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मंथन

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Nov 3, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 03 Nov 2007 00:00:00

वंश बड़ा या देश?देवेन्द्र स्वरूपक्याआपको पता है कि सोनिया गांधी आजकल कहां हैं? क्यों चुप हैं? 25 फरवरी को हरियाणा सरकार की लम्बी जी-तोड़ कोशिशों से आयोजित एक रैली में गदा घुमाते उनका रंगीन चित्र देखा था, उसके बाद से उनके चित्र न अखबारों में देखने को मिले न टेलीविजन परदे पर। इस बीच इतनी बड़ी-बड़ी घटनायें घटी हैं, जिनका उनसे सीधा सम्बंध है। पर वे इन घटनाओं पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहीं, उन्होंने पक्का मौन साध लिया है। 24 फरवरी के सभी अखबारों और टेलीविजन चैनलों पर समाचार आया कि उनका पारिवारिक इतालवी मित्र ओताविओ क्वात्रोकी दक्षिण अमरीका के अर्जेंटीना देश के एक हवाई अड्डे पर इन्टरपोल के वारंट के आधार पर गिरफ्तार कर लिया गया। 27 फरवरी को पंजाब और उत्तराखण्ड के चुनाव परिणाम घोषित हुए और ये दोनों राज्य कांग्रेस के हाथ से निकल गए। भले ही मणिपुर में कांग्रेस सत्ता में टिकी रह गई। पर इन चुनाव परिणामों पर भी सोनिया की कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। वे अपनी पार्टी की अध्यक्षा हैं, वे लोकसभा की सदस्य हैं, वे सरकार का सूत्र संचालन करती हैं, उन्हें “सुपर प्रधानमंत्री” माना जाता है।उनकी पार्टी के पास उनके अलावा दूसरा चुनाव प्रचारक नहीं दिखाई देता। मनमोहन सिंह को भेजा जाता है पर पार्टी नेता के नाते नहीं, प्रधानमंत्री के नाते। उनकी कोई पब्लिक अपील नहीं है यह सब जानते हैं। यदि पंजाब में भी उनकी सिख पहचान काम नहीं आई तो और कहीं क्या आती। इसलिए पार्टी की चुनावी जीत का सेहरा सोनिया गांधी के माथे बंधता है तो पराजय का दंश भी उन्हें ही झेलना चाहिए। वैसे महाराष्ट्र और आन्ध्र के स्थानीय निकाय चुनावों से ही यह संकेत मिलना शुरू हो गया था कि अपनी वंशवादी मानसिकता के कारण उनकी पार्टी के लोग भले ही उन्हें “हाई कमान” या “पवित्र गाय” की तरह पूजते हों, केवल उनके और राहुल के नाम की माला जपते हों, किन्तु प्रायोजित भारी प्रचार के बावजूद भारतीय जनता पर से उनकी गोरी चमड़ी का जादू अब उतर रहा दीखता है।पार्टी के ढोलचीकिन्तु सवाल यह है जीत के मौके पर जब उनके घर के सामने नगाड़े बजते हैं, लड्डू बटते हैं, जीत का पूरा श्रेय उनको दिया जाता है, तो पराजय के क्षणों में वे अपने अनुयायियों के आंसू क्यों नहीं पोंछती? जनता से अपना चेहरा क्यों छिपा लेती हैं?ऐसे अवसरों पर उनकी चुप्पी संयोग नहीं, सोची-समझी रणनीति का हिस्सा होती है। यदि न होती तो 24 फरवरी को क्वात्रोकी की गिरफ्तारी का रहस्य 17 दिन छिपाने की कोशिश के बाद भी फूट ही चुका था, छिपाने की इस कोशिश के पीछे सोनिया का हाथ होने की चर्चा शुरू हो ही चुकी थी तब भी 25 फरवरी की सिरसा रैली में उन्होंने उसका कोई जिक्र नहीं किया, उल्टे अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे विपक्ष के हमलों पर कोई प्रतिक्रिया न दें, उनकी उपेक्षा करें। यह उनकी रणनीति शुरू से रही है। सिखों के नरमेध पर नानावती रपट हो या नटवर सिंह के विरुद्ध वोल्कर प्रकरण या अमरीका के साथ आण्विक सन्धि, आप कहीं भी सोनिया की प्रतिक्रिया नहीं ढूंढ सकते। वे चुप रहती हैं और उनकी पार्टी के ढोलची उनकी वकालत में ढोल पीटने लगते हैं। “पवित्र गाय” की तरह उन्हें विवादों से ऊपर रखने की कोशिश में जुट जाते हैं। वे केवल ऐसे कार्यक्रमों में जाती हैं जहां उनकी छवि करुणा की देवी की बन सके, वे दुखियों-गरीबों की हमदर्द आवाज बन सकें। कौन नहीं जानता कि यह सरकार मनमोहन निवास से नहीं, सोनिया निवास से चलती है। प्रत्येक निर्णय 10, जनपथ पर लिया जाता है, मनमोहन सरकार का प्रत्येक मंत्री वहां से आदेश लेता है। किन्तु मजाक देखिए कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें घटाने, आकाश को छू रही कीमतों को नियंत्रित करने और सेज के नाम पर गरीब किसानों की जमीन के अधिग्रहण को स्थगित कराने के लिए सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखती हैं। उन चिट्ठियों का मीडिया में खूब प्रचार किया जाता है। कभी वे सूरजकुंड के मेले में जाकर कलाकारों के साथ नृत्य करती हैं और सरकारी खर्चे से उसके रंगीन चित्र का व्यापक प्रचार किया जाता है। सरकारी साधनों से आयोजित रैलियों में वे दो-चार मिनट का लिखित भाषण पढ़ती हैं और सब टेलीविजन चैनलों व अखबारों में उसे बार-बार दोहराया जाता है।वंशवादी मानसिकता का यह अभिशाप है कि भारतीय लोकतंत्र में वंशवाद को प्रतिष्ठित किया जा रहा है। भारतीय राजनीति में सोनिया की एकमात्र हैसियत यह है कि वह नेहरू वंश के एक राजकुमार की प्रेयसी-पत्नी के रूप में राजवंश का हिस्सा बन गई हैं और नेहरू वंश के अपार साधनों और प्रभाव पर काबिज हो गई हैं। जनस्मृति बहुत कमजोर होती है। लोग यह भूल गये हैं कि 1968 में प्रधानमंत्री निवास का अंग बनने के बाद भी 1983 तक उन्होंने भारत की नागरिकता नहीं ली थी। वे संजय गांधी के मारुति कारखाने से आर्थिक लाभ लेती थीं, 1977 में इन्दिरा गांधी की पराजय के बाद वे जनता पार्टी सरकार के कोप से बचने के लिए अपने पति राजीव और बच्चों को लेकर इटली के दूतावास में चली गई थीं, संजय की विधवा मेनका को प्रधानमंत्री निवास से निकलवाने में उनकी मुख्य भूमिका थी। उनकी यही मनोवृत्ति क्वात्रोकी जैसे दलाल को भारत में लाने का कारण बनी।क्वात्रोकी-सोनियाक्वात्रोकी का भारत में प्रवेश सोनिया गांधी के कारण हुआ, उनके कारण ही राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में उसका प्रधानमंत्री निवास में आना-जाना शुरू हुआ। उनसे निकट सम्बंधों के आधार पर ही क्वात्रोकी स्वीडन की बोफोर्स कम्पनी को यह वचन दे सका कि यदि उसे समुचित दलाली दी जाये तो वह 31 मार्च, 1986 के पहले ही फ्रांसीसी तोप के बजाय स्वीडिश तोप का सौदा भारत सरकार के साथ करा देगा। उसने वचन निभाया, 24 मार्च को ही सौदा पक्का करा दिया और 3 प्रतिशत के हिसाब से 64 करोड़ रुपए का कमीशन उसके स्विट्जरलैंड स्थित बैंक खातों में जमा हो गया। वी.पी. सिंह उस समय राजीव गांधी मंत्रिमंडल के सदस्य थे। उन्होंने प्रचार किया कि बोफोर्स सौदे में स्वयं राजीव गांधी का भी दलाली में हिस्सा है। इस बोफोर्स घोटाले के कारण राजीव गांधी की सरकार चली गई और वी.पी. सिंह को डेढ़-पौने दो साल प्रधानमंत्री का ताज पहनने का अवसर मिल गया। तभी से बोफोर्स मुद्दा भारतीय राजनीति में एक टाइम बम बना हुआ है। 1993 में सी.बी.आई. ने क्वात्रोकी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करके उसके पासपोर्ट को जब्त करने की सिफारिश कर दी। किन्तु उस पर कार्रवाई होने के पहले ही क्वात्रोकी भारत से बाहर खिसक गया। तब से ही भारत सरकार, उसकी सी.बी.आई. और क्वात्रोकी के बीच आंख मिचौनी का खेल चल रहा है। क्वात्रोकी सोनिया गांधी से अपने रिश्तों को छिपाता नहीं है, वह स्वयं को उनका पारिवारिक मित्र बताता है। उसे गर्व है कि दोस्ती का यह सूत्र उसके और सोनिया के हम उम्र बच्चों को भी बांधे हुए हैं। इसलिए भाजपा नेता अरुण जेटली का यह कथन अक्षरश: सही है कि “क्वात्रोकी भारत को सोनिया गांधी का उपहार है।”यह रिश्ता भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है। यहां मुख्य मुद्दा क्वात्रोकी नामक एक व्यक्ति को सजा देने का उतना नहीं है, जितना कि भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान पर हावी वंशवादी मानसिकता का, एक विदेशी मूल की महिला द्वारा अपने व्यक्तिगत सम्बंधों के लिए दुरुपयोग का है। 19 वर्ष लम्बे क्वात्रोकी प्रकरण की परतें जैसे-जैसे खुल रही हैं वैसे-वैसे स्पष्ट हो रहा है कि सत्ता-प्रतिष्ठान के भीतर से उसे कोई बचा रहा है। 1993 में नरसिंह राव सरकार के समय सी.बी.आई. के शिकंजे से बचने के लिए वह विदेश निकल भागा। 1997 में सी.बी.आई. के अनुरोध पर इन्टरपोल ने उसकी गिरफ्तारी के लिए “रेड कार्नर नोटिस” पूरी दुनिया में जारी कर दिया। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी की राजग सरकार ने उसे मलेशिया में खोज निकाला। दुर्भाग्य से उसकी गिरफ्तारी के लिए भारत सरकार की प्रार्थनाओं को मलेशिया के विभिन्न न्यायालयों ने 2 दिसम्बर, 2002 से 31 मार्च, 2004 तक एक के बाद एक करके खारिज कर दिया और क्वात्रोकी वहां से भी भाग निकला। राजग सरकार ने जुलाई 2003 में इंग्लैंड में क्वात्रोकी के दो बैंक खातों को सील करवा दिया।इस बीच केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हो गया, सोनिया नियंत्रित सरकार सत्ता में आ गई। अब क्वात्रोकी को बचाने के लिए सरकारी तंत्र का खुलकर दुरुपयोग आरंभ हो गया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने बोफोर्स कांड के एक आरोपी हिन्दुजा बन्धुओं को आरोप मुक्त किया तो उसी आधार पर केन्द्र सरकार ने क्वात्रोकी को भी आरोप मुक्त घोषित कर दिया। कहा गया कि क्वात्रोकी के विरुद्ध केवल षडंत्र का आरोप लगता है, न कि दलाली के 64 करोड़ रुपए लेने का। इसी आधार पर भारत सरकार ने अपने सहायक सोलिसिटर जनरल भगवान दत्त को क्वात्रोकी को क्लीनचिट देने का आदेश दिया जिसके कारण जनवरी, 2006 में क्वात्रोकी के इंग्लैंड स्थित बैंक खाते खुल गए और क्वात्रोकी उनसे 21 करोड़ रु. निकालने में सफल हो गया।सी.बी.आई. का दुरुपयोगसोनिया गांधी के पारिवारिक सम्बंधों के कारण एक विदेशी भ्रष्टाचारी को बचाने के लिए सी.बी.आई. जैसे महत्वपूर्ण संस्थाओं का किस निर्लज्जता के साथ दुरुपयोग किया जा रहा है यह अर्जेन्टाइना में क्वात्रोकी की गिरफ्तारी की घटना ने बिल्कुल साफ कर दिया है। इन्टरपोल के वारंट के आधार पर क्वात्रोकी की गिरफ्तारी 6 फरवरी को हुई किन्तु सी.बी.आई. ने इस समाचार को 23 फरवरी की रात्रि में प्रसारित किया। जबकि भारत सरकार को सूचना अधिकृत राजनयिक सूत्रों से 8 फरवरी को ही प्राप्त हो चुकी थी। 12 फरवरी को एक एडवोकेट अजय अग्रवाल की याचिका पर सुनवाई के दौरान क्वात्रोकी की गिरफ्तारी की सूचना को सर्वोच्च न्यायालय से छिपा कर उसकी अवमानना की। जब अजय अग्रवाल ने न्यायालय का ध्यान इस ओर आकर्षित किया तो सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी प्रगट करते हुए सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है। समाचार पत्रों में प्रकाशित जानकारियों के अनुसार इस महत्वपूर्ण तथ्य को छिपाने को लेकर प्रधानमंत्री के वरिष्ठ निजी सचिव टी.के. नैयर की अन्तरात्मा विद्रोह पर उतर आई। उनके त्यागपत्र की अफवाह उड़ने लगी तब प्रधानमंत्री, विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और गृहमंत्री शिवराज पाटिल की एक उच्चस्तरीय टीम की गुप्त बैठक हुई जिसमें आगे की रणनीति बनाई गई। शायद इसी रणनीति के तहत 23 तारीख को क्वात्रोकी की अर्जेंटीना में जमानत पर रिहाई होने तक इस खबर को भारतीय जनता से छिपा कर रखा गया। उसकी रिहाई की सूचना आने पर ही 23 फरवरी की रात्रि को अधिकृत विज्ञप्ति जारी की गई। एक चिंताजनक जानकारी यह है कि क्वात्रोकी का बेटा मस्सिमो क्वात्रोकी इस कालखंड में भारत आया। 19 से 21 फरवरी तक दिल्ली के एक पाश होटल में उसके ठहरने की पुख्ता जानकारी है, पर शायद वह उससे कई दिन पहले आकर कहीं गुप्त रूप से रहा। वह कहां क्यों रहा होगा यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है। शायद 23 की रात्रि को भी वह विज्ञप्ति जारी न होती यदि इन्टरपोल के सूत्रों से वह खबर भारत न पहुंच जाती। टाइम्स आफ इंडिया (26 फरवरी) के अनुसार भारत सरकार अपने गुप्तचरों और कुछ पत्रकारों के माध्यम से उस रुाोत को ढूंढने में जुट गई है जिसने यह खबर लीक की।कैसी विचित्र स्थिति है कि एक सरकार अपने ही एक अपराधी को बचाने के लिए कैसे-कैसे पापड़ बेल रही है। केवल इसलिए कि वह अपराधी वंशवादी राजनीति में शिखर पर पहुंची महिला के देश का है और पारिवारिक मित्र है। यहां राष्ट्र से ऊपर वंश है और वंश के कारण एक विदेशी महिला की अन्धभक्ति व उसके अपराधी मित्रों को बचाने की षडंत्री चालें। षडंत्र था कि 8 मार्च तक इस समाचार को छिपाकर रखा जाए क्योंकि अर्जेंटीना के नियमों के अन्तर्गत गिरफ्तारी के एक माह के भीतर अर्थात् 8 मार्च तक प्रत्यर्पण की अधिकृत प्रार्थना भारत सरकार की ओर से वहां पहुंच जानी चाहिए थी। अगर 8 मार्च तक यह समाचार गुप्त रह जाता तो प्रत्यर्पण का सवाल ही खत्म हो जाता। 17 दिन के इस विलम्ब के लिए हास्यास्पद कारण दिया जा रहा है कि अर्जेंटीना सरकार की ओर से आये स्पेनिश भाषा के दस्तावेजों का अंग्रेजी में अनुवाद कराने में इतना समय लग गया। इस भौंडे बहाने पर सभी हंस रहे हैं। पत्रों का कहना है कि 6 फरवरी को क्वात्रोकी की गिरफ्तारी की सूचना भारतीय दूतावास ने अंग्रेजी में भेजी थी। और फिर स्पेनिश भाषा के दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद कराने के लिए एक दिन से अधिक समय की आवश्यकता नहीं है।नाम व विरासत का अपहरणबहरहाल, भांडा फूट ही गया। इसलिए मजबूर होकर सी.बी.आई. की टीम को 28 फरवरी को प्रत्यर्पण का प्रयास करने के लिए अर्जेंटीना रवाना कर दिया गया है किन्तु सभी समाचार पत्रों को शंका है कि यह केवल एक नाटक है, एक दिखावा है, क्योंकि अर्जेंटीना के साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि है कि नहीं यह बहुत संदिग्ध बिन्दु है। भाजपा का कहना है कि 17 अगस्त, 1961 को संसद में प्रत्यर्पण संधि सम्बंधी जो विधेयक प्रस्तुत किया गया उसकी संलग्न सूची में अर्जेंटीना का नाम भी था। वैसे भी 1889 में ब्रिटेन की सरकार ने अर्जेंटीना के साथ जो प्रत्यर्पण संधि की थी वह ब्रिटिश भारत पर भी लागू होती थी और वह संधि अभी तक निरस्त नहीं हुई है।क्वात्रोकी का प्रत्यर्पण हो या न हो, उसे सजा मिले या न मिले, यह बहुत महत्व की बात नहीं। महत्व की बात है कि भारतीय राजनीति पर वंशवादी मानसिकता इस कदर हावी हो गई है कि उसका दोहन विदेशी मूल के व्यक्तियों के द्वारा किया जा रहा है। इस स्थिति के लिए भारत का मीडिया एवं राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह जिम्मेदार है। क्या मीडिया को यह पता नहीं है कि स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कभी की मर चुकी है? स्वयं इन्दिरा गांधी ने अपनी पार्टी को इन्दिरा कांग्रेस नाम दिया था। सोनिया पार्टी को स्वयं को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कहने का क्या अधिकार है? क्यों मीडिया व राजनीतिक नेतृत्व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाम व विरासत के इस निर्लज्ज अपहरण को बर्दाश्त कर रहे हैं? शब्दों का अपना महत्व होता है। क्यों नहीं मीडिया और राजनीतिक नेता इस सत्य को सामने लाते हैं कि भारतीय राजनीति में इस समय मुख्य मुद्दा लोकतंत्र बनाम वंशवाद बन गया है। क्यों नहीं वे वंशवादी सोनिया पार्टी जैसा नाम स्थापित करते हैं? साथ ही, क्यों नहीं संसद से लेकर प्रत्येक नगर निगम और नगरपालिका के माध्यम से यह जानकारी इकट्ठी की जाती कि उनके क्षेत्र में कितनी सड़कों, भवनों, मुहल्लों, योजनाओं, सार्वजनिक संस्थानों और पुरस्कारों का नामकरण नेहरूवंश के किसी न किसी सदस्य के नाम पर किया गया। यदि देशभर में यह जानकारी इकट्ठी की गई तो शायद उस सूची से 500 पृष्ठों की मोटी पुस्तक बन जाएगी और तब यह सत्य भी सामने आयेगा कि 1996 में सोनिया के उत्कर्ष के बाद से केवल राजीव और सोनिया के कट आउट व नाम चिपकाये जा रहे हैं, नेहरू वंश के अन्य नामों को पीछे छोड़ दिया गया है। क्या भारत के संविधान निर्माताओं ने यह कल्पना की थी कि भारतीय लोकतंत्र पर वंशवाद हावी हो जायेगा? (2 मार्च, 2007)27

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