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56 के अशोक चक्रधर ने कहा-

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Nov 3, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Nov 2007 00:00:00

मानवतावादी था, इसलिए पक्का कम्युनिस्ट नहीं बनागत 8 फरवरी को जब अशोक चक्रधर छप्पन साल के हुए तो नई दिल्ली के हिन्दी भवन में एक भव्य समारोह में उनका जन्मदिन मनाया गया। लोग जीवन का पचासवां सोपान याद करते हैं या फिर जब साठ के होते हैं। कोई-कोई 75वां साल और कभी सहरुाचन्द्र दर्शन यानी 80वां। पर यह छप्पनवीं वर्षगांठ? नया चलन? सुविख्यात कवि और व्यंग्यकार अशोक चक्रधर से “छप्पन” का मामला पूछने चले तो प्रश्नोत्तरों के सिलसिले में पिछले छप्पन बरस की तमाम परतें खुलती चली गईं। यहां प्रस्तुत हैं उनसे हुई विस्तृत बातचीत के मुख्य अंश–वनीता गुप्तायह छप्पन का चक्कर क्या है?महिलाओं के प्रसंग में छप्पन छुरी तो अक्सर सुना जाता है, मांगलिक अवसरों पर भी छप्पन भोग का प्रचलन है। लेकिन वर्तमान आतंकवाद के दौर में ए.के.56 की चर्चा ज्यादा है। मैंने सोचा ए.के.56 को ए का 56 क्यों न बनाया जाए। ए का यानी अशोक का 56। एका यानी एकता का 56। बस ए.के. 56 की काट में यह ए का 56 जैसा मामला था।इन छप्पन वर्षों में कई पड़ाव तय किये हैं आपने। इस दहलीज पर आकर वे पड़ाव याद आते हैं?सब कुछ चलचित्र की तरह अंकित है मानस पर, जिसने मेरी जिन्दगी की दिशा तय की। 1951 में खुर्जा के एक सरकारी अस्पताल में जन्म लेने के बाद 1964 तक हम वहीं रहे। बचपन खुर्जा या फिर ननिहाल इगलास (अलीगढ़, उ.प्र.) में बीता। नाना जी जूनियर हाईस्कूल के मुख्य प्राध्यापक (हेड मास्टर) थे, पिता श्री राधेश्याम “प्रगल्भ” खुर्जा के एक इंटर कालेज में अध्यापक थे और लोकप्रिय कवि भी। बचपन से ही मैंने अहीरपाड़ा के अपने घर में कवियों का आना-जाना देखा। बच्चन जी (डा. हरिवंश राय बच्चन), गोपाल प्रसाद व्यास, सोहन लाल द्विवेदी, काका हाथरसी आदि कवियों सहित बड़े-बड़े लेखकों-कवियों का मेरे घर आना-जाना होता था। पिताजी ने मेरे ही नाम से एक प्रकाशन संस्थान खोला था “अशोक प्रकाशन”, उससे 1956 में एक किताब छपी थी रमेश कौशिक जी की “सुबह की धूप”। उस पर अशोक प्रकाशन लिखा हुआ था इसलिए मुझे लगता था कि यह मेरी ही किताब है। उसे लिए-लिए मैं सारी जगह घूमता था। हालांकि उसमें छपे गीत मेरी समझ से परे थे लेकिन मां बताती हैं कि बचपन से ही मुझे कविता करने और तुक मिलाने का शौक था। हम उम्रों में नेतागिरी करने का शौक भी था। कई दोस्तों को इकट्ठा कर बाल सभा बना ली थी। बाल सभा में नाटक, कविता, गीत लिखा- पढ़ा करते थे। जब ननिहाल जाता तो वहां बाल सभा आयोजित करता था और खुर्जा आता तो वहां भी होती थी बाल सभा। नाना जी से सीखा था शासन-प्रशासन। बाल सभा का रजिस्टर भी बनाया। बाबा की आढ़त की दुकान थी। बही खातों की मुंडी लिपि में उन्होंने बहुत सारे गालिब, दाग, मीर के शेर लिखे थे। मैंने वे शेर पढ़े, बहुत अच्छे लगे। वे मेरे पास अभी भी सुरक्षित हैं। उर्दू मैंने नाना जी के यहां सीखी एहतराम मास्टर जी से, यह बाद में जामिया में मेरे काम आई। खुर्जा का वह काल मेरे मन को गढ़ने वाला काल था। मैं कविता लिखने लगा था। 11 बरस की आयु में मैंने कवि सम्मेलनों में कविता पढ़नी शुरू कर दी थी।आपकी पहली कविता कौन-सी थी?मैं मां पर बहुत कविताएं लिखता था। मेरी मां एक बड़े संयुक्त परिवार के दबावों में बड़ा-सा घूंघट करके रहती थीं। परदादी मेरी मां पर बहुत अत्याचार करती थीं। एक बार उन्होंने गुस्से में चरखा मां की ओर फेंककर मारा। उसका तकुआ मां के पैर में गड़ गया। उधर हमारी आढ़त की दुकान में ताऊ‚जी गड़बड़ करते थे, मुझे अच्छा नहीं लगता था। हालांकि मैं बहुत छोटा था, लेकिन समझ आता था कि ये लोग मां के विरोधी हैं। 1956 में जब भूकम्प आया तो हमारे मकान का एक हिस्सा गिर गया। ताऊ‚जी की देखरेख में वहां की टूटी दीवार गिराई जा रही थी। मुझे लगा ये हमारा घर गिराये दे रहे हैं। उसी मकान की दीवार से गिरी एक ईंट पर आईना रखकर ताऊ‚जी दाढ़ी बना रहे थे और कनखियों से देखते हुए मजदूरों से कहते जा रहे थे-गिराओ, गिराओ। मुझे बड़ा खराब लगा। मेरे मुंह से बेखास्ता निकला, “आ मेरे प्यारे भूचाल, ताऊ‚जी का कट जाए गाल”। मेरे साथ-साथ मेरे सारे दोस्त भी यही गाते हुए ताली बजाकर शोर मचाने लगे। यह सुनकर ताऊ‚ जी हमें मारने को दौड़े। फिर तो हम सब आगे-आगे, ताऊ‚जी पीछे-पीछे। दौड़ते-दौड़ते हम गाय-भैसों के अहाते में घुस गए। हम छोटे-छोटे थे इसलिए दुबककर निकल गए, लेकिन एक मरखनी गाय ने ताऊ‚जी को सींग मार दिया। फिर तो मेरी खूब धुलाई हुई। 6 साल की उम्र में अपनी याद्दाश्त में लिखी उस पहली कविता के लिए खूब पिटा था, इतना याद है। यानी पहली कविता के बदले पुरस्कार स्वरूप ठुकाई मिली थी।उस समय मां पर लिखी एक कविता याद आती है। होता यह था कि मां को जब ज्यादा सताया जाता था तो मानसिक दबाव के कारण उन्हें दौरे पड़ते थे। मैंने कविता लिखी-“एक थी मां, जिसे दौरे बहुत पड़ते थेउसके बेटे, जो उससे करते थे बहुत प्यारउसे देखने भी न आते थेक्योंकि मां का दौरा सुनते हीउनको खुद दौरे पड़ जाते थे।”कविता लेखन के साथ-साथ अध्ययन का सिलसिला भी चलता रहा।सीधे तीसरी कक्षा में स्कूल में भर्ती हुआ और तेरह साल की उम्र में दसवीं पास कर ली थी। मैं पिताजी का अंधभक्त था और उनका अनुसरण करता था। उनके जैसी ही कविता लिखने की कोशिश करता था। कई लोग कहते थे कि मैं अपने पिताजी से लिखवा लेता हूं। कई बार गर्व भी होता था कि मेरी कविता उस स्तर की मानी जाती है। कभी अफसोस भी होता था कि मेरी कविता मेरी नहीं मानी जा रही है। सन् 1964 में काका हाथरसी जी ने पिताजी को सेठ रामबाबू लाल की बिजली मिल में ब्राज कला केन्द्र नाम की संस्था के सचिव के रूप में हाथरस बुला लिया। जब हम बिजली मिल आ गए तो सारा परिवेश ही बदल गया। जीवन स्तर में बड़ा गुणात्मक परिवर्तन आया। महानगरीय संस्पर्श मिला। सेठ रामबाबू लाल की बिजली मिल की आफिसर्स कालोनी में ठाठ अलग ही थे। खुर्जा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाता था, वह यहां छूट गया। यहां शाखा का सिलसिला नहीं था, लेकिन राष्ट्रभक्ति, देशभक्ति का वही भाव बना रहा। वैसी ही कविताएं लिखने लगा था। सन् 62 में जब मैं 11 साल का था तब चीन ने हमला किया, तब चीन के विरुद्ध कविता लिखी। “65 में पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ा तो पाकिस्तान के विरुद्ध लिखी।मैं अच्छे-अच्छे शब्द ढूंढता रहता था। 13 साल की उम्र तक मैंने बहुत श्रेष्ठ साहित्य पढ़ लिया था। बाल पत्रिकाएं, प्रेमचंद की कहानियां, बड़े लेखकों की किताबें मैंने नाना जी के स्कूल के पुस्तकालय से लेकर पढ़ डाली थीं। पर हाथरस में उल्टा हो गया, यहां जासूसी उपन्यास आदि एकन्नी, दुअन्नी में किराये पर लेकर पढ़ने लगा। गुलशन नंदा, प्रेम बाजपेयी को पढ़ा। फिर अचानक इनसे विरक्ति हो गई और बारहवीं में यशपाल, जैनेन्द्र आदि की पुस्तकें पढ़ने लगा।क्या अकादमिक शिक्षा की दृष्टि से साहित्य का दामन थामा?चाहता तो वही था लेकिन पिताजी की इच्छा थी कि मैं बी.एससी. करूं। इसके लिए मुझे मथुरा भेज दिया गया, लेकिन वहां मन नहीं लगता था। विज्ञान और गणित में गति बिल्कुल नहीं थी। प्रथम वर्ष में गणित का पर्चा दिया, पता लग गया था कि फेल हो जाएंगे। पूरा नाटक किया बीमार पड़ने का ताकि आगे के परचे न देने पड़े और फेल होने का दाग न लगे। 18-19 घंटे अपने होस्टल की पानी की टंकी में बैठा रहा ताकि बुखार आ जाए, लेकिन बुखार नहीं आया। किसी ने कहा, प्याज की गांठ बगल में दबा लो, वह भी किया पर बुखार नहीं आया। कोई चारा न देख मैथाड्रिल नाम की 5-6 गोलियां खाईं ताकि नींद न आए और रात को जागकर पढ़ाई की जा सके। इससे तबीयत खराब हो गई, उल्टियां आनी शुरू हो गईं। मैं बहुत प्रसन्न हुआ कि मनचाही मुराद पूरी हो गई। पिताजी को खबर भिजवाई कि बीमार हूं। पिताजी आए, उन्होंने देखा कि हाल बुरा है तो बोले कोई बात नहीं, अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है “ड्राप” कर दो। मैं तो यही चाहता था। अगली बार उन्होंने कहा, जाओ बी.एससी. करने तो मैंने बड़ी विनम्रतापूवर्क कहा, “पिताजी मैं बी.ए. कर लूं?” पिताजी ने बेमन से हामी भर दी। उधर बिजली मिल बंद होने के कगार पर आ गई। 1969 में पिताजी ने मथुरा आकर प्रिंटिंग प्रेस शुरू की- “संकल्प प्रेस”। मैंने बी.ए., एम.ए. वहीं से किया। सोचा था “टाप” करूंगा तो यहीं अपने किशोरी रमण कालेज में पढ़ाऊं‚गा। लेकिन दूसरा स्थान मिला। सपना टूट गया। उसके बाद जिंदगी अलग ढर्रे पर चल निकली।अलग ढर्रा यानी?मेरे मित्र सुधीश पचौरी 1972 में मुझे दिल्ली ले आए। यहां एम.लिट्. में दाखिला लिया और फिर कम्युनिज्म की ओर बढ़ चला। इससे पहले मथुरा म्यूजियम के लान में हमारे कालेज के राजनीतिक विज्ञान के प्राध्यापक श्री सब्यसाची ने मुझे द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद पर लम्बा व्याख्यान दिया, जिसे सुनकर मुझे लगा कि जीवन का सार यही है। गजानन माधव मुक्तिबोध की एक किताब “नई कविता और उसका आत्मसंघर्ष” मुझे सुधीश पचौरी ने दी थी। एकदम नई शब्दावली थी। नई भावभूमि पर मुक्तिबोध को पढ़ा तो चमत्कृत हो गया। उस दौर में नई कविता, नई कहानी, अकविता, नकविता, प्रपधवाद, नकेनवाद सब युवाओं को प्रभावित कर रहे थे। अज्ञेय का बहुत प्रभाव था। लेकिन यह महसूस होने लगा था कि इस आधुनिक भावबोध की दो दिशाएं हैं-एक सकारात्मक, दूसरी नकारात्मक। नकारात्मक भावबोध हमें कुंठा, संत्रास, घुटन, निराशा, अकेलेपन, बदबू, सड़न से घेर लेता है। दूसरी ओर यथार्थ धरातल पर संघर्ष की बात थी, जीवन का हाहाकार था। युवा होने के नाते बाह्र संघर्ष ने मुझे ज्यादा प्रभावित किया।तो आप विशुद्ध कामरेड हो गए?दिल्ली आते ही सत्यवती कालेज में कुछ महीनों के लिए नौकरी की। अस्थायी नौकरी थी। दरअसल मैं दिल्ली आकर आंदोलनधर्मी हो गया क्योंकि यहां कोई रोकने-टोकने वाला नहीं था। सन् ,”72 से “75 तक का काल बेहद संघर्ष का काल था। 73 के शुरुआत में नौकरी छूट गई। मेरी पहचान आंदोलनधर्मी के रूप में हो गई थी इसलिए कहीं नौकरी नहीं मिलती थी। एक किताब छाप दी, “दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के काले कारनामे”। एक संघर्ष समिति बना ली। इसलिए अशोक चक्रधर को एक भयंकर क्रांतिकारी जीव के नाम से जाना जाने लगा था। यही वह दौर था जब डा. नगेन्द्र और डा. विजयेन्द्र स्नातक के विरुद्ध कम्युनिस्टों ने मुहिम छेड़ी हुई थी, मैं उनमें अग्रणी था। हमारा गुट इतना शक्तिशाली था कि छात्रों पर उसका असर होने लगा। दिनभर घूमते रहते थे, कभी प्रगति की गोष्ठियों के लिए, कभी एस.एफ.आई. (स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया) के काम से। रात को “बढ़ते कदम” नामक अखबार की कम्पोजिंग करने फिल्मिस्तान सिनेमा के पास पहुंच जाता था। बाबू लाल दोषी निकालते थे यह अखबार। मथुरा में चूंकि हमारी प्रिंटिंग प्रेस थी, सो हैंड कम्पोजिंग जानता था, एक-एक फांट लगाकर, गेली बनाकर, धागा बांधकर, फर्मा तैयार करके मशीन में फिट करा देता था। उल्टे अक्षरों में ही प्रूफ पढ़ देता था। गेली में ही उल्टे अक्षर पढ़ने का अभ्यास था। इस रात भर की कसरत के सुबह कुछ रुपए मिल जाते थे। टैगोर पार्क में हम प्रगतिशील लेखकों का जमघट होता था-बाल्यकाल में शाखा गए, संघ को देखा-समझा और युवा हुए तो माक्र्सवाद से जुड़े, उसके लिए संघर्ष किया। उम्र की इस दहलीज पर आकर दोनों के बीच आकलन करने पर आप क्या निष्कर्ष निकालते हैं?मुक्तिबोध ने एक जगह लिखा था-“मैं एक कदम रखता हूं, सौ राहें फूटती हैं”आपके सामने सौ रास्ते हैं। वे सभी रास्ते मंजिल तक जाते हैं या नहीं जाते, आपको नहीं मालूम। मैं प्रगतिशील विचारधारा को आज भी मानता हूं। मैं मनुष्य और मनुष्य में प्रेम सम्बंधों को प्राथमिकता देता हूं। पूरे विश्व में मनुष्यता का गठबंधन हो, यह इच्छा रखता हूं। लेकिन हम वसुधैव कुटुम्बकम की संकल्पना रखने वाले अपने सांस्कृतिक मूल्यों को संकीर्णता से प्राप्त नहीं कर सकते। अब यह स्पष्ट समझ आ गया कि ऐसा सिर्फ कम्युनिज्म के रास्ते से नहीं पाया जा सकता। एक सबसे अच्छी बात यह हुई कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड होल्डर नहीं बना। माक्र्सवाद से बड़ी तेजी से मेरा मोह भंग हुआ। जिन लोगों पर मेरी बड़ी आस्था थी, उनके निजी जीवन के प्रसंग बड़ी चोट पहुंचाते थे। उनकी कथनी और करनी में भेद स्पष्ट नजर आते थे। जिन मूल्यों के लिए वे लड़ते थे ठीक उसके विपरीत उनके आचरण थे। सोचता था कि क्रांति आज आई, कल आई, हमारे संघर्षों से तो आ ही जाएगी, लेकिन कभी क्रांति नहीं आई। यह देखकर मेरा मोह भंग हुआ और लगा कि हमारी संस्कृति के उन तत्वों में, जो हमें बेहतर मनुष्य बनाते हैं, क्या बुराई है। धर्म का केवल विरोध के नाम पर विरोध करना मुझे तर्कसंगत नहीं लगा। लगने लगा कि जीवन में ऐसी विचारधारा को अपनाया जाए जो मानवतावादी हो और हमारी 5000 साल पुरानी हिन्दू संस्कृति में जो श्रेष्ठ है, उसे वरेण्य हो और हम मिल-जुल कर इस देश को ऊपर ले आएं। सन् “64-“65 में मेरे भीतर जो मेरा राष्ट्र था, “72 से “75 तक वह खो गया था। माक्र्सवाद के चक्कर में विश्व-दृष्टि हो गई थी। माक्र्सवाद ने वैश्विक बनाकर मुझे मेरी राष्ट्रवादी चेतना और देश के प्रति विमुख कर दिया था। वह भाव बाद में वापस लौटा। मैं नए सिरे से मनुष्य के बारे में सोचने लगा। मुझे अहसास हो गया था कि कम्युनिज्म एक प्रकार की संकीर्णता से ग्रस्त है। राष्ट्र एक अस्मिता है, राष्ट्र एक शक्ति है, यह भाव मन में घर करने लगा। मेरे मानस में एक ऐसा चिंतन विकसित होने लगा जिसमें कम्युनिज्म है, तो राष्ट्रीय चेतना भी, समाजवादी चिंतन भी हैं और बाबा राम देव भी हैं। यानी सर्व स्वास्थ्यकारी चिंतन।इस चिंतन को आपने क्या कोई संज्ञा दी है?मैं इसके लिए एक शब्द “मानवतावाद” से अलग कुछ और नहीं सोच पा रहा हूं। कम्युनिज्म से मोह भंग होने का एक व्यक्तिगत कारण भी था। मुझे काका हाथरसी जी की बेटी वागेश्वरी जी से प्रेम हो गया था। मुझे उनका साथ देने के लिए भी समय चाहिए था। हमारे कामरेडों ने मुझे बड़ी अजीब निगाहों से देखना शुरू किया। आंखें तरेरने लगे। दो साल तक मैं उनके लिए पूर्णकालिक था, जहां दौड़ा दिया, दौड़ जाता था। अब अपने लिए समय चाहिए था। उस समय मैंने चार पंक्तियां लिखी थीं-“मैंने वरण किया,उन्होंने कहा यह मरण है,मैंने कहा, नहींयह क्रांति का ही अगला चरण है।”कम्युनिस्टों के लिए मेरा साहित्यकार या कवि होना कोई महत्व नहीं रखता था, उनके लिए मेरा पार्टी का कर्मचारी होना बड़ी बात थी। लगता था आखिर व्यक्ति रूप में भी मैं कुछ हूं या नहीं। उन तीन वर्षों में मैंने अपनी वैयक्तिता को कुचल कर रख दिया था। वे नहीं चाहते थे कि मैं अशोक चक्रधर एक कवि के रूप में उभरूं या मेरा नाम हो। माक्र्सवाद के चक्कर में जन्मी स्वविहीनता धीरे-धीरे मेरे स्व को जाग्रत करने लगी। द्वन्द्व बढ़ा और मैं माक्र्सवाद से दूर हो गया। एक घोषित कम्युनिस्ट के रूप में मेरी पहचान होने के कारण कोई मुझे अपने शोध छात्र के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहता था। जैसे-तैसे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में मुझे सन् “75 में नियुक्ति मिली।आप मंच के प्रतिष्ठित कवि हैं और कवि सम्मेलनों का एक लम्बा दौर आपने जिया है। क्या आपको नहीं लगता कि अब इनका स्तर तेजी से गिरता जा रहा है?कवि सम्मेलनों के बारे में यह बात पिछले 100 साल से कही जा रही है। यही आरोप महावीर प्रसाद द्विवेदी के समय भी लगते थे। जब भी कोई कला जनता के पास जाती है तो उसकी जैसी ही हो जाती है। अब जनता की सोच का स्तर उठा नहीं तब कवि क्या करेगा। उसी की भाषा में ही तो बोलेगा। जब बच्चन जी अपनी कविताएं सुनाया करते थे तब उन पर आरोप लगता था कि वे कविता में हल्कापन ला रहे हैं। जो कविता पैसे के लिए सुनाई जाती है उसका रूप अलग होता है। उससे साहित्य की आशा नहीं करनी चाहिए, वह एक प्रस्तुति कला है। लेकिन कवि सम्मेलनों में अचानक जो हद से ज्यादा फूहड़ता आयी है जिनमें सिर्फ चुटकुले ही चुटकुले हैं, तो उन्हें “लाफ्टर शो” या “चुटकुला सम्मेलन” कहना चाहिए।व्यंग्य लेखन की क्या स्थिति है?व्यंग्य लेखन काफी उर्वर स्थिति में है। खूब व्यंग्य लिखा जा रहा है। हमारे देश में अच्छा व्यंग्य लिखने वालों की पौध एक फसल में परिवर्तित हो चुकी है। ज्यादा लोग लिख रहे हैं लेकिन बहुत कम हैं जो दिख रहे हैं। दिख वो रहे हैं जो बिक रहे हैं। जहां साहित्य बिकाऊ‚ बन जाए वहां ऐसी पतन की स्थितियां आ जाती हैं। गल्लेबाजी और गलेबाजी की संस्कृति ने अच्छे लेखन को जड़ से ही उखाड़ दिया है।18

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