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मंथन

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Jun 5, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Jun 2007 00:00:00

2007 के द्वारे 1857 की दस्तकदेवेन्द्र स्वरूपकिन्तु इस दस्तक का अर्थ क्या है? 1857 ने ऐसी दस्तक पहली बार नहीं दी। आधी शताब्दी बाद 1907 में जब उसने दस्तक दी तब भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई जारी थी। तब लंदन में इकट्ठे भारतीय देशभक्तों ने वीर सावरकर के नेतृत्व में 1857 के शहीदों के रक्त की कसम खाकर इस लड़ाई को पूर्णता पर पहुंचाने का संकल्प लिया। सावरकर ने गहन शोध करके 1857 पर अंग्रेज इतिहासकारों द्वारा आरोपित केवल उत्तरी भारत के एक छोटे से भाग तक सीमित आकस्मिक निरुद्देश्य सिपाही विद्रोह की छवि को भेदकर एक सुनियोजित, सुनिश्चित लक्ष्य से प्रेरित “प्रथम भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध” का तेजस्वी चित्र उभार कर ब्रिटिश शासकों को हतप्रभ कर दिया। पुस्तक के प्रकाशन की अफवाह मात्र से बौखलाई सरकार ने पुस्तक का नाम, प्रकाशक एवं उस पर मुद्रित लेखक का नाम जाने बिना ही किसी पुस्तक पर प्रकाशन-पूर्व प्रतिबन्ध लगाने का विश्व रिकार्ड स्थापित कर दिया। गुप्त रूप से छपी वह पुस्तक क्रान्तिकारियों की गीता और स्वतंत्रता संग्राम की पथ-प्रदर्शक बन गई। 10 मई 1908 को 1857 की अगली बरसी के अवसर पर सावरकर ने “ओ शहीदो!” शीर्षक से एक अग्निगर्भा पेम्फ्लेट में लिखा, “क्या संसार कहेगा कि भारत ने अपनी पराजय को अंतिम मान लिया? क्या 1857 के शहीदों का रक्त बेकार जायेगा? क्या भारत के सपूत अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा को पूरा नहीं करेंगे? नहीं, हिन्दुस्थान की सौगन्ध, कदापि नहीं। भारत राष्ट्र की इतिहास धारा खण्डित नहीं हुई है। 10 मई, 1857 को शुरू हुआ स्वतंत्रता युद्ध 10 मई, 1908 को थमा नहीं है, न यह तब तक थमेगा जब कोई 10 मई उस लक्ष्य की पूर्ति का संदेश लेकर आयेगी, जब भारत के माथे पर विजय का मुकुट सजा होगा या शहादत का आभामंडल होगा।” 1857 की उस दस्तक का अर्थ था उसके वास्तविक स्वरूप का दर्शन और भावी संघर्ष का संकल्प।मास्को भक्त भारतीय कम्युनिस्ट1857 ने दूसरी दस्तक दी सौ साल बाद 1957 में। तब हम विभाजन के खूनी दरिया को तैर कर स्वतंत्रता की दहलीज में प्रवेश कर चुके थे। तब हमारे मन 1857 के प्रति कृतज्ञता से भरे थे। कृतज्ञ स्वतंत्र भारत ने पूरे जोशो-खरोश के साथ 1857 की शताब्दी को मनाया। देशभर के अभिलेखागारों में बिखरे नए स्रोतों की खोज हुई। तब यह सत्य उभर कर सामने आया कि 1857 की तैयारी केवल उत्तर भारत तक सीमित नहीं थी। भारत के प्रत्येक कोने में उसकी सुगबुगाहट किसी न किसी रूप में हुई थी। असम से गुजरात तक और उत्तर पश्चिमी सीमान्त से तमिलनाडु और केरल तक 1857 की क्रान्ति का दबा स्वर गूंजा अवश्य था। नए स्रोतों के आधार पर इतिहासकारों ने सिद्ध किया कि 1857 का संग्राम केवल सामन्ती वर्ग और सैनिकों तक सीमित नहीं था तो उसने जनक्रांति का रूप धारण कर लिया था। किन्तु तब भी भारत सरकार के इतिहासकार एस.एन. सेन और मूर्धन्य इतिहासवेत्ता डा. आर.सी. मजूमदार इसे “सिपाही विद्रोह से आगे” स्वतंत्रता संग्राम घोषित करने को तैयार नहीं थे। उसे “सिपाही विद्रोह” कहें या “स्वतंत्रता संग्राम” इस प्रश्न को लेकर डा. आर.सी मजूमदार और उनके शिष्य डा. शशि भूषण चौधरी में लम्बी बहस चली जो अन्तत: सावरकर द्वारा स्थापित “स्वतंत्रता संग्राम” नामकरण के पक्ष में गई। तब तक भारत में कम्युनिस्ट इतिहासकारों की टोली भी मैदान में उतर चुकी थी। यद्यपि 1922 में एम.एन.राय और 1940 में रजनी पाम दत्त ने 1857 को सामन्ती और प्रगति विरोधी विद्रोह की श्रेणी में रखा था, किन्तु 1953 के बाद सोवियत संघ द्वारा अमरीकी दैनिक “न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून” में 1857-1859 में भारतीय क्रांति के बारे में प्रकाशित समकालीन अग्र लेखों एवं अनाम रपटों के लेखन का श्रेय माक्र्स और ऐगिल्स को देने के प्रयास के कारण मास्को भक्त भारतीय कम्युनिस्टों का 1857 को देखने का चश्मा यकायक बदल गया। शताब्दी वर्ष 1957 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र “न्यू एज” ने विशेषांक निकाला और कम्युनस्टि नेता पी.सी.जोशी ने शोध लेखों का एक संकलन सम्पादित किया, किन्तु उसे “1857-बगावत” जैसा शीर्षक देने से आगे जाने का साहस वे नहीं बटोर सके। 1857 के शताब्दी वर्ष के प्रति भारत सरकार एवं जनता के भारी उत्साह से प्रभावित होकर सोवियत रूस ने 1960 में मास्को से “न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून” में प्रकाशित सामग्री के लेखन को माक्र्स और ऐगिल्स के खाते में डालकर जो पुस्तिका प्रकाशित की उसे शीर्षक दिया “भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम”। यह सावरकर की इतिहास दृष्टि की भारी विजय है कि सावरकर विरोधी भारतीय कम्युनिस्टों ने 2007 में 1857 की तीसरी दस्तक के समय सावरकर द्वारा किये गये नामकरण को शिरोधार्य कर लिया है। किन्तु यहां भी उनकी माक्र्स और ऐगिल्स की अन्ध मूर्ति पूजा का ही प्रमाण मिलता है क्योंकि माक्र्स ऐगिल्स के तथाकथित लेख संग्रह को मास्को ने यह नाम दिया है इसलिए भारतीय कम्युनिस्ट उसे आंख मूंद कर क्यों न स्वीकार करें? अब तो 1857 की 150वीं वर्षगांठ का उन्माद कम्युनिस्टों पर इस कदर हावी दिखता है कि माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साप्ताहिक अंग्रेजी मुखपत्र “पीपुल्स डेमोक्रेसी” 22 जनवरी से अब तक प्रत्येक अंक में अपने 16 में से 2 या 3 पृष्ठ 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को ही समर्पित कर रहा है और एक बड़ा विशेषांक निकालने की भी उसने घोषणा कर दी है।सरकारी तमाशा1857 के प्रति माकपा के इस उन्माद का राजनीतिक उद्देश्य क्या है, 1857-59 में एक अमरीकी दैनिक पत्र में प्रकाशित लेखों में माक्र्स की मृत्यु के 80 साल बाद माक्र्स के खाते में डालने की अन्तर्कथा क्या है, गंभीर शोध के इस विषय को यहां स्पर्श न करते हुए हम यहां केवल यह प्रश्न उठाना चाहते हैं कि 1857 की इस तीसरी दस्तक का स्वाधीन भारत के लिए अर्थ क्या है, सन्देश क्या है? सिद्धान्तहीन, सत्तालोलुप दलीय राजनीति की दलदल में फंसा भारत क्या 1857 की 150वीं वर्षगांठ और शहीद भगत सिंह व सुखदेव के शताब्दी वर्ष को भी दलीय राजनीति के चश्मे से ही देखे? क्या शहीदों की चिताओं पर हम दलीय राजनीति की रोटियां सेकें? भारत सरकार ने जनकोष से 100 करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा कर दी है। क्या गरीब जनता के इस धन को हम सेमीनारियों, पत्रकारों, लेखकों के हवाले कर दें, क्या कुछ महत्वाकांक्षियों के लिए भगत सिंह पीठ का निर्माण कर दें, क्या कवि सम्मेलनों, मुशायरों, नुमायशों, प्रायोजित रैलियों, पुरस्कार वितरण आदि का तमाशा करके अपनी पीठ ठोंक लें? स्वतंत्रता आन्दोलन के इन महत्वपूर्ण अध्यायों की याद जगाने के लिए भारत सरकार की कार्यशैली से स्पष्ट है कि उसका उद्देश्य इतिहास से सबक सीखना नहीं बल्कि दलीय स्वार्थों के लिए इतिहास की पीठ पर सवारी करना है। इन प्रसंगों को मनाने के लिए सरकार ने 60 सदस्यों की जो भारी भरकम समिति बनाई उसमें अधिकांशत: एक ही खेमे के इतिहासकारों एवं राजनीतिज्ञों को रखा। उस समिति में रखे गये रोमिला थापर और नयनकान्त लाहिड़ी जैसे इतिहासकारों का 1857 के इतिहास से कुछ लेना देना नहीं, वे या तो पुरातत्वविद् हैं या प्राचीन इतिहास के विशेषज्ञ। सरकारी इतिहासकार की भूमिका निभा रहे हैं शशिभूषण वाजपेयी, जिनके इतिहास ज्ञान का खुलासा स्वदेशी आंदोलन के शताब्दी दिवस पर उठे विवाद से हो गया था। 6 मार्च को समारोह समिति की बैठक में शशिभूषण वाजपेयी ने सुझाव दिए कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भगत सिंह पीठ और इन्दिरा गांधी खुला विश्वविद्यालय में बहादुरशाह जफर पीठ की स्थापना की जाए। बहादुरशाह जफर के अवशेषों को म्यांमार से भारत लाकर पुनस्र्थापित किया जाए। लाल किले को छोड़ने के बाद जफर जहां ठहरे थे उसे भव्य स्मारक का रूप दिया जाए। यानी वे 1857 की दस्तक को केवल बहादुरशाह जफर की याद तक सीमित करना चाहते हैं। युवा एवं खेल मामलों के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने सुझाव दिया कि 10 मई को लाल किले पर बड़ा समारोह किया जाए। उसमें भाग लेने के लिए देशभर से नेहरू युवा केन्द्रों एवं साथियों के माध्यम से 30,000 चुने हुए वालंटियरों को मेरठ में इकट्ठा किया जाए। वे 6 से 10 मई तक मार्च करते हुए धूमधाम से दिल्ली के समारोह में प्रवेश करें। इस तमाशे को “साझी शहादत-साझी विरासत” जैसा मोहक नाम दिया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव ने घोषणा कर दी कि इन युवाओं के लिए मेरठ छावनी क्षेत्र में स्वागत द्वारों का निर्माण होगा, हरेक 500 मीटर पर पानी की व्यवस्था की जाएगी, आकस्मिक चिकित्सकीय सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाएंगी। मेरठ से दिल्ली तक 58 ठहराव केन्द्रों पर स्वास्थ्य शिविर लगाये जायेंगे जहां डाक्टर रहेंगे। प्रत्येक जत्थे के साथ एक एंबुलेंस तथा प्रत्येक किलोमीटर पर तम्बू लगा कर पानी और ग्लूकोज की व्यवस्था सुनिश्चित कराई जाएगी। मेरठ से दिल्ली सीमा तक पूरे मार्ग की सुरक्षा व्यवस्था के लिए महिला पुलिस के साथ-साथ पर्याप्त पुलिस बल की व्यवस्था रहेगी। क्या सरकारी खर्चे से जुटाये गये 30,000 युवकों की दिल्ली यात्रा का यह प्रबन्ध किसी शाही विवाह जलूस का स्मरण दिलाता है या 1857 की 10 मई को मेरठ से दिल्ली के लिए विद्रोही सैनिकों की चिलचिलाती धूप में नंगे पैरों यात्रा का? अभी से महत्वाकांक्षी बौद्धिकों ने इन पीठों पर कब्जा जमाने के लिए व्यूह रचना शुरू कर दी है। शहीद भगत सिंह पीठ के एक प्रत्याशी ने तो अखबारों के माध्यम से स्वयं को भगत सिंह पर एकमात्र विशेषज्ञ के रूप में प्रक्षेपित करना शुरू कर दिया है। 1857 के स्वातंत्र्य समर एवं भगत सिंह की शहादत पर विचारधारा का रंग चढ़ाना भी तेजी से शुरू हो गया है। जमाते -इस्लामी के मुखपत्र रेडियेन्स ने 31 दिसम्बर 2005 को ही 1857 पर विशेषांक निकालने की पहल कर दी। इस विशेषांक में संयोजित सामग्री 1857 का पूरा श्रेय मुस्लिम नेतृत्व को देती है। जमीयत-उल-उलेमा की भारत और पाकिस्तान की शाखायें भी इस वर्षगांठ को इकट्ठा मनाने की योजना बना रही हैं। कम्युनिस्ट पार्टियां भगत सिंह और 1857 पर अपना रंग चढ़ाने पर तुली हैं। वे उनकी शहादत के प्रति युवकों की भावुक श्रद्धा को कम्युनिज्म की मरी हुई बन्दरिया के प्रति प्यार में बदलने की कोशिश में लगे हैं। नक्सलवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने भोले भाले भावुक युवकों को रिझाने के लिए शहीद भगत सिंह की “नौजवान भारत सभा” को पुनरुज्जीवित कर लिया है। वह “प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) यादगार समिति” के बैनर तले नौजवान भारत सभा के नाम से इकट्ठे किये गये 30-40 युवकों का साईकिल मार्च मेरठ से दिल्ली तक निकालने की तैयारी कर रहा है। इस मार्च के नारे होंगे अमरीका के नव-साम्राज्यवाद का विरोध, भारत में सेज के लिए किसानों की जमीन के अधिग्रहण का विरोध। पाकिस्तान में भी 1857 को लेकर बहुत उत्साह है। वहां से कवि, नाटककर्मी, व लेखक भारत आ रहे हैं। संयुक्त कार्यक्रमों की योजना बना रहे हैं। उनका मुख्य उद्देश्य है 1857 पर मुस्लिम रंग चढ़ाना पर भारत के सेकुलरवादी हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर इन कार्यक्रमों को पूरा सहयोग देंगे। उनका एकमात्र राजनीतिक उद्देश्य मुस्लिम समर्थन और हिन्दू विरोध है।दृष्टि-भ्रम का शिकारकिन्तु 1857 की दस्तक का अर्थ इससे कहीं व्यापक और मूलगामी है। यह दस्तक चाहती है कि हम 1857 की प्रेरणाओं की वस्तुपरक कारण-मीमांसा करें, उसकी सफलता-असफलता का सही-सही आकलन करें। 1857 किन अर्थों में सफल रहा, किन अर्थों में असफल? यदि 1857 न होता तो भारत का चित्र क्या होता? 1857 से अंग्रेजों ने क्या सबक लिया? 1857 की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए उन्होंने क्या नीतियां अपनाईं? किन संरचनाओं और संस्थाओं का बीजारोपण किया? यदि 1857 को 1757 के प्लासी के विश्वासघात से आरम्भ हुए ब्रिटिश सैनिक विस्तारवाद की पूर्णता के रूप में देखा जाए तो इस निर्णायक सैनिक विजय को भारत की स्थाई सांस्कृतिक विजय में परिणत करने के लिए ब्रिटिश शासकों ने कौन कौन से उपाय अपनाये? उस सांस्कृतिक विजय की बौद्धिक आधारशिलायें किस प्रकार रखीं? भारतीय मस्तिष्क में अपनी अस्मिता, अपनी परंपरा के बारे में क्या दृष्टि-विभ्रम पैदा किया? स्वाधीनता प्राप्ति के 60 वर्ष बाद भारत क्या उसी दृष्टि विभ्रम का शिकार नहीं है? क्या ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा आरोपित संरचनाओं, नीतियों और संस्थाओं का ही बन्दी नहीं बना हुआ है? क्यों ऐसा हुआ कि जाति-विहीन समाज का सपना लेकर जो भारत चला वह आज स्वयं को बुरी तरह जातिवाद का बन्दी पा रहा है?1857 में जाति चेतना ने पूरे समाज को ब्रिटिश दासता के विरुद्ध एकजुट किया था तो आज जातिवाद समाज के विखण्डन का मुख्य कारण बन गया है। 1951 की जनगणना में जाति को अस्वीकार किया गया तो अब हमारे बुद्धिजीवी, वी.पी.सिंह जैसे राजनेता और क्रिस्टोफर जेफरलाट जैसे विदेशी विशेषज्ञ जाति आधारित जनगणना को अपनाने का आग्रह कर रहे हैं? क्या इन प्रश्नों पर गहरा विचार-मंथन आवश्यक नहीं है? अगले अंक में हम इस दिशा में विचार आरंभ करेंगे। (26 अप्रैल, 2007)14

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