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अशोक सिंहलअन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषद्”योगक्षेमं वहाम्यहम्”11 फरवरी, 2007 से अद्र्धकुम्भ प्रयागराज में प्रारम्भ होने वाले तृतीय विश्व हिन्दू सम्मेलन में पूज्य श्रीगुरुजी महानगर के 350 एकड़ परिसर में लगे 14,000 तम्बू भीषण वर्षा से जब पूरी तरह गिर गये और वहां प्रतिनिधियों का रहना संभव ही नहीं रहा, तो वे शिविर स्थान छोड़ने को बाध्य हो गये। इस संकट की घड़ी में सम्पूर्ण भारत के हर प्रान्त और प्रखण्डों से आये 2 लाख से ऊ‚पर की संख्या में प्रतिनिधि निराश्रित होकर अचानक पूरी तरह बिखर गये और समूह के समूह गंगा के तट से प्रयाग नगर की ओर चल पड़े। मुझे लगा मध्य काल में इस्लाम के जिहादी आतंक से मर्माहत हिन्दू, जिसे इस्लाम कबूलने के लिए बाध्य किया जा रहा था, जब दण्डित किया जाने लगा और वह किसी भी दशा में धर्म छोड़ने को तैयार नहीं था और उसे सारी सम्पत्ति से विहीन कर अस्पृश्य होकर भटकने को बाध्य कर दिया गया था, पूर्णत: निराश्रित हो गया था, मानो वही दृश्य तृतीय विश्व हिन्दू सम्मेलन में उपस्थित हो गया। 800 वर्ष के इस्लाम और 200 वर्ष के फिरंगी के संकट से जब आहत समाज बिखर गया था, तब जैसे भगवान ने ही रक्षा की थी, वैसे ही भगवान पुन: प्रयाग में रक्षा के लिए आ गये। व्यवस्था व्यक्तियों के हाथ से निकल कर भगवान के हाथ में जा चुकी थी। व्यवस्था करने वालों की अन्तर्वेदना देखने लायक थी। इस समय मुझे 1990 की एक घटना का स्मरण हो आया।दक्षिण एवं पश्चिम भारत से आने वाले कारसेवकों की बड़ी संख्या में टोली सतना पहुंची और वहां से चित्रकूट होकर अयोध्या जा रही थी। कार्यकर्ता व्यवस्था बनाये हुए थे। रात्रि 10 बजे तक की व्यवस्था वे स्वयं कार्य बांटकर कर रहे थे। कोई भी भूखा नहीं रहा। किन्तु जब यह संख्या सतना में 60 हजार हो गई, तब मानव व्यवस्था भगवान ने अपने हाथ में ले ली और फिर कहां-कौन भोजन बना रहा है, कौन वितरण कर रहा है, कौन खर्चा उठा रहा है, कुछ पता नहीं। यह सब ईश्वरीय व्यवस्था से होने लगा तो कोई भी भूखा नहीं रहा। यह थी भगवत् व्यवस्था। यही व्यवस्था सतना ही नहीं, चित्रकूट में भी देखने को मिली और कारसेवक चित्रकूट से जब प्रयाग आ गये तो वही व्यवस्था भगवान ने प्रयागवासियों से कराई। कोई भी भूखा नहीं रहा।यही अनुभव पुन: 11 फरवरी, 2007 को हम लोगों को तृतीय विश्व हिन्दू सम्मेलन, प्रयाग में हुआ। मानो दो लाख प्रतिनिधियों की व्यवस्था भगवान ने ही स्वयं सम्हाली। कहां-किसने पनाह दी? किसने भोजन? यह सब परमेश्वर की व्यवस्था से हो रहा था। स्कूल, कालेज, धर्मशालायें तथा निजी स्थान, स्वत:स्फूर्त से सभी संबंधित प्रयागवासियों ने बिना किसी संगठन विशेष के निर्देश, स्वयं यह दायित्व उठा लिया। दिनांक 11 फरवरी की रात्रि को हिन्दू प्रतिनिधियों का उत्साह देखने लायक था। कहीं कोई शिकायत नहीं। भगवान ही जब कार्य सम्हाल लें तो शिकायत का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। प्रतिनिधि जहां रुके थे वहां देर रात्रि तक कीर्तन-भजन में मस्त थे। 12 फरवरी की प्रात: उठकर वे स्व-प्रेरणा से त्रिवेणी स्नान के लिए चल दिये। भगवान की शरण में आया बीमार नहीं हो सकता था। बिना गरम कपड़े के, वर्षा की ठण्डी हवा किसी को भी अस्वस्थ करने में असमर्थ रही।”धर्मो रक्षति रक्षित:”। धर्म की महाशक्ति अवतरित होकर अपना स्वरूप प्रकट करने को बाध्य हो गई। इसी शक्ति ने हजार वर्ष के संकट से हमें बचाकर रखा है और यही शक्ति 11 फरवरी को कार्य करते हुए एक अदम्य विश्वास दिला रही थी कि भारत पर आसन्न संकट को “मैं (शक्ति) ही दूर करती रही हूं।” और इसी धर्मशक्ति से वर्तमान संकट को दूर कर हम पुन: हिन्दू राष्ट्र की प्रतिष्ठा करेंगे। अगले दिन (12 फरवरी को) सभी का पुन: एकजुट होना और अपने निर्धारित स्थान पर कार्यक्रम का अत्यन्त सफल होना, यही तो प्रमाणित कर रहा था।अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 9 श्लोक 22(अशोक जी की दैनंदिनी से)दिनांक : 22 फरवरी, 200712
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