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सम्पादकीय

by
Aug 4, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Aug 2007 00:00:00

मेरे निकट बिना मूल्य मिली जय से वह पराजय अधिक मूल्यवान ठहरेगी जो जीवन की पूर्ण शक्ति-परीक्षा ले सके।-महादेवी वर्मा (दीपशिखा, चिंतन के कुछ क्षण, पृ. 64)फैसला कुछ भी हो पर दर्द की दवा कहां है?सर्वोच्च न्यायालय ने अन्य पिछड़े वर्ग के बारे में आरक्षण पर तीखे प्रहार करते हुए कहा कि दुनिया में ऐसी कोई दूसरी जगह नहीं है जहां पिछड़ी जाति, वर्ग या समुदाय के आधार पर लोग खुद को ज्यादा से ज्यादा पिछड़ा घोषित करवाने के लिए कतार में खड़े रहते हों। अर्जुन सिंह ने अपनी घातक समाज-तोड़क नीतियों के अन्तर्गत जिस प्रकार अन्य पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण केन्द्रीय सहायता प्राप्त उच्च शिक्षण संस्थानों (आईआईटी, आईआईएम और आयुर्विज्ञान संस्थान) पर थोपा था उस पर रोक लगाते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने ठीक ही कहा है, “76 वर्ष पुरानी जनगणना ऐसे किसी भी आरक्षण का आधार नहीं बन सकती।” वास्तव में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सामाजिक और शैक्षिक स्तर को ऊपर उठाने हेतु आरक्षण को छोड़कर बाकी सब राजनीतिक विद्रूपता का ऐसा समाज-तोड़क खेल है जो प्रतिभा की बजाय अकुशलता को बढ़ावा देता है। लेकिन वोट राजनीति के अंधे कूप में धंसी राजनीति इस प्रश्न पर कभी भी स्पष्ट और निर्भीक रवैया लेने से कतराएगी।विडम्बना यह है कि इस आपाधापी में वंचितों, जिन्हें दलित भी कहा जाता है, के बारे में सम्यक विचार छूट जाता है। सबसे ज्यादा वे ही अन्याय, शोषण, अत्याचार और भेदभाव के शिकार हुए। किसी भी संगठन, दल, कार्यालय या सार्वजनिक और निजी संस्थाओं में उनकी सहभागिता नगण्य ही रहती है। देश में ऐसे कितने संस्थान होंगे जो यह दावा कर सकें कि वे समाज के पिछड़े, वंचित और दमित वर्ग के बच्चों को इस प्रकार से सुशिक्षित और सशक्त बना रहे हैं ताकि बड़े होकर वे अपने लिए आरक्षण की बैसाखी मांगने की जरुरत ही न समझें? जो भी इन वर्गों के विकास और उन्हें समाज के विकास की मुख्यधारा में शामिल करने की बातें करते हैं उनका अधिकांश व्यवहार वाणी-विलास ही बना रहता है। केवल हिन्दू नवोदय से जुड़े संगठन ही ऐसे अपवाद हैं जो वास्तविक अर्थों में इन वर्गों के लिए समरसता का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं, परंतु वह कार्य भी जितना होना चाहिए उससे बहुत कम हो रहा है। उसके मूल में हमारा अपना पाखंडपूर्ण दोहरा व्यवहार है। जब तक यह व्यवहार नहीं बदलेगा और पूज्य श्री गुरुजी के प्रखर विचारों के अनुरूप जाति भेद पर टिकी जुगुप्साजनक जीवन शैली हम अपने आसपास और अपने भीतर से खत्म नहीं करेंगे तब तक आरक्षण का खेल देश, समाज को विभक्त करता रहेगा।क्रिकेट, मूर्खताएं और मीडियाजीत गए तो सिर आंखों पर, हारे तो जूते, अर्थियां और मातम। इससे गिरा हुआ क्या और कोई बचकाना, आत्मविश्वासहीन व्यवहार हो सकता है? ठीक यही व्यवहार क्रिकेट के तथाकथित प्रेमियों पर पेज तीन मसालेदार मीडिया ने विश्व कप स्पर्धा में उतरी भारतीय क्रिकेट टीम के प्रति दिखाया। जीत जाते तो जीत जाते, हार गए तो क्या हुआ? देश सिर्फ 11 खिलाड़ियों की टीम पर ही टंगा है क्या? और हारना क्या इतना बुरा है कि आत्महत्या कर ली जाए? ठहारना चाहता कौन है? क्या वे सभी 11 जान-बूझकर या किसी सट्टे के दांव में उलझ कर हारे? जो उनसे सदा जीतने की अपेक्षा करते हैं वे अपने भीतर झांकें, अपनी जिंदगी के कामकाज को देखें और फिर अपने आप से पूछें कि वे क्या हमेशा सफल ही होते आए हैं, हमेशा जीतते ही रहे हैं और वे जब हारे हैं या गिरे हैं तो जान-बूझकर वैसा किया है क्या? जिस मीडिया ने विश्व कप का कृत्रिम, अस्वाभाविक उभार पैदा किया वह क्या प्रायोजित नहीं था? नहीं था, तो क्या उसने आत्ममंथन किया कि क्रिकेट स्पर्धा को देश के बाकी सब विषयों पर भारी बनाकर चढ़ाना कितना सही था कितना नहीं? एक ओर देश कश्मीर में हिन्दू हनन, राम सेतु विध्वंस, आतंकवाद और आरक्षण की आग तथा सेकुलर तालिबानीकरण के अन्तर्गत भारतीय स्वाभिमान पर चोट के दौर से गुजर रहा है, दूसरी ओर एक प्रतिशत से भी कम लेकिन धन, माध्यम, प्रभाव और मैकालेवादी बौद्धिक वर्चस्व वाले सामंतों ने 11 के खेल को पूरे देश के जनजीवन पर थोप दिया है।वूल्मर और तापसी मलिकयह ठीक है कि वूल्मर पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के प्रशिक्षक थे। उनकी हत्या में पाकिस्तानी खिलाड़ियों और दाउद गिरोह पर भी संदेह किया जा रहा है। सटोरियों का भी इसमें हाथ होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए खबर बड़ी बनती ही है। लेकिन खबर का संसार सिर्फ अमीरों और शहरियों तक ही केन्द्रित हो गया है, यह भी उतना ही सत्य है। किसी व्यक्ति की मृत्यु की जांच ठीक से करवाने, जल्दी करवाने और अभियुक्तों को उचित सजा दिलवाने के लिए उसका पैसे वाला होना जरूरी है। अगर ऐसा न हो तो तापसी मलिक, जो सिंगूर में अपने खेतों की रखवाली के लिए लड़ते-लड़ते माक्र्सवादी कोप का भाजन बनी, उसकी बर्बर हत्या कर दी गई, उसके बारे में किसी भी अखबार या चैनल पर न कोई चर्चा हुई, न मीडिया अभियान छेड़ा गया, न उसके, उसके परिवार, उसके आसपास के माहौल या उस पर हमला करने वालों के बारे में कोई खोजबीन परक रपट ही छपी। मर गई तो मर गई। दो एक बार छपा पर मामला रह-रहकर उन्हीं पर केन्द्रित होता है जो सत्ता, धन और प्रभाव के मामले में ऊंची सीढ़ी पर हैं।5

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