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संस्कृति-सत्य

by
Nov 2, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Nov 2007 00:00:00

वे आजाद ही थे!वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”ढिमरपुरा ग्राम (झांसी) सातार नदी किनारे बसा है। उसी नदी-तट पर हनुमान जी का एक मन्दिर था- जिसके समीप एक कुटियानुमा कोठरी भी बनी थी। उन दिनों चन्द्रशेखर आजाद, जो ब्रिटिश सरकार की घोषणा के अनुसार “फरार क्रांतिकारी” थे, बाल ब्राह्मचारी “हरिशंकर” नाम से उस कोठरी में रह रहे थे। इसके पूर्व आजाद झांसी में मास्टर रुद्र नारायण के यहां रहे थे। जब आजाद को लगा कि झांसी में रहना खतरे से खाली नहीं, तो उन्होंने कमर पर मात्र एक लंगोटी लगाकर, मूंज की मेखला कमर में कसकर, ऊपर से मात्र एक कम्बल ओढ़े हुए मन्दिर की उसी कुटिया में डेरा डाल दिया। उनका कुल सामान था एक कम्बल और रामायण की एक छोटी पोथी। भोजन का कोई प्रबंध था नहीं। “सबके दाताराम” की कहावत ही उन दिनों आजाद पर चरितार्थ हो रही थी। बीच-बीच में कभी ओरछा चले जाया करते थे।एक दिन “ब्राह्मचारी महाराज” (अर्थात् आजाद) ओरछा से ढिमरपुरा वापस आ रहे थे। उनके साथ एक और फक्कड़ बाबा थे। रास्ते में ही एक जगह कहीं से दो पुलिस वाले आ गए। सिपाहियों ने टोका-टाकी शुरू कर दी, पूछा आजाद से, “कौन हो? कहां से आ रहे हो? जाओगे कहां? क्या नाम है?” आजाद सुनते रहे, टालते रहे, बातों में बहलाने की कोशिश भी की। पर पुलिस वाले बहुत काइयां थे। वे क्यों- क्या करने से बाज न आए। आजाद से कहने लगे- “ठहरो! तुम आगे नहीं जा सकते।” आजाद ने पूछा- “क्यों नहीं जा सकते बच्चा! क्यों साधु-संतों का रास्ता रोकते हो?” एक सिपाही ने तुक्का भिड़ाते हुए पूछा- “तू तो आजाद है, है न?” यह सुनकर हरिशंकर ब्राह्मचारी बने आजाद हंस पड़े। बोले- “वाह बच्चा! क्या बात कहीं है! अरे, हम आजाद तो हैं ही, भला हमें दुनिया के क्या बंधन! हनुमान बाबा का नाम जपते हैं और जो मिल गया, उसी में मगन रहते हैं।” सिपाही अड़ गए। कहा- “सब पता चल जाएगा, पहले तुम थाने चलो।” आजाद ने कहा- “बच्चा! क्यों साधु को सताते हो? हमें आज अभी जाकर बजरंग बली का चोला बदलना है, नया चोला चढ़ाएंगे। विलंब होने से हनुमान जी कोप करेंगे बच्चा!” सिपाहियों ने कहा, “तुम्हें थाने तो चलना ही पड़ेगा, चोला बाद में चढ़ाना।” पर आजाद क्रुद्ध होकर बोले- “क्यों चलें, तुम्हारा दरोगा हमारे हनुमान जी के आगे क्या है जो हम उसे सलाम करने जाएं। तुम्हारे दरोगा से हमारे हनुमान जी कहीं ऊंचे हैं- पहले हैं। हम तो उन्हीं की आज्ञा सर माथे धरते हैं। अपने दरोगा-फरोगा का फरमान तुम बजाओ।” और क्रोध से लाल-पीले होते ब्राह्मचारी जी ये गए, वो गए। तब एक सिपाही ने दूसरे सिपाही से यह कहकर संतोष कर लिया, “जा पर तो महावीर जू को सत्त आ गयो दिखे मुझे।” और वे सिपाही अपनी राह लगे।18

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