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नंदीग्राम मेंमाक्र्सवाद ही ढह गयादेवेन्द्र स्वरूप14मार्च, 2007 को प. बंगाल के नंदीग्राम में राज्य पुलिस और बाहरी जिलों से बटोरे गये माकपाई गुंडों ने बिना किसी तात्कालिक उत्तेजना के निहत्थे गांववासियों पर सुनियोजित आक्रमण किया, पुलिस ने गोलियां बरसायीं, लाल झंडा धारी गुंडों ने गांवों में आग लगाई, चीखती-चिल्लाती महिलाओं के साथ बलात्कार किया। किसी कम्युनिस्ट सरकार के निहत्थे गांववासियों पर अत्याचार के वे खौफनाक दृश्य टेलीविजन चैनलों पर पूरे देश और विश्व ने अपनी आंखों से देखे। इस नरमेध में सरकारी आंकड़ों के अनुसार केवल 14 ग्रामीण मरे और 208 घायल हुए। किन्तु पुराने माक्र्सवादी चिन्तक स्व. निखिल चक्रवर्ती व कम्युनिस्ट सांसद स्व. श्रीमती रेणु चक्रवर्ती के पुत्र सुमित चक्रवर्ती, जो वामपंथी साप्ताहिक “मेनस्ट्रीम” के सम्पादक हैं, के अनुसार इस नरमेध में 300 से 500 तक ग्रामीण मारे गए और अनगिनत संख्या में घायल हुए (जनसत्ता, 29 मार्च)।यह कांड चीन के कम्युनिस्ट शासकों द्वारा 3 जून, 1989 को रचे गए थियेनमन नरमेध और स्तालिन युग के सोवियत रूस में भयंकर दमन और उत्पीड़न की याद को ताजा कराता है। अब से पचास साल पहले और स्तालिन की मृत्यु के तीन वर्ष बाद सन् 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में जब निकिता ख्रुश्चेव ने स्तालिन युग के भयंकर उत्पीड़न और नरसंहार पर से पहली बार परदा उठाया तो सभागार में सन्नाटा पसर गया, उस सन्नाटे को केवल दबी हुई सुबकियां चीर रही थीं। तभी उस सन्नाटे में एक आवाज गूंजी, “कामरेड ख्रुश्चेव! तुम उस समय क्यों खामोश रहे?” ख्रुश्चेव ने कड़कदार आवाज में कहा, “कौन हो तुम? जरा खड़े हो जाओ।” फिर और गहरा सन्नाटा। कोई नहीं उठा, कोई नहीं बोला। ख्रुश्चेव ने कहा, “कामरेड, जो तुम इस समय कर रहे हो वही मैं उस समय कर रहा था।” स्तालिन युग में किसानों, मजदूरों, बुद्धिजीवियों के नरमेध और उत्पीड़न का तथ्यात्मक वर्णन करने वाली “ब्लैक बुक आफ कम्युनिज्म” जैसी अनेक पुस्तकें अब उपलब्ध हैं। बोरिस पास्तरनेक और अलेक्जेंडर सोल्झेनित्सिन जैसे श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों के मार्मिक आत्मकथ्य प्राप्य हैठ्ठ। उस युग में किसी बुद्धिजीवी का भविष्य क्या था इसका एक ही उदाहरण देना पर्याप्त होगा। डा. रियाजानेव नामक बुद्धिजीवी 1917 में लेनिन के हाथ में रूस की सत्ता आने से पहले से माक्र्स और एंगिल्स के सम्पूर्ण लेखन के अधिकारी विद्वान माने जाते थे। लेनिन ने उन्हें ही 1919 में मास्को में स्थापित माक्र्स-एंगिल्स इन्स्टीटूट व अभिलेखागार का “डायरेक्टर” बनाया, उन्हें सोवियत संघ का सर्वोच्च सम्मान दिया गया। किन्तु लेनिन के बाद स्तालिन की नीतियों से मतभिन्नता होने पर 1931 में उन्हें अचानक गिरफ्तार करके साईबेरिया के किसी यातना शिविर में निर्वासित कर दिया गया और वे सदा के लिए गुमनामी के अंधेरे में खो गए। ऐसी अनेक वीभत्स कथाएं कम्युनिज्म के इतिहास में भरी हुई हैं।पर, प. बंगाल पूरा भारत नहीं है। और भारत ने अधिनायकवादी नहीं, लोकतंत्रीय व्यवस्था को अपनाया है। किन्तु यदि लोकतंत्रीय भारत के एक राज्य में तीस वर्ष तक सत्तारूढ़ रहने के बाद भी कोई कम्युनिस्ट सरकार अपनी ही प्रजा पर इतना जुल्म ढा सकती है, उसके सर्वोच्च नेता उस पर शर्मिन्दा होने के बजाए उस नरमेध को सही ठहरा सकते हैं, उसके लिए ग्रामवासियों को ही दोषी बता सकते हैं। अपने एकपक्षीय आक्रमण को साम्प्रदायिक धर्मांध तत्वों के षडंत्र की प्रतिक्रिया कह सकते हैं। तो यदि पूरे भारत पर उनका राज्य स्थापित हो जाता तो अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं करते, कितना उत्पीड़न और रक्तपात मचाते, इसकी कल्पना मात्र से ही मन कांप जाता है।लोकतंत्र का प्रतापयह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही प्रताप है कि भारत के मीडिया ने नंदीग्राम के वीभत्स दृश्यों को पूरे विश्व के सामने ला दिया। प. बंगाल के राज्यपाल श्री गोपाल गांधी ने अपने क्षोभ और पीड़ा को सार्वजनिक अभिव्यक्ति दी। कोलकाता उच्च न्यायालय ने अगले ही दिन (15 मार्च) सी.बी.आई. द्वारा इस अमानवीय घटना की जांच कराने का आदेश दे दिया और सी.बी.आई ने 18 मार्च को ही पहली जांच रपट दे दी, जिसमें माकपा के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच सांठ-गांठ का तथ्य प्रमाणित हो गया। इस रपट से घबराकर प. बंगाल सरकार के मुख्य सचिव ने स्पष्टीकरण दिया कि 14 मार्च की कार्रवाई पूरी तरह मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की सलाह से व उनकी जानकारी में की गई थी।ये सब तथ्य प्रकाश में आने के बाद मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की मांग उठना स्वाभाविक थी। किन्तु त्यागपत्र देने के बजाए मुख्यमंत्री और माकपा ने अपनी कार्रवाई को सर्वथा उचित ठहराया, त्यागपत्र न देने का निश्चय घोषित किया, वाममोर्चे के अन्य घटकों पर दबाव डाला कि वे मुख्यमंत्री की सार्वजनिक आलोचना न करें। आर.एस.पी. नेता एवं बंगाल के पी.डब्ल्यू.डी मंत्री क्षिति गोस्वामी ने बताया कि माकपा ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया है। माकपा की बंगाल केन्द्रीय समिति के सदस्य एवं वरिष्ठ नेता विनय कोनार ने सहयोगी दलों को सार्वजनिक धमकी दी कि माकपा से अलग जाकर उनका कोई भविष्य नहीं है। कोनार ने मुख्यमंत्री को सलाह दी कि वे इन दलों के साथ मिलकर प्रेस कांफ्रेंस करें। इस पर क्षिति गोस्वामी ने कहा कि यदि हमारी कोई जरूरत नहीं है तो माकपा हमें साथ रखने के लिए इतनी व्यग्र क्यों रहती है। भाकपा के नन्द गोपाल भट्टाचार्य ने कहा कि यदि इस प्रश्न पर वाम मोर्चा टूटता है तो टूटने दो। ए.बी. वर्धन ने धमकी दी कि यदि नन्दी ग्राम दोहराया गया तो हम सरकार से अलग हो जाएंगे। किन्तु इस धमकी को क्रियान्वित करने का साहस किसी दल में नहीं हुआ, क्योंकि सत्ता की गोंद उन्हें जोड़े हुए है। प. बंगाल सरकार ने नंदीग्राम नरमेध की स्वयं तो जांच कराई ही नहीं, उच्च न्यायालय के आदेश को भी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली और उस कांड पर लीपापोती करने के लिए 500 पृष्ठों का भारी भरकम शपथ पत्र उच्च न्यायालय पर थोप दिया। यह एक रहस्य ही है कि जिस कोलकाता उच्च न्यायालय ने अगले ही दिन 15 मार्च को सी.बी.आई. से जांच कराने के आदेश दिए थे, उसी ने 24 मार्च को सी.बी.आई. की रपट पर कोई बहस न करने का आदेश जारी कर दिया। अब माकपा सोनिया पार्टी पर दबाव बना रही है कि वह केन्द्र में हमारे कंधों पर टिकी अपनी अल्पमत सरकार को बचाने के हित में नंदीग्राम की सार्वजनिक आलोचना के स्वर को बंद करे। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अभी तक मौन हैं और सोनिया ने चारों तरफ से मांग होने पर भी नंदीग्राम के घावों पर मरहम लगाने के लिए वहां जाना उचित नहीं समझा। सोनिया पार्टी की चुप्पी और वाम मोर्चे के अन्य घटकों की कमजोर प्रतिक्रिया का एक ही अर्थ है कि राजनीतिक नेताओं और दलों का रूख सत्ता-समीकरणों से बंधा होता है। इससे ऊपर उठने की उनसे अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। शायद इसी कारण कई नक्सली गिरोह एवं माले जैसी कम्युनिस्ट पार्टियां जो स्वयं को सच्चा माक्र्सवादी कहती हैं और जिनका विश्वास है कि सच्चे माक्र्सवाद की स्थापना खूनी रास्ते से ही हो सकती है, यह आशा लेकर चल रही हैं कि वाममोर्चे के नेतृत्व से मोहभंग होने के बाद उनका कार्यकर्ता वर्ग अब हमारे खूनी रास्ते पर दौड़ा आएगा। माले के सचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने यह आशावाद सार्वजनिक रूप से प्रगट किया।सत्ता की मजबूरीनंदीग्राम की विशेषता है कि वहां मुस्लिम जनसंख्या बहुत अधिक है और वहां विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) की स्थापना के निर्णय से मुस्लिम कृषक बड़ी संख्या में प्रभावित हो रहे थे। इसलिए जमीयत-उल-उलेमा, जो अब तक माकपा की पक्की मित्र मानी जाती थी और जिसके कारण नन्दीग्राम क्षेत्र, सुमित चक्रवर्ती के कथनानुसार, स्वतंत्रता पूर्व से ही कम्युनिस्ट पार्टी का गढ़ रहा है, अब खुलकर माकपा के विरुद्ध खड़ी है। उसने कोलकाता में राइटर्स बिÏल्डग के सामने मुसलमानों का विशाल प्रदर्शन आयोजित करके माकपा नेतृत्व के होश फाख्ता कर दिये। उन्हें सत्ता खोने का डर सताने लगा। 93 वर्षीय वयोवृद्ध ज्योति बसु ने पार्टी के मुखपत्र “गणशक्ति” में लेख लिखा कि हम जनभावनाओं को समझने में असफल रहे। उन्होंने वाममोर्चे को बिखरने से रोकने की कोशिश भी की। फलत: मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नंदीग्राम नरमेध के 14 दिन बाद 27 मार्च को पार्टी के छात्र संघ और युवा संघ की संयुक्त रैली में पहली बार 14 मार्च के कांड की व्यक्तिगत जिम्मेदारी ली और नंदीग्राम में सेज के कार्यक्रम को बन्द करने की औपचारिक घोषणा कर दी।इसे भारतीय लोकतंत्र की विजय तो कहा जा सकता है, सत्ता में बने रहने की मजबूती भी हो सकती है। किन्तु इसमें वैचारिक आत्मालोचन की गंध कतई नहीं है। प्रश्न यह है कि यदि माकपा को प. बंगाल में सत्ता में बने रहने के लिए पूंजीवादी औद्योगिकीकरण का रास्ता अपनाना है, टाटा, जिन्दल और रिलायंस आदि भारतीय उद्योगपतियों, इन्डोनेशिया के सलीम ग्रुप, यहां तक कि अमरीकी पूंजी के सहारे ही बंगाल का औद्योगिकीकरण करना है तो फिर “माक्र्सवाद” का आवरण बनाये रखने का औचित्य क्या है? माक्र्सवाद की मूल मान्यता है सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व को समाप्त करना। रूस और चीन में यह प्रयोग लम्बे समय तक चलाने का परिणाम क्या निकला। वहां माक्र्सवादी शासन तो ढह गया और अब तो चीन ने “कम्युनिस्ट पार्टी और लाल झंडे” का आवरण बनाए रखकर भी सम्पत्ति पर व्यक्तिगत स्वामित्व का कानून पास कर दिया है। जो रूस और चीन में हुआ, वही नंदीग्राम और सिंगूर में हुआ। किसान का अपनी जमीन से लगाव कितना गहरा होता है यह वहां प्रगट हो गया। किन्तु भारत के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी अभी भी माक्र्स, एंगिल्स, लेनिन और माओ के कालबाह्र उदाहरणों की तोतारटन्त करते रहते हैं। अब अपनी विचारधारा की व्याख्या करने के बजाय उनका माक्र्सवाद केवल संघ-परिवार और हिन्दुत्व को गालियां देने तक सीमित रह गया है। माक्र्स और एंगिल्स के पत्राचार को पढ़ने से पता चलता है कि उनकी विचार यात्रा उन्नीसवीं शताब्दी की यूरोपीय विचार यात्रा का अनुसरण कर रही थी। 1859 में चाल्र्स डार्विन का विकासवाद का सिद्धान्त प्रकाशित हुआ तो माक्र्स ने गद्गद् होकर एंगिल्स को पत्र लिखा। 1877 में अमरीकी नृवंश शास्त्री लेविस मार्गन की “एन्शियेंट सोसायटी” प्रकाशित हुई तो माक्र्स को नया प्रकाश मिला और एंगिल्स ने उसी पुस्तक के आधार पर 1884 में “परिवार, निजी सम्पत्ति और राष्ट्र की उत्पत्ति” शीर्षक पुस्तक लिखी जो माक्र्सवादी विचारधारा का स्तंभ बन गई। यदि माक्र्स और एंगिल्स पिछले सौ वर्षों में विज्ञान, टेक्नालाजी, अर्थरचना और सामाजिक मनोविज्ञान की प्रगति के साक्षी होते तो उनकी विचारधारा क्या होती, इसका कोई विचार माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों में नहीं दिखाई देता।सरकारी बुद्धिजीवीकिन्तु हमें प्रसन्नता है कि नंदीग्राम के नरमेध से पहले ही दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. सुमित सरकार, जे.एन.यू. में प्रोफेसर उनकी पत्नी तनिका सरकार, सुमित चक्रवर्ती, सुनील गंगोपाध्याय, महाश्वेता देवी जैसे मूर्धन्य माक्र्सवादी बौद्धिकों ने एक जांच दल बनाकर 26 जनवरी को नंदीग्राम जाकर वहां की स्थिति का अध्ययन किया और अपनी जांच रपट प्रकाशित कर दी जिसका माकपा के पदासीन बुद्धिजीवियों-प्रकाश करात, उनकी पत्नी वृन्दा करात और सीताराम येचुरी ने स्वागत करना तो दूर उस रपट की आलोचना में ही अपनी पूरी बुद्धि खर्च कर दी। वृन्दा करात ने तो उस जांच दल में सम्मिलित अपनी एक मानवाधिकारवादी मित्र को यहां तक धकमी दे दी कि इस रपट के बाद तुम्हारी मेरी मित्रता का कोई आधार नहीं रह जाता। यह है वैज्ञानिक समाजवादी मानसिकता। सुमित चक्रवर्ती और उनकी मेनस्ट्रीम को यह श्रेय देना होगा कि वे माकपा की सत्तालोलुप जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध वामपंथी बौद्धिकों की चिंता व आक्रोश को अभिव्यक्ति दे रहे हैं। किन्तु माक्र्सवाद की बुनियादी बौद्धिक स्थापनाओं के बारे में पुनर्विचार की कोई गंभीर प्रक्रिया अभी उनके यहां भी नहीं दिखाई देती। सच्चे बुद्धिजीवी का धर्म है कि वह तत्व निष्ठा की कसौटी पर दल का मूल्यांकन करें और मानव ज्ञान व अनुभव की प्रगति के आलोक में विचारधारा का मूल्यांकन करें।इस कसौटी पर प्रभात पटनायक, उत्स पटनायक, डी.एन. झा जैसे बुद्धिजीवी कहां ठहरते हैं, जिन्होंने नंदीग्राम नरमेध के 10 दिन बाद माकपा की वकालत की है। उन्हें देखकर स्तालिन युग के सरकारी बुद्धिजीवियों का स्मरण आ जाता है। कुछ समय से हम देख रहे हैं कि माकपा के सरकारी बुद्धिजीवियों की जगह पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इरफान हबीब, इकबाल हुसैन और शिरीन मूसवी, जे.एन.यू. के प्रभात और उत्स पटनायक और दिल्ली विश्वविद्यालय के डी.एन.झा व के.एम. श्रीमाली ने कब्जा कर लिया है। यह गिरोह सहमत, तूलिका प्रकाशन, सोशल साइंटिस्ट पत्रिका व अलीगढ़ हिस्टोरियन्स सोसायटी जैसे कई मंच संभालता है और आई.सी.एच.आर. जैसी संस्थाओं के माध्यम से खूब पैसा बटोरता है। यह गिरोह कैसे काम करता है इसका नमूना देखिए। 2004 में सत्ता परिवर्तन होते ही सहमत ने पुराने लेखों का एक छोटा संकलन गांधी जी पर प्रकाशित किया। इसके लिए आई.सी.एच.आर. से 40,000 रुपए का अनुदान किन्हीं राजेन्द्र प्रसाद ने लिया जो तूलिका नामक प्रकाशन गृह के मैनेजर हैं। यह प्रकाशन गृह “सोशल साइंटिस्ट” छापता है, जिसके संपादक प्रभात पटनायक हैं। इकबाल हुसैन द्वारा संपादित “कार्ल माक्र्स आन इंडिया” के प्रकाशन के लिए 75,000 रुपए का अनुदान आई.सी.एच.आर. से इरफान हबीब ने लिया और उसका सर्वाधिकार इरफान हबीब की जेबी संस्था “अलीगढ़ हिस्टोरियन्स सोसायटी” ने ले लिया। इस ग्रन्थ का प्रकाशन “तूलिका” ने किया जिसके मैनेजर राजेन्द्र प्रसाद हैं। कैसा सुन्दर गठबंधन है। 1857 की 150 वीं वर्षगांठ के नाम पर भी करोड़ों रुपए का अनुदान मिल रहा है। माकपा के मुखपत्र “पीपुल्स डेमोक्रेसी” में इरफान साहब बार-बार छप रहे हैं। नाम भी और दाम भी। अगर माकपा की वकालत करने से दोनों हाथों में लड्डू आते हों तो ऐसी वकालत में क्या हानि है? शायद स्तालिन भक्त बुद्धिजीवी भी ऐसा ही सोचते होंगे। द (29 मार्च, 2007)21
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