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अंग्रेजियत की मानसिकता और उसके ऊ‚पर एक विचार

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Aug 7, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Aug 2007 00:00:00

जिसे रास्ते से अंग्रेजी आई उसे तो जानो-डा. अजित गुप्ताअध्यक्ष, राजस्थान साहित्य अकादमीअंग्रेज, अंग्रेजी और अंग्रेजियत इस देश की युवा पीढ़ी को सदैव से ही न जाने क्यों आकर्षित करती रही है। जब अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया था तब भी हमारे राजे-रजवाड़े और आधुनिक कहे जाने वाले युवा उनकी स्वच्छंदता से बहुत प्रभावित थे। व्यक्ति की जन्मजात आकांक्षा रहती है- स्वच्छंदता। भारत हजारों वर्षों से एक सुदृढ़ संस्कृति के दायरे में बंधा हुआ था, इसलिए भारतीयों ने इस प्रकार की स्वच्छंदता कभी न देखी थी और न ही अनुभूत की थी। अत: समृद्ध और प्रबुद्ध वर्ग इस स्वच्छंदता की ओर आकर्षित हुआ। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अधिकांश रजवाड़े अंग्रेजों की भोगवादी प्रवृत्ति के गुलाम हो गए। कल तक प्रजा के रक्षक कहे जाने वाले ये श्रीमंत लोग प्रजा से दूर हो गए। वे केवल मालगुजारी एकत्र करने और अंग्रेज शासक को खुश रखने में ही लगे रहे। जनता के ऊपर कितने अत्याचार हो रहे हैं और जनता गरीब से गरीबतर होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रही है, इस बात की चिन्ता किसी को भी नहीं थी। उस काल का प्रबुद्ध वर्ग भी सामाजिक सुधारों में लगा था। जब अंग्रेजों की नीतियों और कानून के कारण हजारों ही नहीं, लाखों और यहां तक की करोड़ों लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे थे तब हमारे समाज सुधारक प्रबुद्ध वर्ग भी केवल हिन्दू धर्म के सुधारों में ही अपनी ऊर्जा समाप्त कर रहे थे। मैं यह नहीं कहती कि बाल विवाह पर चर्चा नहीं होनी चाहिए या सती प्रथा पर। लेकिन जब सूती कपड़ा, रेशम, काफी, अनाज, नमक आदि कुटीर उद्योगों पर संकट आया हुआ हो और भारत की प्रजा को खाने के लिए दाना नहीं नसीब हो रहा हो, उस समय केवल हिन्दू समाज में सुधार की बात करना पूर्णतया हिन्दू समाज को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ाना था।अंग्रेजों ने भारत को किस तरह तबाह किया और लूटा इसके उदाहरण हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं। उन्होंने भारत के व्यापार को चौपट किया, करोड़ों लोगों को भूखा मरने पर मजबूर किया। अयोध्या सिंह की पुस्तक “भारत का मुक्ति संग्राम” में भारतीय कपड़ा उद्योग के कुछ आंकड़े दिए गए हैं, उन्हें मैं यहां प्रस्तुत कर रही हूं- “1801 में भारत से अमरीका 13,633 गांठ कपड़ा जाता था, 1829 में कम होते-होते 258 गांठ रह गया। 1800 तक भारत का कपड़ा प्रतिवर्ष लगभग 1450 गांठ डेनमार्क जाता था, वह 1820 में सिर्फ 120 गांठ रह गया। 1799 में भारतीय व्यापारी 9714 गांठ पुर्तगाल भेजते थे, 1825 में यह 100 गांठ रह गया। 1820 तक अरब और फारस की खाड़ी के आस पास के देशों में 4000 से लेकर 7000 गांठ भारतीय कपड़ा प्रतिवर्ष जाता था, 1825 के बाद 2000 गांठ से ज्यादा नहीं भेजा गया।” पुस्तक में आगे लिखा है कि “ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आदेश से जांच के लिए डा. बुकानन 1807 में पटना, शाहाबाद, भागलपुर, गोरखपुर आदि जिलों में गए थे। उनकी जांच के अनुसार पटना जिले में 2400 बीघा जमीन पर कपास और 1800 बीघा में ईख (गन्ने) की खेती होती थी। 3,30,426 महिलायें सिर्फ सूत कातकर जीविका चलाती थीं, दिन में सिर्फ कुछ घंटे काम करके वे साल में 10,81,005 रुपए लाभ कमाती थीं। इसी प्रकार शाहबाद जिले में 1,59,500 महिलाएं साल में साढ़े बारह लाख रुपए का सूत कातती थी। जिले में कुल 7950 करघे थे। इनसे 16 लाख रुपए का कपड़ा प्रतिवर्ष तैयार होता था। भागलपुर में 12 हजार बीघे में कपास की खेती होती थी। टसर बुनने के 3,275 करघे और कपड़ा बुनने के 7279 करघे थे। गोरखपुर में 1,75,600 महिलाएं चरखा कातती थीं। दिनाजपुर में 39,000 बीघे में पटसन, 24,000 बीघे में कपास, 24,000 बीघे में ईख, 1500 बीघे में नील और 1500 बीघे में तम्बाकू की खेती होती थी। महिलाएं 9,15,000 रुपए का खरा मुनाफा सूत कातकर प्राप्त करती थीं। रेशम का व्यवसाय करने वाले 500 घर साल में 1,20,000 रुपए का मुनाफा कमाते थे। बुनकर साल में 16,74,000 रुपए का कपड़ा बुनते थे। पूर्णिया जिले की महिलाएं हर साल औसतन 3 लाख रुपए का कपास खरीद कर सूत तैयार करती थीं और बाजार में 13 लाख रुपए का बेचती थीं।”इतना ही नहीं अंग्रेजों ने नेविगेशन एक्ट के कारण यूरोप तथा अन्य किसी देश से सीधे व्यापार करने का हक भारत से छीन लिया। 1890 में सर हेनरी काटन ने लिखा, “अभी सौ साल भी नहीं बीते जब ढाका से एक करोड़ रुपए का व्यापार होता था और वहां 2 लाख लोग बसे हुए थे। 1787 में 30 लाख रुपए की ढाका की मलमल इंग्लैण्ड आयी थी और 1817 में बिल्कुल बन्द हो गई। जो सम्पन्न परिवार थे वे मजबूर होकर रोटी की तलाश में गांव भाग गए।”भारत में अकाल पड़ने का इतिहास हमेशा मिलता रहा है। लेकिन मृत्यु का इतना बड़ा आंकड़ा अंग्रेजों के काल में ही उपस्थित हुआ। गरीब जनता की मृत्यु इसलिए नहीं हुई कि देश में अन्न की कमी थी। जनता की मृत्यु इसलिए हुई कि अन्न इंग्लैण्ड जा रहा था। भारत में एक तरफ अकाल पड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ किसानों पर लगान बढ़ा दिया गया, ऐसे कितने ही प्रकरण इस देश ने झेले हैं। बारड़ोली आन्दोलन, जिसे सरदार वल्लभ भाई पटेल का नेतृत्व प्राप्त था और गांधी जी भी प्रत्यक्ष रूप से जुड़े थे, एक उदाहरण है। ऐसे आन्दोलनों की भी एक सूची है जो शायद सैकड़ों में है। इसमें न केवल किसानों ने आंदोलन किया अपितु बहुत बड़ी संख्या में जनजातीय समाज ने भी आंदोलन किया। आंदोलनकारियों को कहीं फांसी पर लटकाया गया और कहीं डाकू कहकर मार डाला गया। जो भारत में डाका डाल रहे थे वे तो साहूकार बन गए थे और जो किसान अन्न उपजा रहे थे वे डाकू कहे गए थे।लूट का एक और तथ्य प्रस्तुत करती हूं। जब 1857 की क्रांति हुई तब इंग्लैण्ड से सेना बुलाई गई और उस सेना के आने से छह महीने पूर्व का और जाने के छह महीने बाद का वेतन भी भारत के मत्थे मढ़ा गया। इतना ही नहीं, प्रथम विश्व युद्ध एवं द्वितीय विश्वयुद्ध का खर्चा भी भारत के खाते में डाला गया। युद्ध ही नहीं, विलासिता के न जाने कितने खर्चों का कर्ज भारत से वसूला गया। द्वितीय विश्व युद्ध तक 1179 करोड़ रुपयों का खर्चा भारत के खाते में लिखा गया। 1931 से 37 के मध्य 24 करोड़, 10 लाख पौण्ड का सोना इसी कारण भारत से अंग्रेज ले गए।अत: आज वर्तमान युग में प्रबुद्ध और समृद्ध वर्ग को चिंतन की आवश्यकता है कि जिन्हें हम आदर्श मान रहे हैं, वे कितने घिनौने हैं? उनका वास्तविक स्वरूप क्या है? भारत में हर्षवद्र्धन के काल तक गरीबी और भुखमरी नहीं थी। लेकिन उसके बाद जब लूट की परम्परा प्रारंभ हुई तब गरीबी का अभ्युदय हुआ। जब 1498 में वास्कोडिगामा भारत आया था, तब उसने यही कहा था कि मैं यहां मसालों और ईसाइयत की खोज में आया हूं। गांधीजी ने कहा था कि अंग्रेज न तो हिन्दुस्थानी व्यापारी के और न ही यहां के मजदूरों के मुकाबले में खड़ा हो सकता है। इसी कारण अफ्रीका, मारीशस, फिजी, गुयाना आदि देशों को खड़ा करने के लिए भारतीय मजदूरों को अनुबंध पर ले जाया गया और इन बेरहम अंग्रेजों ने उन्हें गुलामों से भी बदतर जीवन दिया।आज का प्रश्न यह है कि क्या आज यह जाति सुधर गई है? क्या अंग्रेजों की मानसिकता आज बदल गई है? नहीं, वे आज भी उतने ही क्रूर हैं, जितने कल थे। हमारी युवा पीढ़ी यदि अंग्रेजों का अनुसरण करती है, तब ऐसा लगता है कि हम भी उसी क्रूरता के अनुयायी बनते जा रहे हैं। पूर्व में भारतीय मस्तिष्क अध्यात्म या व्यापार में ही अपनी सार्थकता सिद्ध करता था, लेकिन अब भारतीय मनीषा प्रत्येक क्षेत्र में अपने आपको सिद्ध कर रही है और दुनिया ने यह जान लिया है कि भारतीय बौद्धिक स्तर का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यही कारण है कि आज भारत में बौद्धिक प्रतिभाओं के लिए नया सवेरा होने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब यूरोप और अमरीका जैसे देश भारतीय प्रतिभाओं से रिक्त होकर पुन: अपने वास्तविक स्वरूप में होंगे। जिस दिन हमारे युवा वर्ग ने अंग्रेजों के इतिहास की सच्चाई को जान लिया उस दिन कोई भी भारतीय अपने आपको अंग्रेजों की श्रेणी में रखना पसन्द नहीं करेगा।11

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