सामाजिक समरसता के सूत्र
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सामाजिक समरसता के सूत्र

by
Nov 3, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Nov 2007 00:00:00

संगत-पंगत ही नहीं, समानता भी आवश्यक-रामफल सिंहकेन्द्रीय मंत्री, विश्व हिन्दू परिषदहिन्दू समाज का समरस होना समय की मांग है। समाज को समरस करने का प्रयास पहली बार नहीं हो रहा है। अनेक संगठन, संस्थाएं, सन्त-महात्मा पिछले हजारों वर्षों से प्रयत्नशील हैं। भविष्य में इस कार्य को यशस्वी करना है तो स्थिति का सिंहावलोकन आवश्यक है। समरसता का अर्थ भी ध्यान में रखना आवश्यक है। विषय को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण सामने रखने होंगे। लगभग पांच सौ वर्षों से सिख आन्दोलन यह कार्य कर रहा है और इस आन्दोलन ने संगत व पंगत एक करके समाज में समरसता निर्माण करने में पर्याप्त सफलता पाई है। किन्तु सब कुछ समान होते हुए भी सिख व मजहबी सिख का अन्तर बना हुआ है। लगभग 130 वर्षों से आर्य समाज यह काम कर रहा है। हम सभी आर्य हैं कोई अनार्य नहीं, इस आधार पर इस आन्दोलन ने सम्पूर्ण समाज में यशस्वी भूमिका निभाई है और बहुत यश प्राप्त किया है। फिर भी जिन लोगों ने अपने नाम के साथ आर्य शब्द जोड़ा उनके बारे में छवि ऐसी बनती गई जैसी व्यक्ति आर्य बनने की प्रक्रिया में है और शेष समाज से कुछ अलग है।डा. भीमराव अम्बेडकर के साथ ब्राह्मण उपनाम लगा है। अपने समय के सर्वाधिक शिक्षित, योग्य, सामाजिक, राजनीतिक व प्रसिद्ध व्यक्तियों में उनकी गिनती थी। दूसरा विवाह ब्राह्मण स्त्री से किया और व्यक्तिगत आधार पर उनसे किसी की दूरी भी नहीं रही थी। यानी संगत व पंगत में अन्तर नहीं रह गया था। फिर भी उनकी पहचान दलित नेता की ही बनी।बाबू जगजीवन राम जब केन्द्र सरकार में रक्षा मंत्री बने तो काशी में स्थित डा. सम्पूर्णानन्द की मूर्ति का अनावरण उनसे कराया गया। अनावरण के अगले दिन कुछ लोगों ने डा. सम्पूर्णानन्द की मूर्ति को गंगाजल से धोकर पवित्र किया। इस घटना पर बहुत हंगामा हुआ। मुकदमेबाजी भी हुई। कुछ समय बाद इस घटना पर विचार करने के लिए कुछ लोग बैठे। चिन्तन का विषय था कि घटना का आधार क्या था। बाबू जगजीवन राम उच्च शिक्षा प्राप्त थे, धन-धान्य में भी कम नहीं थे, रामायण के विद्वान माने जाते थे, सत्ता के भी शिखर पर थे, फिर भी ऐसा क्यों हुआ? निष्कर्ष यह था कि उनका सामाजिक स्तर समान नहीं था। जबकि बाबू जगजीवन राम की संतानों के विवाह सम्बंध भी तथाकथित ऊंची जाति के परिवारों में हुए। उनके साथ खान-पान में भी सभी लोग शामिल रहते थे यानि संगत-पंगत एक समान थी।दूसरी ओर उत्तर-पश्चिम भारत में लोहार व बढ़ई अपने को शर्मा-मिश्र-पाठक व शुक्ल आदि लिखने लगे। उनका तर्क था कि हम ब्राह्मण हैं, मात्र कार्य के कारण हमें लोहार व बढ़ई कहा जाता है। प्रारम्भ में शेष ब्राह्मणों ने विरोध किया और उन्हें ब्राह्मण मानने से इनकार कर दिया। किन्तु कुछ समय बाद सब ठीक हो गया और अब तो उनके आपस में विवाह सम्बन्ध तक होने लगे हैं। दिल्ली से कालपी- कानपुर तक 80-85 गांव के मुसलमान बनाये गये लोगों का शुद्धिकरण कर स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उन्हें पुन: हिन्दू बनाया था। इसी की प्रतिक्रिया में उनकी हत्या की गई थी। पुन: हिन्दू बनकर वे सब अपने को ठाकुर (क्षत्रिय) लिखने लगे किन्तु ठाकुरों ने उन्हें क्षत्रिय मानने से इनकार कर दिया। थोड़े दिन तक अलगाव बना रहा किन्तु एक-दो पीढ़ी के बाद अब तो आपस में शादी-विवाह भी होने लगे हैं और अब वे क्षत्रिय स्वीकार कर लिये गये हैं।थ् श्री त्रिलोकी नाथ कोल अपनी पुस्तक “पासी वीर सुहेल देव” के पृष्ठ 12 पर लिखते हैं कि इन लोगों (पासियों) ने उचित अवसर पाकर जाति का परिवर्तन किया। बहराइच, गोंडा, सुल्तानपुर, फैजाबाद व इलाहाबाद में अधिकांश क्षत्रिय हो गए जैसे करछना तहसील के डीहा गांव के परगटिया ठाकुर मूलत: पासी हैं किन्तु अब वे क्षत्रिय ही स्वीकार कर लिए गए हैं।थ् बनारस व मीरजापुर के राजभर बड़ी संख्या में ठाकुर लिखने लगे। अब वे ठाकुर हैं और अन्य क्षत्रियों से आपस में विवाह सम्बंध होने लगे हैं।इन दोनों के उदाहरणों से स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि केवल संगत व पंगत से पूर्ण समरसता निर्माण नहीं होती। समरसता के लिए सामाजिक बराबरी आवश्यक है। जिन लोगों ने सामाजिक बराबरी प्राप्त कर ली, वे समरस हो गए।सबसे कठिन चुनौतीसामाजिक समरसता के मार्ग में सबसे बड़ी चुनौती दलित-हरिजन-अनुसूचित वर्ग की उपस्थिति है क्योंकि व्यवहार में यह वर्ग अस्पृश्य माना जाता है। इस श्रेणी के समाज बन्धुओं का आचरण क्षत्रियत्व से भरपूर, संघर्षशील-स्वतंत्रता प्रेमी व स्वाभिमानी है। हजारों साल का इतिहास साक्षी है कि इनका संघर्ष निरन्तर विदेशी व विधर्मी आक्रान्ता शक्तियों से रहा है। शेष हिन्दू समाज से इनका संघर्ष कभी नहीं रहा बल्कि सदा ही शेष हिन्दू समाज की रक्षा में ये आगे आते रहे हैं। इस समाज के गोत्र व उपजातियां भी क्षत्रियों की ही हैं। जैसे- बैस-बैसवार-वीरगुजर-बड़गुजर-भदोरिया-बिसेन-सोब-बुन्देलिया-चन्देल-चौहान-जादो- यदुवंशी-कछवाहा-किनवार-ठाकुर-भोजपुरी राउत-गाजीपुर-राउत-गहलौत। (नाच्यो बहुत गोपाल के अनुसार)जटिया-जाटव-कटारिया-लोमोड़-दहिया-सहरावल-मडिया-हुडा-गहलौत-सांभरिया-तंवर-गोठवाल-चौहान-अहीर-नूनीवाल-ढोंकवाल-बड़गुजर आदि। आज जिन्हें बाल्मीकि-चर्मकार-पासी-खटिक आदि नामों से जाना जाता है ये सब इन्हीं के गोत्र व उपजातियां हैं।आखिर ये अपने क्षत्रियत्व से हटकर इस श्रेणी में कैसे पहुंच गए? ऐतिहासिक साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं कि राजनीतिक पराजय के बाद राजनीतिक बन्दी के रूप में इस्लाम स्वीकार न करने और हिन्दू बने रहकर गोमांस भक्षक विजेताओं के विभिन्न प्रकार के निम्न सेवा कार्य करने के कारण वे इस गति को प्राप्त हो गए। दूसरा कारण, यह वर्ग सत्ताहीन-भूमिहीन व साधनहीनता तथा निरंतर संघर्षरत रहने एवं गरीबी-कंगाली-अशिक्षा आदि के कारण बाध्य होकर निम्न जीवन जीता रहा है।हमारी भूलआतंकित और हजारों वर्षों की गुलामी के कारणहीन भावना से ग्रस्त हिन्दू समाज ने इस श्रेणी के बन्धुओं को शूद्र मान लिया। यद्यपि 1826 तक यह वर्ग शूद्र श्रेणी से अलग “अदर कास्ट” माना जाता था। धर्मपाल अपनी पुस्तक ब्यूटीफुल ट्री में लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 1822 से 1826 तक भारत में शिक्षा स्तर का सर्वेक्षण कराया था। सर्वेक्षण के फार्म में छ: कालम बनाये गये। एक कालम मुसलमानों का था और पांच कालम हिन्दुओं के थे। इस सर्वेक्षण का नाम था- कास्टवाइज सर्वे आफ एजूकेशन, किन्तु सर्वे किया गया वर्ण के आधार पर। पहला कालम ब्राह्मण, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वैश्य, चौथा शूद्र और पांचवा अदर कास्ट। धर्मपाल लिखते हैं कि “अदर कास्ट” ही आज की अनुसूचित जातियां हैं। इसका अर्थ है कि अनुसूचित या दलित व हरिजन वर्ग को 1826 के बाद ही शूद्र श्रेणी में धकेला गया और हिन्दू समाज ने मान लिया। हिन्दू नेतृत्व उस समय तक इतना दीन-हीन हो गया था कि उसने अंग्रेजों द्वारा फैलाये सभी भ्रमों को ब्राह्म वाक्य मानकर स्वीकार कर लिया। उदाहरण तो बहुत हैं किन्तु एक ही उदाहरण से स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। अंग्रेजों ने 1931 की जनगणना में यानी आज के मात्र 75 वर्ष पहले हिन्दू समाज में आदिवासी व गैर आदिवासी की विभाजन रेखा खींचीं ओर हमने मान ली। कुछ लोगों ने इसको नकार कर वनवासी व गैर वनवासी के रूप में विभाजन को ज्यों का त्यों मान लिया।यह भूल हिन्दू समाज को बहुत महंगी पड़ रही है जो सामाजिक समरसता में सबसे बड़ी बाधा बन गई है। इस भूल से हिन्दू समाज दोहरे अन्याय का शिकार हो गया है। पहला यह है कि हिन्दू समाज व्यवस्था कलंकित हो गई और दूसरा अन्याय यह हुआ कि हिन्दू समाज का पराक्रमी वर्ग, जिसने सर्वस्व छोड़ दिया किन्तु अपना धर्म नहीं छोड़ा, जिस वर्ग को धर्म योद्धा व स्वतंत्रता सेनानी का सम्मान मिलना चाहिए था, उससे वह वंचित हो गया।अभी तक किये गये सामाजिक समरसता के प्रयास फलीभूत नहीं हुए उसका कारण यही भूल है। अभी तक के सभी प्रयास विदेशियों द्वारा दण्डित श्रेणी के समाज बन्धुओं को शूद्र श्रेणी का मानकर ही किये जाते हैं। शूद्र श्रेणी का मान लेने के कारण ही इन्हें हिन्दू समाज की देन भी माना जाता है और यही कारण है कि सामाजिक समरसता के सभी प्रयास संगत व पंगत की बराबरी की सीमा तक भी नहीं पहुंच सके। क्योंकि सामाजिक छुआ-छूत व भेद-भाव समाज व्यवस्था की देन माना गया। इस भूल ने असंभव को संभव बना दिया और इतिहासकारों, समाज शास्त्रियों ने सोचना बंद कर दिया। केवल डा. अम्बेडकर ने कुछ कार्य इस दिशा में किया। डा. अम्बेडकर के सामाजिक शोध के अनुसार चार सौ ईस्वी शताब्दी तक हिन्दू समाज में छुआछूत का कोई उदाहरण नहीं मिलता। डा. अम्बेडकर कादम्बरी उपन्यास में वर्णित चाण्डाल राजकुमारी व उसके द्वारा पालित वैशम्पायन नामक तोते का राजा शूद्रक के महल में प्रवेश का उल्लेख कर यह सिद्ध करते हैं कि 600 ई. शताब्दी तक अपवित्रता तो प्रवेश कर चुकी थी किन्तु अस्पृश्यता नहीं थी।सामाजिक समरसता निर्माण के प्रयत्न प्रारम्भ करते समय ऊ‚पर दिए वर्णन से कुछ सूत्र लिए जा सकते हैं। पहला यह कि संगत व पंगत एक होने से पूर्ण समरसता नहीं आ सकती है, सामाजिक बराबरी आवश्यक है। शूद्र व अदर कास्ट यानी आज की अनुसूचित जातियों के अन्तर को समझना चाहिए। इनको शूद्र श्रेणी में रखना उचित नहीं है। अस्पृश्यता व अपवित्रता के अन्तर को समझना चाहिए। दोनों को एक मानना उचित नहीं है।10

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