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हिन्दू अर्थशास्त्र ही विकल्प-ह्मदयनारायण दीक्षितभारत सनातन राष्ट्र परिवार है। पश्चिमी अर्थव्यवस्था ने इसे शोषक बाजार बनाया है। परिवार गठन का केन्द्र प्रेम है और बाजार का केन्द्र मुनाफा। यूरोपीय दृष्टि का निर्बाधावादी शोषक अर्थशास्त्र असफल हो गया है, इसी की प्रतिक्रिया में आया माक्र्सवादी अर्थशास्त्र भी ध्वस्त हो चुका। सारी दुनिया और खासतौर से भारत को अब हिन्दू अर्थशास्त्र की आवश्यकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी. सुदर्शन ने भी अर्थव्यवस्था के पश्चिमी प्रारूप की जगह हिन्दू प्रारूप की बात की है। सच है, भारत को “बाजार” बनाए जाने की अमरीकी साजिश/पश्चिमी अर्थनीति का विरोध किया जाना चाहिए।हिन्दुस्थान को विदेशी माल का बाजार बनाए जाने की साजिश पुरानी है। यूरोपीय लोगों ने यूनानी दार्शनिक प्लूटो और अरस्तू तथा उसके बाद हेगल आदि के विचार लेकर 18वीं-19वीं सदी में एशिया में अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश की। अर्थशास्त्र, व्यापार और दर्शन के क्षेत्रों में यूरोप का सामना हिन्दुस्थान से था। यूरोपीय विद्वानों ने यूरोप, एशिया और अफ्रीका जैसे देशों की तुलना में भारतीय ज्ञान-विज्ञान को तुच्छ बताया। वे भारत पर अंग्रेजी शासन का औचित्य सिद्ध कर रहे थे। आर्य भारतवासी हैं, यहां के मूल निवासी हैं, लेकिन यूरोपीय इतिहास-दृष्टि से प्रभावित कथित भारतीय सेकुलर विद्वानों ने आर्यों/हिन्दुओं को बर्बर, विदेशी आक्रांता बताया। ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ज्ञान अभिलेख है, यहां वैदिक दर्शन, उपनिषद, ब्राह्मसूत्र और गीता जैसी आदि अनादि दार्शनिक प्रतीतियां हैं। लेखकों ने ईसा के 500 वर्ष पहले शुरू यूनानी दर्शन को प्राचीन बताया। यहां ऋग्वेद, अथर्ववेद, महाभारत, उपनिषद का अर्थचिंतन और कौटिल्य के कालजयी “अर्थशास्त्र” की पूंजी है। पश्चिमी विद्वानों ने एडम स्मिथ को अर्थशास्त्र का जनक, मार्शल, पीगू को सिद्धांतकार तथा कार्ल माक्र्स को “पूंजी” श्रम का महान व्याख्याता बताया और हम मान गए। नतीजा सामने है। हिन्दू भूमि में पश्चिमी सभ्यता की आंधी है।हिन्दू जीवन रचना में “अर्थ” की विशेष भूमिका है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चार पुरुषार्थों में से एक है। यूरोप में जब अर्थचिंतन की शुरूआत भी नहीं हुई थी तब ईसा पूर्व चौथी सदी में कौटिल्य के सामने व्यापक हिन्दू अर्थचिंतन के पुरोधा मनु, बृहस्पति और उशना जैसे बड़े नाम थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की शुरूआत में ही लिखा है “नम: शुक्र बृहस्पतिभ्याम”। बृहस्पति और शुक्र किसी पारलौकिक अंध आस्था के आचार्य नहीं हैं, वे इसी संसार को समृद्ध करने की दृष्टि देते हैं। कौटिल्य प्राचीन आर्थिक मान्यताओं से सामग्री लेते हैं- “पृथ्वी की प्राप्ति और उसकी रक्षा के लिए प्राचीन आचार्यों ने अर्थशास्त्र विषयक अनेक ग्रंथ रचे। उन सबका सार संग्रह लेकर इस अर्थशास्त्र की रचना की गई।” (पृष्ठ 1)। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र की परिभाषा की- “मनुष्याणां वृतिरर्थ:, मनुष्यवती भूमिरिर्थ:, तस्या पृथिव्या लाभ पालनोपाय: शास्त्रमर्थशास्त्र मिति-मनुष्य की जीविका अर्थ है, मनुष्य से युक्त भूमि अर्थ है। भूमि से पोषण प्राप्त करने, रक्षा करने के उपायों का विवेचन “अर्थशास्त्र” है।”उत्पादन और विनिमय में विकास के साथ व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य व्यवस्था का जन्म होता है, इसी के साथ सभ्यता का विकास होता है। यूरोप में राज्य की उत्पत्ति का सामाजिक समझौते का सिद्धांत 18वीं-19वीं सदी में हाब्स, लाक, रूसो लाये। लेकिन हिन्दुस्थान में हजारों बरस पहले से व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य व्यवस्था है। वैदिक काल में प्रजा अपने हित में राजा नियुक्त करती है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजा मालिक नहीं वेतनभोगी लोकसेवक है, “तेन भृता राजा प्रजानां योगक्षेमवहा:” (पृष्ठ 37)। यहां राजा के लिए निर्देश है-“राजा को जितेन्द्रिय होना चाहिए। इन्द्रिय लोलुप राजा अधिपति होता हुआ शीघ्र नष्ट हो जाता है। भोज, जनमेजय, पुरूरवा जितेन्द्रिय नहीं थे, नष्ट हो गए।” (पृष्ठ 16-17)। अर्थशास्त्र में श्रमिक के लिए पारिश्रमिक की व्यवस्था है। खेती कई तरह की है। कुछ “स्वभूमौ”-निजी भूमि है। कुछ खाली पड़ी है। खाली भूमि को सीताध्यक्ष द्वारा बटाई पर देने की भी व्यवस्था है। कौटिल्य ने खेत मजदूरों, नौकरों के भी वेतन का उल्लेख किया है-“खेती के रखवाले, ग्वाले और नौकरों को मेहनत के अनुसार भोजन, वस्त्र के साथ ही प्रतिमास सवा पण वेतन मिलना चाहिए।”कौटिल्य ने राजा और राज्य व्यवस्था की रक्षा के लिए लिखा, “राजा को चाहिए कि वह सर्वप्रथम अपनी रानियों और पुत्रों से रक्षा का प्रबंध करें।” इसके पहले भारद्वाज, पाराशर आदि ने भी राजपुत्रों को आदर्श राजनीति के लिए खतरनाक बताया है। लेकिन स्वतंत्रत भारत के नए राजा, मंत्री, सांसद, विधायक और पार्टियां चलाने वाले आलाकमान इससे सबक नहीं लेते। माक्र्सवादी लेखक प्राचीन हिन्दू जीवन व्यवस्था को सामंती बताते हैं, लेकिन माक्र्सवादी चिंतक डा. रामविलास शर्मा ने कौटिल्य अर्थशास्त्र के बारे में लिखा, “सामंती व्यवस्था के शास्त्र उत्पादक वर्ग को अधिकारविहीन और सम्पत्तिशाली को विशेषाधिकारी बताते हैं। लेकिन “अर्थशास्त्र” विशेषाधिकार समाप्त करता है, यह उत्पादक (श्रमिकों) और सम्पत्तिशाली वर्गों, दोनों को नियमानुसार जीवन बिताने पर बाध्य करता है।” (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 1, पृष्ठ 616)। कौटिल्य के पहले महाभारत (सभापर्व) में नारद युधिष्ठिर से पूछते हैं-“चिन्तयसि अर्थम्? क्या तुम अर्थचिंतन करते हो? राजा को धर्म और अर्थ के जानकार लोगों की बातें ध्यान से सुननी चाहिए।” वे आगे पूछते हैं- “कच्चित तुष्टा कृषीवला-क्या किसान संतुष्ट हैं? नारद खेती, किसानी, श्रमिक, कर्मचारी और सैनिक आदि सभी आर्थिक क्षेत्रों पर युधिष्ठिर को सजग करते हैं। युधिष्ठिर वैसी ही आर्थिक-राजनैतिक कार्रवाई करते है।” (सभा पर्व)महाभारत के भी पहले, दुनिया के किसी भी ज्ञान ग्रंथ के पहले ऋग्वेद में अर्थचिंतन के व्यापक सूत्र हैं। ऋग्वेद काल में निजी सम्पत्ति थी, ऋण का लेन-देन था, ब्याज खाऊ लोग भी थे, लेकिन “राजा दिवोदास ने कर्जदारों को ऋणमुक्त किया और सूदखोरों का दमन किया।” (ऋ. 6.61.1) ऋग्वेद में ऋण का उल्लेख कई जगह हुआ हैं। बृहस्पति से प्रार्थना है कि ऋणमुक्त करे। वैदिक काल में पणि (व्यापारी) हैं। इन्द्र कंजूस व्यापारी से धन छीनते हैं और सुपात्रों में बांटते हैं (5.34.7)। इन्द्र जबर्दस्ती ही नहीं करते, प्रबोधन से भी पणियों को दाता बनाते हैं (7.19.9)। यहां बबु नाम के एक पणि की प्रशंसा भी है। किवदंती है कि प्राचीन काल में मुद्रा नहीं थी, गाय से मुद्रा का काम चलता था। मैक्डनल और कीथ ने वैदिक इंडेक्स (खंड 1, पृष्ठ 455) में कहा, “ऋग्वेद में मुद्रा के रूप में निष्क का व्यवहार सुस्पष्ट है।” मुद्रा के बदले कोई भी वस्तु मिल सकती है। सभी वस्तुओं का एक रूप मुद्रा भी है। ऋग्वेद की मुद्रा निष्क विश्वरूप है (2.23.10) ऋग्वेद में कृषि तंत्र की व्यापक चर्चा है। लेकिन राजा सामंत नहीं है। वे नृपति हैं, भूपति नहीं।एक विशाल भूखण्ड में खेती, व्यापार और काव्य रचते हुए साथ-साथ रहने, जीने-मरने का भाव आया। भू सांस्कृतिक प्रीति बढ़ी। ऋषि इन्द्र और वरूण से कहते हैं, “युवो वृहत राष्ट्रं इन्वति-आप दोनों का द्युलोक रूपी राष्ट्र सबको प्रसन्नता देता है।” (7.84.2)। इन्द्र वरुण से कहते हैं, “ममराष्ट्रष्य अधिपत्यं एहि-मेरे राष्ट्र का आधिपत्य स्वीकारो।” (10.124.5)। हिन्दू राष्ट्र का समूचा अधिष्ठान प्राचीन हिन्दू अर्थव्यवस्था, संस्कृति और राष्ट्रभाव से जुड़ी राज्यव्यवस्था, संस्कृति और राष्ट्रभाव से जुड़ी राज्य व्यवस्था से उपजा। लेकिन पश्चिमी राज्य व्यवस्था के साथ पश्चिमी अर्थशास्त्र आया, पश्चिमी अर्थव्यवस्था के साथ पश्चिमी सभ्यता आई, सम्प्रति इसी सभ्यता के कारण पश्चिमी संस्कृति का आक्रमण है, जिसका हिन्दू अर्थशास्त्र ही एकमेव विकल्प है।39
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