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मंथन

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Nov 2, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Nov 2007 00:00:00

लोकतंत्र बनाम वंशवाद में गांधी कहां?देवेन्द्र स्वरूप26जनवरी और 30 जनवरी के बीच केवल चार दिन का फासला है। 1950 के पूर्व हम 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते थे और तब से गणतंत्र दिवस के रूप में मना रहे हैं। 30 जनवरी को हम गांधीजी की पुण्य तिथि के रूप में स्मरण करते हैं। जैसे जैसे गणतंत्र की यात्रा आगे बढ़ रही है इन दोनों दिवसों की नजदीकी नया अर्थ और महत्व ग्रहण करती जा रही है। गणतंत्र या लोकतंत्र भारत की सहस्राब्दियों लम्बी इतिहास यात्रा में से उपजी लोकतांत्रिक चेतना की सहज अभिव्यक्ति थी। ब्रिटिश अधिनायकवादी सत्ता के विरुद्ध भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की एक मुख्य प्रेरणा थी लोकतंत्र की पुनस्र्थापना। ब्रिटिश लोकतंत्र की चमक-दमक से प्रभावित होकर हमारे अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त बौद्धिक और राजनीतिक नेतृत्व ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को ही लोकतंत्र का आदर्श मान लिया। स्वाधीन भारत के लिए संविधान की रचना करने के लिए जो संविधान सभा बनी उसमें ऐसे मस्तिष्कों का भारी बहुमत था, जो देशभक्त तो थे किन्तु ब्रिटिश राजनीतिक प्रणाली को ही सर्वोत्तम मानते थे। स्व. कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी, जिनकी संविधान सभा में बड़ी सक्रिय और प्रभावी भूमिका रही, ने कुछ वर्ष बाद यह माना कि हम लोग ब्रिटिश न्यायिक प्रणाली का अंग रहे थे इसलिए उसके बाहर हमारा मस्तिष्क सोच ही नहीं सकता था। इस ईमानदार विश्वास में से यह संविधान बना और स्वाधीन भारत ने उसे अंगीकार कर लिया। स्वाधीनता आंदोलन के उदात्त आदर्शों और लक्ष्यों को हमने संविधान की अद्देशिका और निदेशक सिद्धांतों में लिपिबद्ध कर दिया।इस संवैधानिक मार्ग पर चलते स्वाधीन भारत के 60 वर्ष पूरे हो रहे हैं। पर, अब सब महसूस कर रहे हैं कि हम अपने आदर्शों और लक्ष्यों के निकट पहुंचने के बजाय उत्तरोत्तर उनसे दूर होते ज रहे हैं, बल्कि उलटी दिशा में जाते दिख रहे हैं। एक सहिष्णु, अहिंसक और नैतिक समाज बनने के बजाय कामुक, हिंसक और भ्रष्टाचारी समाज बन रहे हैं। विश्व बन्धुत्व के आदर्श की ओर बढ़ाने वाली अखिल भारतीय राष्ट्रीय चेतना को सुदृढ़ करने के बजाए जाति, क्षेत्र, भाषा और पृथकतावाद की दलदल में फंसते जा रहे हैं। यह सामाजिक विभाजन राजनीतिक विखंडन का रूप धारण कर गया है। अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के प्रति निष्ठावान द्विदलीय राजनीतिक व्यवस्था के बजाए व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में से उपजे अनेक छोटे-छोटे जातिवादी, क्षेत्रवादी, राजनीतिक दलों के गठबंधन की अवसरवादी राजनीति के जाल में फंस गये हैं। संसदीय लोकतंत्र के सब खम्भे-विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चौथा मीडिया भी अपनी-अपनी जगह हिल चुके हैं, चरमरा रहे हैं, विधायिका और न्यायपालिका एक-दूसरे के सामने खड़ी दिखाई दे रही हैं। विभाजनकारी वोट बैंक राजनीति के बन्दी बने राजनेता एवं राजनीतिक दल उनकी भ्रष्टाचारी, विभाजनकारी, राष्ट्रघाती राजनीति पर अंकुश लगाने का साहस दिखाने वाली न्यायपालिका को अपना शत्रु मान बैठे हैं। राष्ट्र हित में लिए गए उसके निर्णयों को अधिकार सीमा का अतिक्रमण कह रहे हैं। और संसद की सर्वोच्चता के नाम पर न्यायपालिका पर आक्रमण की रणनीति बना रहे हैं। क्या न्यायपालिका अकेले इस आक्रमण का मुकाबला कर पाएगी? कार्यपालिका के दोनों अंगों-प्रशासन और पुलिस पर विधायिका यानी राजनीतिक नेतृत्व का नियंत्रण है। उनके सहयोग के बिना न्यायपालिका पंगु और शक्तिहीन स्थिति में है। ऐसी स्थिति में जागरूक जनमन ही न्यायपालिका की शक्ति बन सकता है। किन्तु यदि समाज ही जाति, क्षेत्र और दलों के आधार पर विभाजित हो चुका हो तो उसे जगाने और एक्यबद्ध कौन करेगा? मीडिया को लोकतंत्र का प्रहरी और लोक जागरण का शंखनाद कहा जाता है। क्या वह अपनी भूमिका निभाने की मन:स्थिति में है? क्या 26 जनवरी को गतणतंत्र दिवस पर गणतंत्र के अस्तित्व पर छाये संकट का मीडिया ने तथ्यात्मक आकलन और विश्लेषण किया? मुझे तो खोखले स्तुतिगान के अतिरिक्त आत्मालोचन का कोई गंभीर स्वर सुनाई नहीं पड़ा।गांधी जी का सीढ़ी की तरह इस्तेमालयदि हुआ होता तो चार दिन बाद गांधी जी की पुण्यतिथि पर हम गांधी जी के उन विचारों, आदर्शों और आचरण के मानदंडों का स्मरण करते जिनको उन्होंने भारत के सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया, जिनका जीवित प्रतिनिधि होने के कारण ही भारतीय लोकमानस ने उन्हें महात्मा के रूप में देखा और जिनके कारण ही सत्ता और पद से दूर रह कर भी स्वतंत्रता आंदोलन के एकमात्र दर्शनकार एवं प्रेरक पुरुष बन सके। भारतीय जनमानस पर उनकी गहरी पकड़ ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति थी, उनकी इस शक्ति के कारण ही जवाहरलाल नेहरू जैसे सत्ताकांक्षी राजनेता उनके सामने नतमस्तक थे। नेहरू ने अपने पत्रों और आत्मकथा में स्वीकार किया है कि गांधी के आर्थिक व सामाजिक आदर्श उन्हें स्वीकार्य नहीं हैं। गांधीजी की लोकतंत्र की स्वदेशी रूपरेखा से भी नेहरू सहमत नहीं थे, किन्तु साथ ही उन्होंने यह भी लिखित रूप से स्वीकार किया है कि गांधी के विचारों से मतभेद रखते हुए भी गांधी के नेतृत्व में चलना उनकी मजबूरी है। नेहरू का तर्क था कि मेरे अपने विचारों के क्रियान्वयन के लिए भारत का स्वतंत्र होना आवश्यक है, एक प्रबल विशाल जनान्दोलन के बिना भारत की स्तवंत्रता संभव नहीं है, और ऐसा जनान्दोलन खड़ा करने की क्षमता अकेले गांधी के पास है क्योंकि गांधी ही लाखों गांवों में बिखरे गरीबों, अशिक्षित किसानों व पढ़े-लिखे शहरियों को अहिंसक संघर्ष और बलिदान की प्रेरणा दे सकते हैं। इस कथन में अतिशयोक्ति नहीं है कि अपने इस आन्तरिक भाव के कारण नेहरू परिवार ने विचारपूर्वक गांधी का सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया। जवाहरलाल नेहरू तीन बार कांग्रेस अध्यक्ष बने 1929, 1936 एवं 1946 और तीनों बार दस्तावेजों की साक्षी है कि वे कांग्रेस के बहुमत की प्रगट इच्छा के विरुद्ध गांधी जी की कृपा के कारण ही कांग्रेस अध्यक्ष बन पाये। 1928 में जब गांधी जी ने वैचारिक मतभेद के कारण उन्हें विद्रोह का झंडा फहराने की इजाजत दे दी थी तब उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने पत्र लिखकर गांधी जी से उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष पद देने का अनुरोध किया था। 1946 की कहानी तो हम पिछले अंक में लिख ही चुके हैं।नेहरू जी गांधी जी को सीढ़ी बनाकर सत्ता की ओर आगे तो बढ़ते रहे किन्तु गांधी जी की जिस अध्यात्म दृष्टि और स्वदेशी निष्ठा ने उन्हें भारतीय लोकमानस में “महात्मा” का स्थान दिया था, उसे नेहरू जी ने कभी आत्मसात नहीं किया, न आर्थिक रचना के क्षेत्र में, न भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा में और न राजनीतिक संरचना में। गांधी जी ने पश्चिम के भौतिकवादी जीवनदर्शन, उसमें से उपजी उपभोग प्रधान मशीनी औद्योगिक सभ्यता और सभ्यता की अंगभूत शिक्षा प्रणाली व आर्थिक-राजनीतिक संरचना को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया था। उन्होंने 1909 में द. अफ्रीका में ही ब्रिटिश संसद को वेश्या और ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को अनुपयुक्त घोषित कर दिया था। ग्राम पंचायत को इकाई मान कर उन्होंने गांव से केन्द्र तक पिरामिडनुमा राजनीतिक व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत किया था। उसे नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा में सोवियत रूस की अधिनायकवादी रचना की अनुकृति घोषित कर दिया। इतिहास की कितनी बड़ी त्रासदी है कि जिस महात्मा गांधी के नेतृत्व ने कांग्रेस को सत्ता के द्वार में प्रवेश कराया उस गांधी का स्वाधीन भारत के संविधान निर्माण में कोई योगदान नहीं था। 1946 में ही श्रीमननारायण ने गांधी जी की पूरी सहमति से संविधान की जो रूपरेखा प्रकाशित की उसकी संविधान सभा में चर्चा तक नहीं हुई। स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणाओं और लक्ष्यों का संविधान के प्रारंभ में शाब्दिक उल्लेख तो हुआ पर उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का रास्ता उलटा चुना गया। भारत आज स्वयं को जिस दिशाहीन, प्रवाह पतित स्थिति में पा रहा है उसकी जड़ यही है।वंशवादी राजनीतिगांधी जी की पुण्यतिथि पर हमें उनके विचारों, आदर्शों और जीवन शैली का जो गहन अध्ययन करना चाहिए था, वह नहीं किया गया। गांधी को वंशवादी राजनीति के हथियार की तरह इस्तेमाल करने का घृणित प्रयास हुआ। दिल्ली में सरकार की ओर से सरकारी खजाने से गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी के नाम पर एक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन किया गया, जिसमें गांधी का चिंतन और आदर्श कहीं नहीं थे। उस पर वंशवादी राजनीति छायी हुई थी। हिंदी और अंग्रेजी के बड़े-बड़े अखबारों ने शीर्षक दिये कि राहुल गांधी इस सम्मेलन में भाग लेने जा रहे हैं। सम्मेलन में बार-बार उन्हीं का चित्र छापा गया कभी किसी नोबेल पुरस्कार विजेता के साथ, कभी दूसरे के साथ। उस सम्मेलन पर सोनिया और उनका बेटा ही छाये रहे। मानो गांधीवाद के सबसे बड़े अधिकारी प्रतिनिधि वही हों। गांधी जी ने सत्याग्रह के शस्त्र का प्रयोग सरकार के विरुद्ध किया था, उसकी मुख्य शक्ति आत्मबल में थी पर यहां सरकार ने ही “सत्याग्रह” शब्द को अपना लिया पर किसके विरुद्ध, किस उद्देश्य के लिए, यह किसी को पता नहीं चला। गांधी ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार को हिटलर का सशस्त्र प्रतिकार करने से रोकना चाहा था, तो सोनिया ने आणविक हथियारों की वकालत की। गांधी दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार के अत्याचारों के विरुद्ध अकेले निहत्थे खम ठोंककर खड़े हो गए थे, तो इस सम्मेलन में नोबेल पुरस्कार विजेता, दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरुद्ध युद्ध के नायक आर्च बिशप डेस्मोंड टुटु, जिन्हें 2005 में गांधी शांति पुरस्कार से अलंकृत किया गया था, ने जब उन्हें तिब्बत की आजादी का आह्वान किया तो सोनिया चालित सरकार को पसीने आ गए। उसने तुरन्त सफाई जारी की कि यह टुटु का व्यक्तिगत मत था, सम्मेलन का नहीं। सम्मेलन के पीछे की वंशवादी राजनीति इसी से स्पष्ट है कि इस सम्मेलन से गांधी के जीवन दर्शन और स्वदेशी विचारधारा को स्वीकार करने वाली भारतीय जनता पार्टी को तो बाहर रखा गया, किन्तु गांधी की विचारधारा और कार्यक्रम को पूरी तरह ठुकराने वाली, गांधीवाद की शव-परीक्षा करने वाली “भाजपा रोको पार्टी” (माकपा) को सम्मेलन में बैठाया गया।कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि सोनिया की वंशवादी पार्टी गांधी की कांग्रेस की विरासत का अपहरण करने पर तुली है। गांधी ने स्वाधीनता मिलते ही कांग्रेस को भंग करने का लिखित आदेश दिया था पर उनके आदेश का उल्लंघन कर कांग्रेस को जिन्दा रखा गया और उसका नेहरूवंशकरण किया गया। मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया, जवाहर लाल ने इन्दिरा गांधी को 1959 में कांग्रेस अध्यक्ष बनाया, इन्दिरा ने 1969 में कांग्रेस विभाजन की स्थिति पैदा कर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े नेताओं को बाहर खदेड़कर इन्दिरा कांग्रेस बनायी, अपने पुत्र संजय गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद राजीव गांधी को राजनीति में स्थापित किया, राजीव गांधी की पत्नी बन कर सोनिया माईनो ने नेहरू वंश की विरासत को हथिया लिया है और अब उनकी वंशवादी पार्टी राहुल को कन्धे पर उठाये घूम रही है।नेहरू वंश के इस राजनीतिक उत्कर्ष को देखकर गांधी जी के कुछ वंशजों में भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जाग्रत हो गई है। गांधी जी के पौत्र और राजगोपालाचारी के दौहित्र राजमोहन गांधी और गांधी जी के एक प्रपौत्र तुषार गांधी में इस दृष्टि से होड़ प्रारंभ हो गई है। दोनों गांधी जी के नाम को बेचने की कोशिश में लगे हैं। राजमोहन ने 1980 में जबलपुर से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़ा था, 1989 में वी.पी.सिंह की तरफ से अमेठी में राजीव गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ा पर वे दोनों बार हारे। अब उन्होंने गांधी के बारे में अपनी विवादास्पद पुस्तक का लोकार्पण सोनिया गांधी से कराया। अर्थात् वे पलटी खा गये हैं। यद्यपि वे अमरीका की इलिनायस यूनीवर्सिटी में पढ़ा रहे हैं तथापि गांधी के नाम को भुनाने और सोनिया से नजदीकी बढ़ाने की उनकी कोशिश तुषार गांधी को पसंद नहीं आयी है। उन्होंने खुलकर राजमोहन गांधी की पुस्तक की आलोचना की है और उन पर सस्ती लोकप्रियता कमाने का आरोप लगाया है।नाम भुनाने की कोशिशवैसे स्वयं तुषार भी गांधी जी के चिन्तन, आदर्शों और जीवनशैली से उतने ही अनभिज्ञ हैं जितने सोनिया पुत्र राहुल। उन्हें लगता है कि यदि राजमोहन गांधी अपनी नई पुस्तक में सरला चौधुरानी प्रकरण का उल्लेख न करते तो दुनिया को उसका पता ही नहीं चलता। उन्हें यह मालूम ही नहीं कि उसके पहले ही कितनी ही बार बड़े विस्तार से वह प्रकरण प्रकाशित हो चुका है और स्वयं गांधी जी के सरला चौधुरानी के पत्र उपलब्ध हैं। तुषार भी चुनाव मैदान में हार का मुंह देख चुके हैं और अब वे सोनिया पार्टी की पूंछ पकड़कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरा करने के चक्कर में लगते हैं। “लेट अस किल गांधी” जैसे उत्तेजक शीर्षक से पुस्तक प्रकाशित कर वे भी गांधी के नाम को भुनाने में लगे हुए हैं। गांधी के प्रपौत्र होने के नाते वे स्वयं को गांधीवाद के प्रवक्ता के नाते टी.वी और मंचों पर जाना पसंद करते हैं। किन्तु एक बार एन.डी.टी.वी. के मुकाबले कार्यक्रम में गांधी जी पर बहस के दौरान मैंने पाया कि उन्हें गांधी का क,ख,ग नहीं आता और उनके अंदर केवल घृणा और विद्वेष भरा हुआ है। मेरा उस समय का यह आकलन अब खुलकर सामने आ गया है। उन्होंने सोनिया पार्टी के लिए प्रचार करने की घोषणा कर दी है और गांधी हत्या के लिए पुणे के ब्राह्मणों को सार्वजनिक तौर पर अपराधी ठहराया है। घृणा और विद्वेष से भरा ऐसा व्यक्ति क्या केवल खून के रिश्ते से गांधी का उत्तराधिकारी माना जा सकता है? जो हरिलाल काका को अपना नया हीरो माने, उन्हें गांधी जी का नाम लेने का क्या अधिकार है? हरिलाल यानी गांधी जी का बड़ा बेटा, जो गांधी का बागी बनकर शराब-कबाब और वेश्याचार में डूब गया, जो इस्लाम की गोद में चला गया और गांधी जी के लिए भारी मानसिक पीड़ा का कारण बना। आज जब भारतीय राजनीति में लोकतंत्र और वंशवाद का संघर्ष निर्णायक दौर में है, विकेन्द्रित लोकतंत्र के पुरस्कर्ता महात्मा गांधी दो-दो वंशवादों के घेरे में हैं। क्या गांधी जी इस घेरे को तोड़ पायेंगे? (2 फरवरी, 2007)26

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