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यह शौर्य दिखाने की बेलादलित समाज हमारा पूज्य समाज है, वे हमारे धर्म स्वातंत्र्य सेनानी हैं उन्होंने जितने कष्ट सहे उन्हें देखते हुए वे सबसे बड़े पद पर भी पहुंचे तो भी वह कम होगारामसेतु रक्षा के प्रश्न पर भारत के सर्व सामान्य देशभक्त समाज का जागरण एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया है। इस दिशा में देशभर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा तथा अन्य अनेक आध्यात्मिक संगठनों ने मिलकर जो बीड़ा उठाया है उसके प्रयास सामने आने लगे हैं। यह भारतीय समाज की शताब्दियों पुरानी दुर्बलता और एकजुटता के अभाव का ही परिणाम है कि जिस प्रश्न पर स्वत:स्फूर्त आन्दोलन खड़े हो जाने चाहिए थे उस पर समाज को झकझोर कर जगाने और उसकी नींद उड़ाने के लिए चुनौतियों का सम्यक आभास कराने वाले नगाड़े बजाए जाने की जरूरत हो रही है। इस बारे में विश्व हिन्दू परिषद के अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल से तरुण विजय की बातचीत के मुख्य अंश यहां प्रस्तुत किए जा रहे हैं।क्या कारण है कि हिन्दू संगठनों के दशाब्दियों पुराने समाज प्रबोधन के बावजूद रामसेतु के प्रश्न पर जनमन जागृत करने का महत प्रयास आवश्यक हो गया है?सदियों से हिन्दू समाज सोया रहा है। उसकी तंद्रा अवस्था धीरे -धीरे टूट रही है। पिछली शताब्दि में अनेक महापुरुषों ने हिन्दू समाज को जगाने के जो बड़े प्रयास किए उसका परिणाम भी दिख रहा है। और समाज धीरे-धीरे उठ रहा है। हिन्दू समाज की सबसे बड़ी दुर्बलता उसकी आत्मविस्मृति ही है। यह स्थिति बने रहने का एक कारण यह भी है कि जैसे सो रहे व्यक्ति को और अधिक निद्रामग्न बनाए रखने के लिए साधन जुटा दिए जाएं वैसे ही भारत के सेकुलर हिन्दू समाज की निद्रा को बनाए रखने के लिए उसे विभिन्न उपायों से सुन्न भी करते जाते हैं। इसलिए वह बार-बार उठता है और फिर सो जाता है।रामसेतु को तोड़ने के पीछे जितने भी नेता और अधिकारी जुटे हैं वे भी तो अधिकांशत: हिन्दू ही हैं। तूतीकोरीन बंदरगाह ट्रट और सेतुसमुद्रम योजना के प्रमुख का तो नाम भी रघुपति है। हिन्दू के नाते जो संवेदना आपके मन में आती है वह उनके मन को स्पष्ट क्यों नहीं कर पाती?यह समझना होगा कि धर्म का वास्तविक अर्थ क्या है। मुझे ऐसा लगता है कि जिस प्रकार की शिक्षा और सेकुलर वातावरण समाज के हिन्दुओं पर थोपा जा रहा है उसके कारण उनकी मन की भावनाएं नास्तिक हो गई हैं। यानी वे आचरण से धार्मिक नहीं रह गए हैं। हमारे देश का नेतृत्व करने वालों में ऐसे नास्तिक लोगों की संख्या काफी अधिक है। वे सर्वधर्म का नारा जरूर देते हैं लेकिन वास्तव में अपने स्वार्थो की सिद्धि कर रहे हैं। बड़े सिद्धांत केवल आवरण के रूप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। ऐसा आचरण हमारे देश के सभी नेताओं में दिखता है कोई भी इससे अछूता नहीं है। दूसरे, लोकमान्य तिलक के बाद देश का जो राजनीतिक नेतृत्व सामने आया उसमें शौर्य का अभाव रहा। उसे गीता के शब्दों में क्लीव या पीछे हटने वाला नेतृत्व भी कहा जा सकता है। इस बारे में एक रोचक कथा भी कही जाती है। जब अयोध्या के निवासी श्रीराम को वनवास गमन के समय वन तक छोड़ने आए तो सीमा पर पहुंच कर श्रीराम ने उनसे प्रार्थना की कि जितने भी स्त्री पुरुष हैं वे लौट जाएं। वनवास लौटने पर जब श्रीराम पुन: लौटे तो उन्होंने देखा कि कुछ लोग अभी भी वही बैठे हुए हैं। उन्होंने पुछवाया कि आपसे तो तभी लौटने की प्रार्थना की थी फिर आप क्यों नहीं गए उन्होंने कहा कि प्रभु श्रीराम ने स्त्री और पुरुषों से कहा था कि वे लौट जाएं हम इन दोनों में ही नहीं आते। इस पर श्रीराम ने उन्हें वरदान दिया कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब कलयुग में तुम्हारा भी राज्य होगा। यह तो कथा हुई लेकिन इससे हमारे मन की व्यथा का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज राजनेताओं में शौर्य का अभाव हो गया है। अब जनता शौर्य प्रकट करेगी, बलिदान देगी। हिन्दू समाज के सामने बहुत बड़ी चुनौती खड़ी है जिसे हिन्दू समाज स्वीकार करता है।जातियों, वर्णों और ऊंच-नीच के पाखण्ड से विभाजित हिन्दू समाज आपस में ही एक दूसरे को गिराने में व्यस्त है वह चुनौती का सामना कर पाएगा?हर जगह और हर संगठन में एक या दो जाति का ही भयानक वर्चस्व दिखता है। वंचितों को समान रूपेण साथ में लाने की भी तो बात सोची जानी चाहिए। शौर्य तो उन्हीं के पास है।जिसके माध्यम से भी बलिदान और शोर्य का प्रगटीकरण हो पूरा समाज उसके पीछे खड़ा हो जाता है। हमारे समाज में आह्वान की कमी रहती है। सही आह्वान हुआ तो बलिदान की इतनी तीव्र भावना रहती है कि होड़ लग जाती है कौन अपना शरीर पहले देगा। शौर्य में हम किसी से पीछे नहीं है। ऐसा समय निकट आ रहा है जब पूरा समाज एकजुट होकर शौर्य दिखाएगा जिसमें जाति बिरादरी के सारे भेद खत्म हो जाएंगे। जैसा रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय हुआ था। तब पिछड़ा और अगड़ा कोई नहीं रहेगा केवल हिन्दू रहेगा। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणामों से भी ऐसा ही संकेत मिलता है।आपको वहां समरसता दिखी या चुनावी राजनीति?उत्तर प्रदेश के चुनावों से एक बात मैं बिल्कुल स्पष्ट महसूस कर रहा हूं वहां हमारे समाज को तोड़ने में लगी विदेशी शक्तियों का षडंत्र विफल हो गया है। कम्युनिस्ट लोग कहते थे कि जब तक सर्वहारा की खूनी क्रांति नहीं करेंगे तब तक जिन्हें वंचित और दलित कहा जाता है उनकी प्रतिष्ठा नहीं हो सकेगी। इसी प्रकार की बात ईसाई भी बोलते रहे कि दलितों को मुक्ति दिलाना हमारा धार्मिक कर्तव्य है। लेकिन मायावती जी ने उत्तर प्रदेश में जिनहें हम अपना धर्म बन्धु, धर्म स्वातंत्र्य सेनानी कहते हैं और जिन्हें दलित और वंचित भी कहा जाता है उन्हें शांतिपूर्वक सत्ता के सूत्र दिलाने में सफलता हासिल की है। आज उनके साथ ब्राह्मण भी जा रहे हैं और वे मायावती जी के चरण भी स्पर्श कर रहे हैं। यह एक बहुत बड़ा दिशा देने वाला काम हुआ। मायावती को इस बात का बहुत बड़ा श्रेय है कि उन्होंने खूनी क्रांत का नारा देने वालों को निरर्थक साबित करते हुए हिन्दू समाज में एक अभिनंदनीय सामाजिक बदलाव लाया। जो काम जगजीवन राम और रिपब्लिकन पार्टी नहीं कर सकी, जिस काम के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अनेक वर्षों से सामाजिक समरसता में जुटा रहा और काफी हद तक बढ़ा, लेकिन जिसे अन्य राजनीतिक दल नहीं कर सके, उस कार्य में मायावती शांतिपूर्वक काफी आगे बढ़ गई। उत्तर प्रदेश से एक बड़े साधारण व्यक्ति मुझसे मिलने आए थे जिन्होंने कहा कि हिन्दू में जैसी एकता मायावती ने स्थापित कर दी है वैसी एकता कोई भी स्थापित नहीं कर पाया।यदि दलितों के नेतृत्व में ब्राह्मण भी चले तो क्या आपत्ति है? जन्म लेने मात्र से जो खुद को ब्राह्मण कहे उन्होंने कौन सा पट्टा लिखवाया हुआ है?बिल्कुल ठीक मैं तो कहता हूं जिन्हें दलित कहा जाता है वे हम सबसे बड़े हैं। वे हमारे धर्म स्वातंत्र्य सेनानी है। धम के लिए उन्होंने जितना सहा उतना और किसी ने नहीं सहा। धर्म के लिए उन्होंने जितने कष्ट सहे हैं उन्हें देखते हुए उन्हें इस देश में सर्वोच्च प्रतिष्ठा और सर्वोच्च स्थान भी यदि मिलता है वह भी कम है। हमें उनके चरण स्पर्श करने चाहिए आज सब उनके चरण स्पर्श कर ही रहे हैं। उन्होंने शताब्दियों तक जो कष्ट और भेदभाव सहन किया लेकिन धर्म नहीं छोड़ा उसे देखते हुए वे हमारे पूज्य हैं। हम उनके चरण स्पर्श कर हम अपना पाप प्रक्षालन कर रहे हैं। वास्तव में यह कार्य तो स्वतंत्रता के तुरंत बाद होना चाहिए था।14
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