित किए और जगह-जगह देवमंदिरों तथा अर्चा-विग्रहों की इसीलिए प्रतिष्ठा कराई कि लोग भक्त बनें, भगवान के सगुण-साकार रूप की आराधना करें और उनके मतानुसार- “भक्ति के बिना भगवद् साक्षात्कार असम्भव है। श्रीशंकरचार्य की दृष्टि में विश्व में केवल एक ही सत्य वस्तु है, और वह है ब्राह्म। समस्त अवतार उन्हीं की अभिव्यक्तियां हैं।20

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