|
रामसेतु पर राजनीति की रावण छायादेवेन्द्र स्वरूप25 -26 जुलाई को दिल्ली के रामलीला मैदान में पूरे भारत से एकत्र संत शक्ति को रामेश्वरम् से श्रीलंका को जोड़ने वाले प्राचीन रामसेतु के विध्वंस को रोकने के लिए 27 सितम्बर से देशव्यापी जनान्दोलन छेड़ने का संकल्प घोषित करना पड़ा है। यह इस बात का प्रमाण है कि भारत व्यक्ति केन्द्रित वंशवादी राजनीति के मकड़ जाल में इतनी बुरी तरह फंस गया है कि उसे हजारों वर्षों से सर्वमान्य सांस्कृतिक प्रतीकों की रक्षा के लिए भी संघर्ष का रास्ता अपनाना पड़ रहा है। तमिलनाडु की द्रमुक पार्टी में जहां एक ओर 84 वर्षीय करुणानिधि के उत्तराधिकार के लिए घमासान मचा हुआ है, सड़कों पर हिंसक रूप धारण कर रहा है, वहीं ब्रिटिश शासकों द्वारा तमिल भाषियों के मन में भरे गये आर्य-द्रविड़, संस्कृत-तमिल और उत्तर-दक्षिण वैमनस्य के विष का चुनाव-राजनीति के लिए दुरुपयोग का षडंत्र रचा जा रहा है। अन्यथा, कम से कम 2000 वर्ष से लोकमानस में रामसेतु के नाम से स्थापित भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाले प्राचीन समुद्रगर्भीय पुल के बारे में यह विवाद खड़ा करने का क्या अर्थ है कि यह पुल मानव निर्मित नहीं, प्रकृति निर्मित बालू और पत्थर की दीवार मात्र है। 2000 वर्ष पूर्व महर्षि वाल्मीकि ने आदि काव्य रामायण के युद्ध कांड में इस पुल के निर्माण का सविस्तार वर्णन किया। समूचा संस्कृत वाङ्मय-चाहे वह अध्यात्म रामायण हो या उठारह पुराण सब इस इतिहास को दोहराते हैं। स्वयं तमिल भाषा की कम्बर रामायण से लेकर मलयालम, तेलुगू, कन्नड़, असमिया, बंगला, अवधी आदि समूचा भारतीय वाङ्मय इस कथा को समेटे है। लोकमानस में “सेतुबंध रामेश्वर” का नाम बसा हुआ है। रामनद के राजा को अभी तक सेतुपति कहा जाता रहा है। भारत भूमि की व्याख्या “आसेतु हिमाचल” की जाती है। रामेश्वरम् के बिना किसी भी हिन्दू की चारों धाम की यात्रा पूरी नहीं हो सकती। वहां शिव की प्रतिमा को राम द्वारा स्थापित एवं अर्चित माना जाता है। यदि एक क्षण के लिए मान भी लें कि वह सेतु मानव नहीं, प्रकृति निर्मित है तो क्या इतने मात्र से ही हजारों साल से पीढ़ी दर पीढ़ी अखण्ड चली आ रही लोक आस्था का कोई मूल्य नहीं रह जाता? राष्ट्रीय अस्मिता के प्रतीकों का ध्वंस करने का अधिकार राजनीतिज्ञों को प्राप्त हो जाता है? क्या अस्मिता का मूल्यांकन रुपए आने पैसों में हो सकता है?संसार में कितने राष्ट्र हैं जिनका अस्मिता का इतिहास 2000 वर्ष पीछे जाता है? जिनके पास इतनी पुरानी स्मृतियां शेष हैं? जिन दो-चार देशों के पास इतनी पुरानी स्मृतियां शेष हैं, जैसे- चीन, मिस्र और यूनान आदि, वे अपने इतिहास के अवशेषों को, दीवार को, पिरामिडों को, क्रीड़ागारों को कितने जतन से, कितने गर्व से बचाने की कोशिश में लगे हैं। किन्तु भारत अकेला अभागा देश है, जहां राष्ट्रीय प्रतीकों और लोक आस्था पर प्रहार करने वाले अपने को बड़ा समझते हैं और उनके रक्षकों को संकीर्ण व सांप्रदायिक घोषित कर देते हैं। कोयम्बतूर में लालकृष्ण आडवाणी जैसे राष्ट्रीय नेता की हत्या के षडंत्र में लिप्त अब्दुल नजीर मदनी की रिहाई पर खुशियां मनाते हैं, अपनी पीठ ठोंकते हैं।राजनीतिक षड्यंत्रवस्तुत:, रामसेतु को नष्ट करने के लिए गढ़ी गई सेतुसमुद्रम नहर परियोजना एक राजनीतिक षडंत्र से अधिक कुछ नहीं है। इस परियोजना के समर्थन में जितने भी तर्क अब तक गढ़े गए हैं वे सब तथ्यों की कसौटी पर धराशायी हो चुके हैं। इन सब तथ्यों की तमिलनाडु की द्रमुक और केन्द्र की संप्रग सरकार को पूरी तरह जानकारी है। राष्ट्रपति के पास 35 लाख हस्ताक्षरों का प्रतिवेदन दिया जा चुका है। वैज्ञानिक सांसद डा. मुरली मनोहर जोशी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक लम्बे पत्र द्वारा सभी तथ्यों से अवगत करा दिया है। बजट सत्र के अंतिम दिन संसद में इन तथ्यों को लेकर बहस हो चुकी है। मद्रास उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया गया है। मद्रास उच्च न्यायालय का अन्तरिम निर्देश दोनों सरकारों को तथ्यों के कठघरे में खड़ा कर देता है। पर्यावरण विशेषज्ञ इस परियोजना को पर्यावरण के लिए खतरा बता चुके हैं। उनका कहना है कि इसके कारण 3600 समुद्री प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। ओस्सी फर्नांडीस ने, जो कोस्टल एक्शन नेटवर्क के संयोजक हैं, बताया कि इस परियोजना के पर्यावरण पर घातक परिणाम का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इस समुद्री क्षेत्र में 1841 से 1945 तक 104 वर्षों में केवल 45 व्हेल मछलियों की मृत्यु हुई, जबकि इस परियोजना के कारण जुलाई 2006 से अब तक एक वर्ष से कम समय में 10 व्हेल मछलियां मर चुकी हैं। सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति का कहना है कि दिसम्बर 2004 के सुनामी प्रकोप से तमिलनाडु और केरल के अधिकांश तटीय प्रदेश की रक्षा में इस सेतु के अस्तित्व का मुख्य योगदान था। यदि यह सेतु खण्डित हो गया तो भावी सुनामी प्रकोप से केरल भी बर्बाद होगा। प्रो. मूर्ति ने 21 फरवरी 2007 को ई-मेल द्वारा इस परियोजना के दुष्परिणामों की जानकारी प्रसारित की थी। पर उनकी चेतावनियों को अनसुना किया जा रहा है। श्रीलंका के सेंटर फार एनवायरनमेंटल जस्टिस के पूर्व निदेशक हेमन्थ विथआगे ने चेतावनी दी कि यह परियोजना इस क्षेत्र की जैविक विविधता के विनाश का कारण बनेगी।राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी इस परियोजना को घातक बताया जा रहा है। भारत-श्रीलंका के बीच 1970 संधि के अनुसार दोनों के मध्य का समुद्री क्षेत्र उनका घरेलू क्षेत्र है, उसमें किसी प्रकार का अन्तरराष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं हो सकता। जबकि अमरीका इस समुद्री क्षेत्र को भी अन्तरराष्ट्रीय परिधि में लाना चाहता है। इस परियोजना के फलस्वरूप 1970 की संधि निरर्थक बन जाती है और यह समुद्री क्षेत्र सभी देशों के जहाजों के लिए खुल जायेगा। जिससे अमरीका को घुसपैठ का अवसर मिल जाएगा। साउथ एशिया एनालिसिस ग्रुप से सम्बद्ध व पूर्व नौसेना अधिकारी कर्नल आर. हरिहरन ने चेतावनी दी है कि इस नहर के निर्माण से भारत की तटीय सुरक्षा एवं नौसैनिक पहरेदारी का खर्चा तो बहुत बढ़ जाएगा। किन्तु इस क्षेत्र पर उसका वर्तमान दबदबा समाप्त हो जाएगा, क्योंकि उसका अन्तरराष्ट्रीयकरण हो जाएगा। यह भी बताया गया है कि इस क्षेत्र में थोरियम जैसी मूल्यवान खनिज का भंडार है जिसका भारत के आण्विक कार्यक्रम में भारी योगदान हो सकता है। नहर बन जाने पर जहाजों के आने-जाने से वह भंडार नष्ट हो जाएगा।2400 करोड़ रुपए की इस भारी भरकम परियोजना को पूर्ण करने की अन्तिम तिथि नवम्बर 2008 निर्धारित की गई है, जिसमें 1456.40 करोड़ रुपए ब्याज पर ऋण लिया गया है। इस ऋण के ब्याज के रूप में प्रतिवर्ष 204 करोड़ रुपए चुकाना होगा। सरकार के अनुसार 18 मार्च तक पाल्क खाड़ी के प्रथम खंड में 81.84 प्रतिशत खनन हो चुका है जबकि रामसेतु पर केवल 1.42 प्रतिशत हुआ है। अभी तक के अनुभव से नहीं लगता कि नवम्बर 2008 तक यह पूरा हो पायेगा। नीचे चट्टानों को काटना इतना आसान नहीं है। क्योंकि इन चट्टानों से टकरा कर कई खराद यंत्र अब तक टूट चुके हैं। नहर पूरी बन जाने के बाद भी वहां रेतीली गाद हमेशा इकट्ठी होती रहेगी, क्योंकि इस खाड़ी में दक्षिण भारत की कई नदियां मिट्टी बहाकर लाती हैं। दूसरे तेज हवाओं के कारण भी वहां गाद इकट्ठी होती रहेगी। इस गाद को हटाने की सतत् प्रक्रिया की व्यवस्था करना होगी जो काफी व्यय और श्रम साध्य होगी। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का यह दंड तो भुगतना ही होगा। जहाजरानी मंत्री टी.आर. बालू का यह तर्क बिल्कुल निराधार है कि यदि स्वेज और पनामा नहरें बन सकती हैं, सौ से अधिक वर्षों से ठीक से काम कर रही हैं तो सेतु समुद्रम नहर क्यों नहीं कर सकती। क्या सचमुच उन्हें पता नहीं कि उन दोनों नहरों का निर्माण पक्के भूखण्ड को काट कर हुआ था। उनके दोनों ओर के किनारे पक्के बनाये गये हैं जबकि सेतुसमुद्रम नहर का निर्माण समुद्रजल के भीतर हो रहा है, वहां पक्के तटों का निर्माण सम्भव नहीं है।परियोजना के भ्रामक प्रचारइस महंगी, सुरक्षा और पर्यावरण के लिए घातक नहर के निर्माण के पक्ष में एकमात्र तर्क यह है कि इससे जहाजों को श्रीलंका का पूरा चक्कर लगाकर पूर्व से पश्चिम और पश्चिम से पूर्व को नहीं जाना पड़ेगा। इससे उनके लगभग 36 घंटे का समय और 400 से अधिक किलोमीटर दूरी बचेगी। जिससे ईंधन की भी बचत होगी। किन्तु 15 से 30 फुट गहरी 260 किलोमीटर लम्बी नहर में केवल 30-40 हजार टन वाले छोटे और मझोले जहाज ही जा सकेंगे। एक लाख या उससे अधिक भार वाले जहाजों को श्रीलंका का चक्कर लगाना ही होगा।प्रतिष्ठित शोध साप्ताहिक इकानामिक एण्ड पालिटिकल वीकली के ताजे अंक (21 जुलाई) में एक नई रपट के कुछ अंश छपे हैं। सेतुसमुद्रम नहर परियोजना के पर्यावरणीय और आर्थिक परिणामों की समीक्षा की इस रपट को सुदर्शन रोड्रिगेज, जेकब जोन, रोहन आर्थर, कार्तिक शंकर और आरती श्रीधर ने मिलकर तैयार किया है। “वीकली” में जेकब जोन के नाम से प्रकाशित अंश में कहा गया है कि समय और दूरी की बचत के आंकड़े पूरी तरह गलत हैं। 36 घंटे के समय की बचत केवल पूर्वी तट के तूतीकोरन बन्दरगाह से चेन्नै तक जाने वाले जहाजों को होगी। जबकि पश्चिमी तट से पूर्वी तट के लिए आने वाले जहाजों के समय की बचत बहुत कम होगी। नहर में गुजरने का किराया देने पर यह यात्रा सस्ती नहीं महंगी पड़ी है। जेकब ने बालू की प्रचार शैली पर कटाक्ष करते हुए लिखा कि किसी जूते विक्रेता के उस विज्ञापन की तरह है जिसमें किसी एक ब्रांड पर 50 प्रतिशत डिस्काउंट को पूरे माल पर डिस्काउंट की तरह प्रचारित किया जाता है। इस रपट में सब प्रकार के आंकड़े, चार्ट और ग्राफ देकर इस परियोजना के भ्रामक प्रचार को नंगा किया गया है।इसके पूर्व बिजनेस लाईन (22 अक्तूबर, 2005), हिन्दुस्तान टाइम्स (13 जून, 2007) , इंडियन एक्सप्रेस (19 जून, 2007) में ऐसी ही तथ्यपूर्ण आलोचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। यहां तक कि 12 जून, 2007 के पायनियर में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के जमाल अंसारी ने भी तथ्यात्मक ढंग से इस परियोजना की निरर्थकता और अनौचित्य को रेखांकित किया है। आज (2 अगस्त) के इकानामिक टाइम्स में भी जेकब जोन ने इस परियोजना के सार्वजनिक हितकारी होने पर प्रश्न उठाया है। स्पष्ट ही परियोजना का विरोध हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई प्रबुद्धों द्वारा हो रहा है।रघुपति की नकारात्मक भूमिकाउपरोक्त तथ्यों के आलोक में इस रहस्य को समझना आवश्यक हो जाता है कि द्रमुक पार्टी एवं उसके प्रतिनिधि टी.आर. बालू का इस परियोजना को लागू करने पर इतना आग्रह क्यों है। यह बालू राजग के मंत्रिमंडल में भी जहाजरानी मंत्री थे। तब से ही वे इस परियोजना को केन्द्र सरकार और राष्ट्र के गले उतारने में लगे हुए हैं। उन्होंने राजग मंत्रिमंडल के सामने भी इस परियोजना का एक बड़ा मोहक चित्र प्रस्तुत करके उसे गुमराह करने की कोशिश की। उनके आग्रह पर राजग सरकार ने इस परियोजना का सर्वांग अध्ययन करने के लिए एक समिति का गठन कर दिया और उसके लिए 2000-2001 के बजट में कुछ धनराशि भी आवंटित कर दी। उस समिति की रपट आने पर ही परियोजना को स्वीकार करने का प्रश्न उठा, किन्तु इस समय प्रचार किया जा रहा है कि इस परियोजना को राजग सरकार ने स्वीकार कर लिया था। संप्रग सरकार उसे केवल लागू कर रही है।वास्तविकता यह है कि द्रमुक नेतृत्व राजग और संप्रग दोनों गठबंधन सरकारों पर दबाव डालकर उन्हें बेवकूफ बना रहा है। कहा जा रहा है कि बालू का इसमें कोई अपना निहित स्वार्थ भी है। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि उनकी अपनी कोई जहाजरानी कम्पनी है जिसके लाभ के लिए यह सब किया जा रहा है। इस परियोजना का क्रियान्वयन जिन कम्पनी समूहों के पास है उनसे भी बालू और द्रमुक पार्टी के रिश्ते बताये जा रहे हैं। इसमें उनका मुख्य हस्तक तूतीकोरन पत्तन न्यास के अध्यक्ष एन.के. रघुपति हैं। तूतीकोरन पत्तन न्यास को ही इस परियोजना के क्रियान्वयन में सम्मिलित कम्पनियों का सूत्रधार बनाया गया है। एन.के. रघुपति की भूमिका प्रारंभ से रहस्यमय और संदिग्ध दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने 8 मार्च, 2005 को इस रघुपति के पास कुछ प्रश्न स्पटीकरण के लिए भेजे। किन्तु उसके पूर्व ही उन्होंने 2 जुलाई, 2005 को परियोजना के उद्घाटन कार्यक्रम की तिथि तय करके उसकी सार्वजनिक घोषणा कर दी। केवल खानापूरी के लिए 30 जून, 2005 को कुछ उत्तर प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे। उनका अध्ययन करने के पूर्व ही द्रमुक का सहयोग बनाये रखने के लिए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी परियोजना का उद्घाटन करने दौड़े चले आये। इसी सप्ताह एन.के. रघुपति को लम्बी छुट्टी पर भेजे जाने के निर्णय का क्या निहितार्थ हो सकता है? क्या यह माना जाए कि केन्द्र सरकार रघुपति की नकारात्मक भूमिका के प्रति सतर्क हो गई है और वह इस संवेदनशील विषय पर जन आन्दोलन का सामना नहीं करना चाहती?यह भी सर्वविदित है वर्षों पहले भारत सरकार को नहर-मार्ग के ऐसे तीन-चार विकल्प प्राप्त हो चुके हैं, जिनमें रामसेतु को छेड़े बिना भी नहर बन सकती है और यह मार्ग पूरी तरह भारत के नियंत्रण में होगा। किन्तु द्रमुक का आग्रह रामसेतु को ध्वंस करने पर ही क्यों है? क्या इसके पीछे आर्थिक के साथ-साथ राजनीतिक लाभ भी छिपा है? क्या रामसेतु पर प्रहार करके द्रमुक पार्टी भारत की धार्मिक चेतना और सन्त शक्ति को जानबूझ कर उत्तेजित करना चाहती है ताकि वे लोक आस्था के केन्द्र रामसेतु की रक्षा के लिए दौड़ पड़ें और द्रमुक उनकी इस छटपटाहट को तमिलनाडु पर उत्तर भारत के आक्रमण के रूप में प्रचारित करके, जो आर्य-द्रविड़, ब्राह्मण-संस्कृत के प्रति तमिल मन में भरी गई कटुता इन वर्षों में शान्त और शिथिल पड़ चुकी है, उसे पुन: उभाड़ कर राजनीतिक गोटियां सेकीं जा सके। यह सत्य है कि द्रविड़वाद अब नस्ली आधार को खोकर स्वयं जातियों के आधार पर विभाजित हो चुका है। पी.एम.के., एम.डी.एम.के., आदि पार्टियां जाति आधारित हैं। द्रमुक पुन: नस्लवाद और उत्तर-दक्षिण वैमनस्य को जिन्दा करना चाहती है। शायद इसी राजनीतिक हानि-लाभ के गणित को सामने रखकर अन्नाद्रमुक की नेता जयललिता खुलकर सामने नहीं आ रही हैं। लोकविश्वास और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए व्यग्र सन्त शक्ति को सत्ता-राजनीति की इन कुटिल चालों को निरस्त करने के उपायों का भी विचार करना होगा। (2 अगस्त, 2007)36
टिप्पणियाँ