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पाठकीय

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Nov 2, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Nov 2007 00:00:00

अंक-सन्दर्भ, 14 जनवरी, 2007पञ्चांगसंवत् 2063 वि. – वार ई. सन् 2007फाल्गुल कृष्ण 9 रवि 11 फरवरी, 07″” 10 सोम 12 “””” 11 मंगल 13 “”(कुम्भ संक्रांति)”” 12 बुध 14 “””” 13 गुरु 15 “”(प्रदोष व्रत)”” 14 शुक्र 16 “”(महाशिवरात्रि)फाल्गुन अमावस्या — शनि 17 “”वामपंथ की नई चालसड़कों पर आ जाएगी, अब टाटा की कारशुरू हुआ सिंगूर में, उनका कारोबार।उनका कारोबार, ठग गयी सारी जनताकहां गये आश्वासन, सोच रही हैं ममता।कह “प्रशांत” यह वामपंथ की नई चाल हैइसीलिए बंगाल प्रांत का बुरा हाल है।।-प्रशांतनिठारी की पुलिससमाज-रक्षक या समाज-भक्षकआवरण कथा के अन्तर्गत श्री आलोक गोस्वामी की रपट “अमीरों की पुलिस, गरीबों को कंकाल” ने यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर मनुष्य राक्षस जैसा व्यवहार क्यों करने लगा है? निठारी काण्ड के आरोपियों ने मानवता की सारी हदें पार कर दी थीं। पर आश्चर्य कि इसकी भनक तक पुलिस-प्रशासन को नहीं लगी। क्या ऐसा हो सकता है? मेरे विचार से तो बिल्कुल नहीं। इस काण्ड के आरोपियों को अवश्य ही कहीं से संरक्षण प्राप्त था।-विशाल कुमार जैन184, कटरा मशरू, दरीबा कला, चांदनी चौक (दिल्ली)पुलिस ने शिकायतों को गम्भीरता से लिया होता, तो निठारी के अपराधियों को शीघ्र पकड़ा जा सकता था और अनेक नौनिहालों की जान बचायी जा सकती थी। क्या गरीबों को न्याय पाने का अधिकार नहीं है? क्या पुलिस केवल नेताओं, अपराधियों और अमीरों के सामने दुम हिलाने के लिए है? अगर गरीबों को पुलिस की सहायता नहीं मिलेगी तो वे कहां जायेंगे? अब समय आ गया है कि हम पुलिस की भूमिका पर गहराई से विचार करें और उसको मानवीय रूप दें।-विजय कुमार सिंघल144, सेक्टर 12-ए, पंचकुला (हरियाणा)हमारी पुलिस तो अंग्रेजों की पुलिस से भी अधिक पाशविक नजर आती है, लेकिन केवल गरीबों व आम लोगों के लिए। बड़े लोग पुलिस को जैसा चाहें वैसा घूमा लेते हैं। निठारी में तो लोगों ने पुलिस को बार-बार आगाह किया था, लेकिन पुलिस ने आम लोगों की फरियाद नहीं सुनी। आम आदमी आज भी पुलिस में किसी प्रकार की शिकायत करने से कतराता है। दोषी पुलिसकर्मियों को भी वही सजा मिलनी चाहिए जो इन नरपिशाचों को मिलेगी।-वीरेन्द्र सिंह जरयाल28-ए, शिवपुरी विस्तार, कृष्ण नगर (दिल्ली)निठारी काण्ड के आरोपियों मोनिन्दर एवं सुरेन्द्र के चंगुल में जो भी आया उसकी उन्होंने बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। इन दोनों आदमखोरों की जितनी भी भत्र्सना की जाए कम है। अब तक प्राप्त समाचारों से इस काण्ड में पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध लगती है। इसलिए जितने दोषी ये दोनों आदमखोर हैं उतने ही वे पुलिस वाले भी हैं, जिन्होंने इस काण्ड पर पर्दा डालने की कोशिश की। इन पुलिस वालों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।-दिनेश गुप्तपिलखुवा (उ.प्र.)इस युग में निठारी जैसा काण्ड भी हो सकता है, यह कभी सोचा भी नहीं जा सकता था। ऐसी घटनाओं के लिए एक सीमा तक हमारी शिक्षा-प्रणाली भी जिम्मेदार है। आज हम आधुनिकता के दौर में ऐसे फंस गए हैं कि मानवीय मूल्यों को भी भूलते जा रहे हैं। हम अपनी संस्कृति, विचारधारा और संस्कार से दूर हो रहे हैं और इसी को आगे बढ़ना कहा जा रहा है।-संदीप कुमार सिंहचकवाजा, पटेढ़ी-बेलशर, वैशाली (बिहार)निठारी काण्ड के मुख्य आरोपी मोनिन्दर की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली के एक नामी शिक्षण संस्थान में अंग्रेजी माध्यम से हुई थी। उसने भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में भी भाग्य आजमाया था। ये जानकारियां खुद उसके पुत्र ने मीडिया वालों को दी हैं। इससे पता चलता है कि अंग्रेजी माध्यम के बड़े शिक्षण संस्थानों से पढ़ाई करके निकले छात्रों में भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीयता के उदात्त भावों का ह्मास होता जा रहा है। पुलिस विभाग निश्चित रूप से अपेक्षित दायित्व का निर्वहन नहीं कर रहा है। नोएडा जैसी जगह में ऐसा काण्ड हो और पुलिस को पता ही न चले, यह विश्वास करने योग्य बात नहीं है।-क्षत्रिय देवलालउज्जैन कुटीर, अड्डी बंगला, झुमरी तलैया, कोडरमा (झारखण्ड)सद्दाम के हिमायती?मंथन स्तम्भ में श्री देवेन्द्र स्वरूप का लेख “मुस्लिम वोटों के लिए सद्दाम का मातम” पढ़ा। सच में निठारी में जब मानव कंकाल निकल रहे थे उस समय मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव निठारी न आकर अमर सिंह के साथ सद्दाम के समर्थन में रणनीति बना रहे थे। निश्चित रूप से उन्हें सद्दाम की फांसी वोट बैंक को मजबूत करने का एक और अवसर दे गई है। सद्दाम की सजा को लेकर सुन्नी मुसलमानों का अमरीका के प्रति आक्रोश निराधार है, क्योंकि सजा देने वाले निर्णायक मण्डल में एक भी अमरीकी शामिल नहीं था।-दिलीप शर्मा114/2205, एम.एच.वी. कालोनी, समता नगर, कांदीवली पूर्व, मुम्बई (महराष्ट्र)अपने शासनकाल में सद्दाम ने शिया मुसलमानों एवं कुर्दों पर खूब जुल्म ढाए थे। सत्ता के लिए सद्दाम ने अपने कई रिश्तेदारों की हत्या करवाई थी। यहां तक कहते हैं कि अपने दोनों दामादों की भी उन्होंने हत्या करवाई और अपनी बेटियों को विधवा बनवाया। क्या एक पिता अपनी बेटी के साथ ऐसा कर सकता है?-प्रमोद वालसांगकर1-10-19, रोड नं. 8ए, द्वारकापुरम, दिलसुखनगर, हैदराबाद (आं.प्र.)वरिष्ठ पत्रकार श्री सईद नकवी ने सद्दाम की फांसी पर कहा है कि “न मुस्लिम देशों में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, न भारत में।” उन्होंने इस मामले में भारत सरकार के बयान को भी चालाकी भरा एवं कायरता दर्शाने वाला बताया। भारत ने सदा अरब जगत का समर्थन किया है। भारत ने सद्दाम को फांसी न देने की भी अपील की थी। उन्हें समझना चाहिए कि भारत तो किसी देश से अपील ही कर सकता है, हस्तक्षेप नहीं।-बी.एल. सचदेवा263, आई.एन.ए. मार्केट (नई दिल्ली)विशेष पत्रये वो दर्द है, जो दुश्मन को भी न मिलेहाल ही में वीर सावरकर के नाती प्रफुल्ल माधव चिपलूणकर पुणे की सड़कों पर डेरा डाले पाये गये। कुछ साल पहले अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की वृद्धा बहन को एक चाय की दुकान पर जूठे कप धोते हुए देखा गया था। चन्द्रशेखर आजाद की माता जी ने भी तंगहाल जीवन गुजारा।अनेक क्रांतिकारियों ने स्वयं भी आजादी के बाद जैसी समस्याएं झेलीं, वे हमें एक कृतघ्न राष्ट्र घोषित करती हैं। भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों की नजरों में स्वतंत्रता संग्राम महज गांधी-नेहरू केन्द्रित था। उनके लिए तमाम विप्लव-मार्गी तो बस सिरफिरे पागल थे। इसलिए उनके प्रति कोई कृतज्ञता या सम्मान कैसा? शायद इसीलिए आकाशवाणी और दूरदर्शन पर इनके नामों तक का उल्लेख 1968 तक नहीं होता था। जिन फिल्मी गानों में भी आजाद-भगत सिंह आदि क्रांतिकारियों के नाम होते थे, उनका प्रसारण नहीं किया जाता था।जंगे-आजादी के अग्रणी अखबार “स्वराज्य” के क्रांतिकारी संपादक श्री अमीरचन्द्र बम्बवाल, जिन्हें सवा सौ साल और श्री लद्धाराम, जिन्हें तीस साल के कालापानी की सजाएं हुईं, 1947 के बाद कोई मान्यता या सम्मान तो पा ही न सके, वरन् गरीबी-भुखमरी ही झेला। दोनों ही साठ के दशक में देह त्यागते हुए कह गये- ये वो दर्द है, जो दुश्मन को भी न मिले। दिल्ली की सेन्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह के साथ मिलकर 8 अप्रैल, 1929 को बम फेंकने वाले बटुकेश्वर दत्त 1947 में रिहा हुए। पेट पालने के लिए उन्हें एक सिगरेट कम्पनी की एजेंटगिरी करनी पड़ी। सन् 1965 में 55 वर्ष की आयु में वे दुनिया छोड़ गये।आजाद-भगत सिंह के विश्वस्त साथियों- विश्वनाथ वैशंपायन और काशीराम-की भी यही कहानी है। इन्होंने भी क्रमश: 8 साल और 7 साल तक अण्दमान का नर्क भुगता था। चन्द्र सिंह गढ़वाली पेशावर काण्ड में 12 साल के लिए कालापानी भेजे गये थे। हरिपद भट्टाचार्य चटगांव में एक अत्याचारी डी.एस.पी. को मारकर मात्र 15 वर्ष की आयु में अण्दमान जेल पहुंचे। नाबालिग थे, अत: फांसी नहीं हो सकती थी। उपरोक्त क्रांतिकारियों ने आजादी के बाद घोर अर्थाभाव और उपेक्षा, यहां तक कि शासन की प्रताड़ना भी झेली थी। चन्द्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारियों की स्वातंत्र्योत्तर दशा शायद पहले ही भांपकर कह दिया था- “शहीदों की चिताओं पर पड़ेंगे राख और ढेले। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।”-अजय मित्तलखन्दक, मेरठ (उ.प्र.)4

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