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गवाक्ष

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Sep 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Sep 2007 00:00:00

महीयसी महादेवीविद्रोह की अग्नि-शिखाशिवओम अम्बरअभिव्यक्ति-मुद्राअपने साहस को मार बैठे हैं,युद्ध से पूर्व बार हार हैं।लोग पहने तो हैं वसन लेकिन,सारी लज्जा उतार बैठे हैं।-जहीर कुरेशीवो लोग जिनके पास चरागों का ढेर है,वो लोग चाहते हैं बहुत लम्बी रात हो।पानी उबल-उबल के कहीं सूख ही न जाए,अपनी तरफ से भी तो कोई वारदात हो।-शबाब मेरठीसवाल ये है कि दुनिया बदल नहीं पाई,जवाब है कई आंखों में एक ख्वाब भी है।-कमल किशोर श्रमिकसन् 1907 में महादेवी जी का जन्म हुआ था और सन् 1987 में उनका अवसान हुआ। उनके जन्म को पूरी एक शताब्दी और उनके अवसान को दो दशक हो चुके हैं। इस दौरान उनके साहित्यिक व्यक्तित्व पर बहुत कुछ कहा गया, लिखा गया। प्राय: उनके करुणा-आपूरित रूप को रेखांकित करते हुए उन्हें कभी छायावाद की दीपिका कहकर पुकारा गया तो कभी आधुनिक मीरा कहकर। स्वयं को नीर भरी दुख की बदली के रूप में तो उन्होंने खुद परिभाषित किया था। महाराणा निराला ने अत्यन्त भावप्रण शब्दों में उन्हें हिन्दी साहित्य के मन्दिर की वाग्देवी की ही संज्ञा प्रदान कर प्रणति निवेदित की-दिये व्यंग्य के उत्तर रचनाओं से रचकर,विदुषी रहीं विदूषक के समक्ष तुम तत्पर।हिन्दी के विशाल मन्दिर की वीणापाणी,स्फूर्ति चेतना रचना की प्रतिमा कल्याणी।निकला जब “नीहार” पड़ी चंचलता फीकी,खुली “रश्मि” से मुख की श्री युग की युवती की।प्रति उर सुरभित हुआ “नीरजा” से निरभ्र नभ,शत-शत स्तुतियों से गूंजा यह सौरभ-सौरभ।”सांध्यगीत” गाये समर्थ कवियों ने सस्वर,वीणा पर वेणु पर तन्त्र पर और यन्त्र पर।”यामा”- “दीपशिखा” के विशिखों के ज्यों मारे,अपल चित्र हो गए लोग “चलचित्र” तुम्हारे।चला रहे हैं सहज “श्रृंखला की कड़ियों” से,सजो रंगो लेखनी तूलिका की छड़ियों से।किन्तु महादेवी के साहित्य का स्वाध्याय करने पर प्रारम्भ से ही उनके भीतर विद्रोह की एक दीप्ति के दर्शन होते हैं जिसका निरन्तर विकास होता जाता है और उनके अवसान के उपरान्त प्रकाशित उनकी काव्यकृति “अग्निरेखा” को साक्ष्य बनाकर कहा जा सकता है कि विद्रोह की अग्निशिखा को पूरी भास्वरता को जीकर ही उन्होंने महाप्रयाण किया। प्रारम्भ से ही उन्हें दीपक का प्रतीक अत्यधिक प्रिय रहा है। अंधकार के विषाक्त शीश पर चरण रखकर ज्योति की बांसुरी बजाता दीपक उनके लिए संघर्ष का, संकल्प का शाश्वत प्रतीक है। “चिन्तन के क्षण” में उनकी अभिव्यक्ति है- “जीवन में राज-मार्ग कोई किसी के लिए नहीं बनाता। जो अपने पैरों के रक्त से कांटों में फूल खिला देता है, वही मार्ग बना सकता है? दिए की कांपती हुई लौ किसी अंधेरे से डरती है।… दिए की कांपती हुई लौ के ऊपर अगर आप सोने का खोल रख दें तो वह बुझ जाएगा। उसे आंधी से जूझने के लिए रुई और स्नेह चाहिए। ऐसी कथा है युग-संघर्ष की जिसमें असाधारण सुविधाएं महत्व नहीं रखतीं परन्तु साधारण पर दृढ़ संकल्प ही अस्त्र बन जाता है।”स्वयं को किसी करुणा भरे घन की चातकी मानने वाली महादेवी जब अपने परिवेश को विकृतियों से आक्रान्त पाती हैं, उनकी करुणा एक सात्विक अमर्ष में ढल जाती है और वह विडम्बनाओं की वाहक हर आंधी के पांवों में बिजलियों की पायल पहनाकर उसकी गति को नियंत्रित करना चाहती हैं-पग में सौ आवर्त बांधकरनाच रही घर-बाहर आंधी,सब कहते हैं यह न थमेगी,गति इसकी न रहेगी बांधी,अंगारों को गूंथ बिजलियों में,पहना दूं इसको पायलदिशि-दिश को अर्गला,प्रभंजन ही को रखवाला करती हूं।नहीं हलाहल शेषतरल ज्वाला से अब प्याला भरती हूं। (अग्निरेखा)वीणापाणि से वीणा पर अग्नि-तार कसने का निवेदन करने वाली महादेवी अपनी अन्तिम कृति का नामकरण “अग्निरेखा” करके मानो आगामी पीढ़ी को अपने दृष्टिकोण की वसीयत कर जाती हैं। अनय के ध्वंस में आगामी निर्माण की प्रसुप्त लहर के दर्शन करने वाली महादेवी अपनी अवसान-वेला में एक ओर उपनिषद् के स्वस्ति-मंत्रों तथा भगवान बुद्ध की शामक वाणी का भावानुवाद कर रही थीं तो दूसरी ओर अपने समय के शब्द साधकों को बड़े ही निष्कम्प स्वर में अग्नि-दीक्षा प्रदान कर रही थीं। उन्हें विद्रोह का दीपक बनने की प्रेरणा प्रदान करते हुए उनकी आदेशमुद्रा यूं मुखर हुई थी-दिन बनने के लिए तिमिर को भरकर अंक जलो,कड़ियां शत-शत गलें स्वयं अंगारों पर बिछ लोपूछो न प्रात की बात आज आंधी के साछ चलो!महादेवी का यह आदेश-निर्देश हमारी पीढ़ी आत्मसात कर सके। राष्ट्र-निर्माण के स्वप्न और संकल्प के साथ हम अग्नि पथ पर संचरण करने की सामथ्र्य को प्रमाणित कर सकें और महादेवी के अन्तस् में जागती विद्रोह की अग्नि-शिखा से सहस्र-सहस्र प्रदीप प्रज्ज्वलित कर सकें-इसी कामना के साथ आज इस टिप्पणी को विराम देता हूं।साहिब सिंह जी की यादश्री साहिब सिंह के साथ हुई वह भेंट मेरी स्मृति में आज भी जीवन्त है। उस समय वह दिल्ली के मुख्यमंत्री थे। श्री गोविन्द व्यास के निमंत्रण पर उस वर्ष मैं जब लालकिले के कवि-सम्मेलन में पहुंचा तब पता चला कि संचालन के दायित्व का भी निर्वाह मुझे ही करना है। कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाने के थोड़ी देर बाद आरक्षित प्रथम पंक्ति में मुख्यमंत्री महोदय अपने परिकर के साथ आकर समासीन हुए। सभा को सम्बोधित करने के प्रश्न पर उन्होंने आयोजकों को बताया कि वह कुछ देर सम्मेलन का आनन्द लेंगे और उचित समय पर खुद बोलने को आगे आ जाएंगे। उस दिन 22 जनवरी थी। रात के 12 बजे से कुछ पहले मेरे पास सन्देश आया कि अब मुख्यमंत्री महोदय कुछ कहना चाहते हैं। मैंने उन्हें सादर आमंत्रित किया। वह सहज भाव से मंच पर आकर मेरे पाश्र्व में ही बैठ गए और उसी माइक से सभा को सम्बोधित करते हुए पहले कविता की शक्ति के प्रति अपनी आस्था प्रकट की और फिर बताया कि मध्य रात्रि के बाद तारीख बदल जाने से अब 23 जनवरी हो गई है और यह तारीख नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की जन्मतिथि है। उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित करने के लिए ही मैंने इस घड़ी को सम्बोधन के लिए चुना है-ऐसा साहिब जी ने कहा। मुख्यमंत्री महोदय के इस सामयिक सम्बोधन के बाद मंच पर प्रस्तुत हो रही कविताओं में राष्ट्रीय चेतना की लहर जैसे अंगड़ाई लेकर जग गई। उनके वक्तव्य को रेखांकित करते हुए जब मैंने संचालक के आसन से ये पंक्तियां पढ़ीं तो वह बहुत देर तक करतल ध्वनि करते रहे थे-तुष्टीकरण की नीति का संहार चाहिए,सीने में आग कण्ठ में हुंकार चाहिए।बापू का रामराज्य सवालों से घिर गया,हमको सुभाष बोस की सरकार चाहिए।।26

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