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रविदास जयन्ती (2 फरवरी) पर पुण्य स्मरणसंतों के शिरोमणिआदि काल से वर्तमान तक इस पवित्र भारत भूमि पर अनेक सन्तों-महापुरुषों ने जन्म लेकर मानव जाति का कल्याण किया है। उन्होंने सांसारिक जीवों को उपदेश देकर चौरासी लाख योनियों के चक्र से मुक्त होने के उपाय बताए। इन सन्तों-महापुरुषों की एक लम्बी श्रृंखला है। इसी कड़ी में सन्त शिरोमणि रविदास जी भी हैं। धार्मिक नगरी काशी के निकट एक गांव में एक चर्मकार परिवार में सम्वत् 1433 की माघ पूर्णिमा को रविदास का जन्म हुआ। इनके माता-पिता रघु एवं करमा धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उनके माता हर क्षण भगवान श्रीराम का स्मरण करती थीं। नित्य-प्रति गंगा स्नान करके ठाकुर जी की पूजा करती थीं। रविदास भी अपना चर्मकार का पारिवारिक कार्य बड़ी लगन से करते थे, पर चमड़े की रंगाई और इसकी वस्तुएं बनाते समय वे भगवत् भजन और साधना करते रहते। कभी-कभी साधना में इतने लीन हो जाते कि समय की सुध ही नहीं रहती। उनके इस तरह के व्यवहार से परिवार वाले चिन्तित हो गए। विचार करने लगे कि कहीं बालक पर वैराग्य प्रभावी न हो जाए। इसलिए बचपन में ही उनका विवाह कर दिया। परन्तु विवाह होने पर भी रविदास की ईश्वर भक्ति में कोई व्यवधान नहीं आया, बल्कि उनकी पत्नी भी उन्हीं के रंग में रंग गयी। वे महान सन्त स्वामी रामानन्द के शिष्य बने। गुरुनानक, कबीर, नामदेव, धन्ना तथा मीराबाई के साथ मिलकर समाज जागरण में लगे रहे।रामानन्द मोहि गुरु मिलयो, पायो ब्राह्म विसास।राम नाम अमि पियो, रैदास ही भयो पलास।।गुरु रविदास के समय में महिलाओं की स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में नारी को निम्न दृष्टि से देखा जाता था। संत रविदास ने इस सामाजिक कुरीति का जबरदस्त विरोध किया। इस बुराई को समाप्त करने के लिए उन्होंने सत्संग करने की प्रथा प्रारम्भ की। उन्होंने सत्संग में महिलाओं को शामिल करने के लिए मीरा की तरह भजन गाने शुरू कर दिए। सत्संग की परम्परा को प्रारंभ कर उन्होंने स्त्री को समाज में प्रतिष्ठित करा दिया। जाति-पाति, ऊंच-नीच आदि के विचार संत रविदास की दृष्टि में उसी तरह दिखते हैं जैसे केले के वृक्ष में स्थित पत्ते के भीतर पत्ता होता है। यही कारण था कि संत रविदास जी ने सन्तों का भी मार्गदर्शन करते हुए उन्हें भी जाति-पाति के भेदभाव से ऊ‚पर उठकर मनुष्य के लिए सोचने का संदेश दिया-संतन के मन होत है, सबके हित की बात,घट-घट देखै अलक को, पूछे जात न पात।सन्त रविदास की मान्यता थी कि जैसे ईश्वर एक हैं उसी प्रकार जिनके ह्मदय में ईश्वर का वास होता है, वे मनुष्य भी एक हैं, तब उनमें यह भेदभाव कैसा? मानवता की लड़ाई में वे अहिंसक योद्धा की भांति निश्छल आस्था एवं पूर्ण समर्पण की भावना जैसे सर्व-समर्थ अस्त्रों को लेकर चले। इन सबका बोझ उससे कम था जो बाहरी आडम्बर में जटिल धार्मिक विद्वता एवं मिथ्या अहंकार के रूप में दिखाई देती है। फलत: रविदास के अस्त्र इस युद्ध में सफल सिद्ध हुए।सन्त रविदास जैसे महापुरुषों का अवतरण युगो-युगों के पश्चात होता है। अपने लिए तो सभी जीते हैं, दूसरों के लिए जीने वाले विरले ही होते हैं, वे ही सन्त शिरोमणि कहलाते हैं और युगों तक याद किए जाते हैं। कमल मालवीय24
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