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सोनिया की षड्यंत्री राजनीति के खतरेदेवेन्द्र स्वरूप14 जून को अचानक प्रतिभा पाटिल का नाम राष्ट्रपति पद के लिये उछाला गया। 16 जून को प्रतिभा दिल्ली आयीं और सोनिया गांधी ने झिलमिलाती हरी साड़ी में उनका स्वागत किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, सूचना मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी के साथ बड़ी नाटकीय मुद्राओं के चित्र खींचे। सभी टेलीविजन चैनलों पर और अगले दिन सभी समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर वे चित्र छा गये। प्रतिभा पाटिल को सोनिया का व्यक्तिगत उम्मीदवार होने की छवि मिल गयी। तब से वही चित्र मीडिया हर रोज दिखा और छाप रहा है। प्रतिभा नित्य प्रति नये-नये विवादों में फंसती जा रही हैं। उनके विरुद्ध आरोप पर आरोप सामने आ रहे हैं, पर सोनिया गांधी बिल्कुल चुप हैं। उन्होंने अपने उम्मीदवार की सफाई में एक शब्द नहीं बोला। बोल कौन रहे हैं? रबर स्टाम्प प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, छुटभैये कांग्रेसी मंत्री या चमचे। यह अनायास या संयोग मात्र नहीं है। यह सोनिया की सोची समझी कार्यशैली और रणनीति का अभिन्न हिस्सा है। 1984 के सिख दंगों की नानावती रपट पर विपक्ष और मीडिया ने सोनिया की प्रतिक्रिया जानने के लिये कितनी कोशिश की, उन्हें कितना ललकारा, पर वे मौन रहीं। जबकि उन दंगों के समय वे इंदिरा जी के राजमहल का हिस्सा थीं। राजीव गांधी की अर्धांगिनी होने के नाते उस नरमेध की प्रत्यक्ष साक्षी थीं। पर वे नहीं बोलीं। बोले कौन? मनमोहन सिंह, जिनका उस हत्याकांड से कुछ लेना देना नहीं था, जो उसके आसपास कहीं नहीं थे, पर उन्हें हुक्म मिला और वे बोले। आखिर इसी के लिये तो बिना कोई जनाधार होते भी उन्हें प्रधानमंत्री पद दिया गया। रबर स्टाम्प बनने की योग्यता ही उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ले जाने का कारण बनी। अमर सिंह का टेपकांड, नटवर सिंह का वोल्कर प्रकरण-ऐसे प्रसंगों की लम्बी सूची है, जिनसे सोनिया गांधी का सीधा सम्बंध बताया गया, किंतु इन प्रसंगों पर काफी उत्तेजना के बावजूद वे मौन रहीं। उनकी तरफ से प्रधानमंत्री और मंत्री पदों पर आसीन छुटभैये चापलूस सफाई देते घूमते रहे। वे स्वयं “देवी” के उच्च सिंहासन पर आसीन हैं, पवित्र गाय की तरह। रक्षकीय और पूजनीय हैं। यह चापलूस भक्तों का काम है कि वे आलोचनाओं का जबाव दें, आलोचकों के प्रहारों को सहन करें। इन छुटभैयों के साथ उनकी दूरी बराबर बनी हुई है, उनका साहस नहीं कि वे देवी की बगल में बैठें, वे तो उनके चरणों में ही बैठ सकते हैं।वस्तुत: इंदिरा गांधी की महली राजनीति का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने मीडिया की कमजोरी और वंशवादी राजनीति की कार्यशैली को भलीभांति ह्मदयंगम कर लिया। स्व. डा. राममनोहर लोहिया ने पहली बार इस ओर हशारा किया था कि जवाहर लाल नेहरु ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाकर दैनिक पत्रों को हर रोज पहले पन्ने पर छापने का अवसर प्रदान कर दिया है। पाठकों को भी एक सुंदर चेहरा रोज देखने को मिल जाता है। उस समय डा. लोहिया की टिप्पणी उनके स्तर से नीची लगी थी, इसके लिए उनकी आलोचना भी हुई थी। पर उनके कथन में सत्यांश था और तब से अब तक मीडिया का चरित्र बहुत बदला है। तब टेलीविजन नहीं था। टेलीविजन ने सुंदर उत्तेजक नारी चित्रों को दिखा-दिखाकर सौंदर्य बोध इतना अधिक जागृत कर दिया है कि अब दैनिक पत्रों और साप्ताहिकों के लिए भी नारी चित्रों को खोज-खोज कर पहले पन्नों पर प्रकाशित करना मजबूरी बन गयी है। उदाहरण के लिए 29 जून के समाचार पत्रों को देखा जा सकता है। आज के कम से कम चार पत्रों में बारिश का वर्णन करने के लिए नारी-पुरुष के उत्तेजक चित्र दिखाए गए हैं। मीडिया की इस प्रकृति या मजबूरी का लाभ कोई भी कुशल प्रचार तंत्र सरलता से उठा सकता है। सिर्फ आपको टेलीविजन चैनलों के कैमरामैनों और दैनिक पत्रों के फोटोग्राफरों से चतुर सम्पर्क बनाने की कला जानना है। निश्चय ही ऐसा कुशल प्रचार तंत्र 10 जनपथ को उपलब्ध है। यह आप बिना किसी औचित्य के भी सोनिया गांधी के चित्रों के मीडिया प्रसारण को देखकर समझ सकते हैं। इस मीडिया युग में फोटो पत्रकारिता के महत्व को पहचानना बहुत जरुरी है। केवल मंचीय भाषणबाजी और पेम्फ्लेट बाजी मीडिया की अब आवश्यकता नहीं है।जोड़-तोड़ की राजनीतिसोनिया के प्रचार तंत्र ने मीडिया की कमजोरी का सूक्ष्म अध्ययन किया है। वे मीडिया से दूरी बनाकर रखती हैं, अपने चारों ओर रहस्य का पर्दा बनाये हुए हैं। आपने राष्ट्रीय प्रश्नों पर, राष्ट्र की मूलगामी नीतियों के बारे में उनको कभी बहस में फंसते नहीं देखा होगा। इंडिया टुडे के किसी औपचारिक बड़े कार्यक्रम में लिखित भाषण के आधार पर बोलते अवश्य सुना होगा। उनकी राजनीति वैचारिक राजनीति नहीं है। पर्दे के पीछे जोड़-तोड़ की राजनीति है। मोहरे फिट करने की राजनीति है। राष्ट्र के सभी सत्ता केन्द्रों पर वंश के प्रति वफादारों को कैसे फिट करना है, इसकी ओर उनका पूरा ध्यान रहता है। प्रधानमंत्री स्वयं नहीं बन सकीं, वंश में दूसरा कोई चेहरा उपलब्ध नहीं तो किसे लाना जो पूरी तरह रबर स्टाम्प बना रहे। मनमोहन सिंह का तीन साल का कार्यकाल उनके सही चयन का प्रमाण है। मनमोहन सिंह कहीं वोट नहीं दिला सकते, अपने पंजाब में भी नहीं, कहीं वे चुनाव नहीं जीत सकते, तीन वर्ष प्रधानमंत्री पद पर रहने के बाद भी उन्हें राज्यसभा के रास्ते दूरस्थ असम से प्रवेश करना पड़ता है, किंतु वे राजमहल के वफादार दरबारी सिद्ध हुए हैं, इसमें कोई शंका नहीं है। वे प्रधानमंत्री से अधिक विदेश मंत्री हैं। उनका काफी समय विदेशों के दौरे पर जाता है। विदेश नीति में कोई नैपुण्य उन्होंने प्रकट किया हो इसका भी कोई उदाहरण नहीं है। न पाकिस्तान में, न बंगलादेश में, न श्रीलंका में, न नेपाल में, न ईरान में, न चीन में कहीं भी तो उनकी दूरदर्शिता और चतुराई का प्रमाण सामने नहीं आया है। अमरीका के साथ आण्विक संधि के विवाद ने तो उनके दिवालियेपन को बिल्कुल नंगा कर दिया है। पर वे प्रधानमंत्री हैं क्योंकि 10 जनपथ उनका चाहे जब जैसा इस्तेमाल कर सकता है। आखिर उनके बार-बार विदेश यात्रा के दौरान भारत का शासन तंत्र अपनी सामान्य गति से चलता रहता है, इसका अर्थ है असली शासन तंत्र मनमोहन सिंह के पास नहीं कहीं और केन्द्रित है।रबर स्टाम्प प्रधानमंत्री के बाद रबर स्टाम्प राष्ट्रपति हो तो सोने में सुहागा। डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपने पांच साल के कार्यकाल में अपनी निरपेक्ष छवि को प्रमाणित कर दिया। सोनिया कैसे भूल सकती हैं कि उनके कारण ही वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गयीं, लाभ के पद के संशोधित विधेयक को वापस करके डा. कलाम ने उनको लोकसभा से त्यागपत्र देकर दोबारा चुनाव लड़ने को मजबूर कर दिया। बूटा सिंह, सिब्ते रजी जैसे रबर स्टाम्प राज्यपालों के दुरुपयोग पर उन्होंने अंकुश लगाया और उनका सबसे बड़ा अपराध यह है कि उन्होंने राष्ट्रपति भवन को जनता से सीधे जोड़ दिया। वे जन-मन के प्रिय होकर एक स्वतंत्र सत्ता केन्द्र के रूप में उभर आये। ऐसे स्वतंत्र चेता व्यक्ति को राष्ट्रपति पद पर सोनिया और उनकी रबर स्टाम्प पार्टी कैसे सहन कर सकती थी। इसलिये एक के बाद एक चौदह नामों को रद्दी की टोकरी में फेंककर अचानक प्रतिभा पाटिल के नाम को सामने लाईं। खोजी पत्रकारिता उनकी अनेक कमियों तक तो पहुंच गयी, किंतु गुण और क्षमता के नाम पर अभी तक एक ही विशेषता बता पायी है वह है इंदिरा युग से उनके वंश के प्रति अटूट निष्ठा। यह वंश निष्ठा ही उनका एकमात्र गुण है। यदि दलीय राजनीति का गणित उन्हें सचमुच जीता देता है तो सोनिया की भी वंशवादी राजनीति का लक्ष्य पूरा हो जायेगा। चुनाव आयोग में नवीन चावला, राज्यपाल पदों पर अपने निष्ठावान व्यक्ति, सीबीआई का चाहे जैसा उपयोग करने की स्थिति फिर बचा क्या?नैतिक मूल्यों की बलिपर्दे के पीछे उनकी जोड़-तोड़ की राजनीति का ताजा उदाहरण है उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती। मुख्यमंत्री चुने जाने के बाद वे दिल्ली आयीं, सोनिया गांधी से उनकी मुलाकात हुई और सौदा पक्का हो गया। प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने घोषणा कर दी कि उनकी पार्टी राष्ट्रपति पद के लिये सोनिया जी के उम्मीदवार का समर्थन करेगी। शरारतपूर्ण हंसी के साथ उन्होंने पत्रकारों को कहा कि प्रत्याशी का नाम वे नहीं, यूपीए की अध्यक्षा ही बतायेंगी। इस सौदेबाजी का रूप एक सप्ताह बाद ही सामने आ गया जब उत्तर प्रदेश के राज्यपाल टी.वी. राजेश्वर ने मायावती के सिर पर लटकी ताज कोरीडोर नामक करोड़ों रुपये घोटाले की तलवार के खतरे को अपने विशेषाधिकार का उपयोग करके खत्म कर दिया। यह कीमत है जो राष्ट्रपति पद पर अपना रबर स्टाम्प बैठाने के लिए उन्होंने चुकायी। व्यक्तिगत लाभ के लिए राष्ट्र के महत्वपूर्ण सत्ता केन्द्रों के दुरुपयोग का यह निर्लज्ज उदाहरण है। पर, सोनिया इसमें कहीं नहीं हैं। उन्होंने इस सौदे पर कोई शब्द अब तक नहीं बोला है।उनकी राजनीति का मुख्य सूत्र है सत्ता पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखना। उसके लिए नैतिक मूल्यों की बलि देने में उन्हें परहेज नहीं। शायद यह पहला केन्द्रीय मंत्रिमंडल है, जिसमें 24 राज्यसभा सदस्यों को स्थान मिला है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मानव संसाधन मंत्री जैसे महत्वपूर्ण विभागों का, जहां दयानिधि मारन और नटवर सिंह जैसे योग्य मंत्री को केवल इसलिए हटा दिया जाता है क्योंकि वे सत्ता के समीकरण में अनुकूल नहीं बैठ रहे। जहां अपराधी छवि के मंत्रियों की उपस्थिति की सर्वोच्च न्यायालय में वकालत की जाती है। गठबंधन सरकारें अब तक बहुत आईं किंतु अवसरवाद और निर्लज्जता का ऐसा निम्न स्तर कभी नहीं रहा।सोनिया ने अपने शत्रु तय कर रखे हैं। उनको येन-केन-प्रकारेण ध्वस्त करना उनकी राजनीति का मुख्य लक्ष्य है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह को ध्वस्त करने के लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया, राहुल गांधी को उभारने की कितनी कोशिश की, स्वयं कितने चक्कर लगाए, अंत में प्रियंका को भी मैदान में उतारा। भले ही पूरी ताकत लगाकर भी वे अपनी पार्टी को भी अतिरिक्त सीट न दिला पाई हों, किंतु उन्हें राहत है कि मुलायम सिंह मैदान हार गए। शायद इसका श्रेय भी उनके चमचे उन्हीं की व्यूह रचना को दें कि उन्होंने ही पर्दे के पीछे मायावती की चुनावी रणनीति बिछाई, वी.पी. सिंह और राज बब्बर को मुलायम विरोधी वातावरण बनाने के लिए इस्तेमाल किया।बरेली और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मुस्लिम कट्टरवाद के साथ गुप्त समझौते किए। पर कांग्रेस की पराजय का ठीकरा राहुल के सिर फूटने के पहले ही उन्होंने उत्तर प्रदेश के पार्टी संगठन को दोषी ठहरा दिया।अब उनका पूरा जोर गुजरात पर है। गांधीजी की दांडी यात्रा की बरसी से लेकर अब तक गुजरात के कई चक्कर लगा चुकी हैं। कभी जनजाति सम्मेलन, कभी दलित सम्मेलन, कभी किसान सम्मेलन के तमाशे हो चुके हैं। भाजपा को गालियां देने में उनको मजा आता है। झूठ बोलने में उन्हें कोई परहेज नहीं। गुजरात की आर्थिक प्रगति को पूरी दुनिया जानती है। स्वयं सोनिया के राजीव गांधी फाउंडेशन के एक अध्ययन में भी गुजरात को सर्वोत्तम घोषित किया गया। सोनिया ने उस अध्ययन करने वाले अर्थशास्त्री को दंडित किया और गुजरात में खड़े होकर झूठ बोला कि भाजपा के राज में गुजरात आर्थिक दृष्टि से पिछड़ गया है। सच्चर कमेटी की रपट में भी अल्पसंख्यकों की दशा गुजरात में अन्य सभी राज्यों से बेहतर बताई गई है। पर सोनिया नफरत के कुछ पूर्णकालिक सौदागरों की मदद से गुजरात में नफरत और फूट के बीज बोने की जी तोड़ कोशिश कर रही हैं। गुजरात की शांति, एकता और प्रगति के हित में इन षडंत्रकारी चेहरों को बेनकाब करना बहुत आवश्यक है। इनके नाम हैं तीस्ता जावेद (सीतलवाड) शबनम हाशमी, हर्ष मेंदर, कैथोलिक पादरी सेड्रिक प्रकाश, दलित ईसाई नेता मार्टिन मकवान और एडवोकेट मुकुल सिन्हा। गुजरात में भाजपा विरोधी षड्यंत्रों के लिए तीस्ता और सेड्रिक प्रकाश को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। वस्तुत: सोनिया की प्रत्येक गुजरात यात्रा की पूर्व तैयारी विदेशी धन से पोषित एन.जी.ओ. मंडली की सहायता से यही षड्यंत्री टोली करती है।सोनिया अभी तक अपने राजनीतिक चातुर्य का कोई प्रदर्शन नहीं कर पाई हैं। वंशवादी पार्टी की अकेली हाईकमान रह कर भी वे पार्टी के भीतर अनुशासन बनाए रखने में असमर्थ रही हैं। केंद्र में मनमोहन और मणिशंकर अय्यर की दूरियां जगजाहिर हैं। उत्तरांचल, उ.प्र., मुंबई, पंजाब, दिल्ली आदि में पार्टी को पराजय का सामना करने से वे रोक नहीं पाईं, किंतु एकछत्र सत्ता का सपना उनकी आंखों में है। उसके लिए किसी से भी समझौता कर सकती हैं, कोई भी षड्यंत्र रच सकती हैं। उनका गठबंधन अपराधी तत्वों, परस्पर विरोधी नेताओं से भरा पड़ा है। संख्या बल की दृष्टि से वह डगमगा रहा है। वह वाम दलों के समर्थन की वैशाखी पर टिका हुआ है। वाम दलों और सोनिया को जोड़ने वाली एकमात्र कड़ी भाजपा विरोध है। वाम दल सोनिया के कंधे पर सवार होकर पिछले दरवाजे से केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के मनसूबे पाल रहे हैं। इसलिए केंद्र सरकार की हर नीति का विरोध करते हुए भी वे हर बार आश्वासन दे देते हैं कि हम सरकार को गिरने नहीं देंगे, क्योंकि सरकार गिरी तो भाजपा वापस आ जाएगी। पर वे अपने समर्थन की पूरी कीमत वसूल रहे हैं। राष्ट्रपति पद के लिए प्रतिभा पाटिल जैसी विवादास्पद, अयोग्य प्रत्याशी का समर्थन करना भी उन्हें स्वीकार है, क्योंकि उन्हें बदले में उपराष्ट्रपति पद प्राप्त हो रहा है। संख्या बल के न रहते चोर दरवाजे से जोड़-तोड़ द्वारा सत्ता पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा ही अधिनायकवाद का रूप धारण कर लेती है। क्या सोनिया भी इंदिरा के पद चिह्नों पर चलेंगी? जहां तक कम्युनिस्टों का सवाल है अधिनायकवाद उनके खून में है। अत: वंशवाद और अधिनायकवाद का यह अपवित्र गठबंधन भारत के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वंशवादी अधिनायकवाद या लोकतंत्र? भारत किधर जाएगा? इस चुनाव में मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्या वह उसे ठीक ढंग से निभाएगा? द (29 जून, 2007)10
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