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1857 का उभारवैचारिक पक्ष कहां था?-सूर्यकान्त बालीवरिष्ठ पत्रकार1857की राष्ट्रव्यापी हलचल का, जिसे वी

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Jun 5, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Jun 2007 00:00:00

1857 का उभारवैचारिक पक्ष कहां था?-सूर्यकान्त बालीवरिष्ठ पत्रकार1857की राष्ट्रव्यापी हलचल का, जिसे वीर सावरकर ने “भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम” माना है, विचारधारा-परक अध्ययन करने के लिए और अपने प्रिय पाठकों को इस तरह के अध्ययन की आवश्यकता के प्रति सचेत करने के लिए हम अपने इस लेख की शुरुआत छह-सात प्रश्नों से करते हैं। सवाल हैं – अगर अंग्रेजों ने भारत में गोद लेने की प्रथा के खिलाफ राज्य हड़पू कानून न बनाया होता तो क्या 1857 का तथाकथित स्वातंत्र्य संग्राम होता? अगर अंग्रेजों ने अवध के वाजिद अलीशाह का राज्य हड़पकर वहां लूटपाट न मचाई होती और अवध के नवाब की बेगमों को इस कदर बेइज्जत न किया होता तो क्या अंग्रेजों के खिलाफ उस कथित आजादी की लड़ाई में अवध का नवाब शामिल होता? अगर अंग्रेजों ने अपनी स्वभावगत जातीय चतुराई का सहारा लेते हुए पेशवा बाजीराव के उत्तराधिकारी के रूप में नाना साहब की पेशवाई को मान लिया होता तो क्या बिगड़ा रईस नाना साहब इस कथित क्रान्ति में शामिल होता? और इस हद तक शामिल हो जाता कि परवर्ती इतिहासकार उसे बहादुरशाह जफर की तरह इस महा-हलचल का दूसरा महत्वपूर्ण ध्रुव मान लेते? अगर गंगाधर राव का अनुरोध स्वीकार कर उसके दत्तक पुत्र दामोदर राव को चालाक अंग्रेज बहादुर ने झांसी का उत्तराधिकारी मान लिया होता तो क्या रानी लक्ष्मीबाई इस कथित राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम का हिस्सा होतीं? या इस कदर महत्वपूर्ण हिस्सा बन जातीं? और तो और, अगर दिल्ली के नाममात्र के बादशाह बहादुरशाह जफर की कायरता का सम्मान करते हुए अंग्रेजों ने उसके द्वारा घोषित उत्तराधिकारी को दिल्ली के लालकिले का प्रभारी (यानी “हिन्दोस्तान” का बादशाह!) मान लिया होता और अपनी पसन्द उस “बूढ़े भारत” जफर पर न थोपी होती तो क्या जफर 1857 की इस महा-हलचल का प्रतीक नेता बनना भी स्वीकार करता और क्या उस “बूढ़े भारत” में भी फिर से तथाकथित “नई जवानी” आ जाती?हम ये सवाल किसी भारत-विरोधी खुन्दक की वजह से पूछ रहे हैं, ऐसा गन्दा आरोप हम पर न लगाया जा सके, इसलिए हम पहले से ही बता देना चाहते हैं कि हम ये सवाल इसलिए पूछ रहे हैं क्योंकि भारत का 1857 पूर्व का और 1857 का इतिहास हमें वैसे सवाल पूछने को विवश कर रहा है। मसलन, इस्लाम के भारत में आने के बाद लगभग सारे भारत पर धीरे धीरे इस्लामी शासकों का परचम लहराता चला गया तो इसलिए कि भारत के भांति-भांति के छुटभैये शासकों और उनकी संस्कृति-सम्पन्न और अर्थ-समृद्ध प्रजा ने इस राष्ट्रविरोधी काम में अपनी राष्ट्रीय सोच के नितांत अभाव के कारण, यानी मूर्खतावश, सहायता की थी। इस राष्ट्रीय सोच का यह आलम तब भी चलता रहा जब ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत आई और अपने यूरोपीय प्रतिद्वंद्वियों को परास्त कर भारत में व्यापार करने की अकेली विदेशी ताकत बन बैठी। इस कम्पनी को पहले तो कम्पनी बहादुर बनाने में, फिर इस कम्पनी बहादुर को अंग्रेज बहादुर तक बना देने में, यानी क्रमश: सारे भारत पर पहले सैनिक-राजनीतिक दबदबा और फिर अधिकार स्थापित कर लेने में यहीं के निकम्मे राजा-रजवाड़ों और दृष्टिविहीन प्रजा की राष्ट्रीय सोच के अभाव ने भरपूर सहायता की।राष्ट्रीय सोच की यह जड़ता 1857 में भी पूरी तरह से पसरी पड़ी थी। न पसरी पड़ी होती तो कुछ काम यकीनन न होते। अगर यह सही है कि 1857 की 31 मई को सारे भारत में फैली अंग्रेजी रेजिडेंसियों और अंग्रेज बस्तियों में रहने वाले आबालवृद्ध और समस्त शासक-कर्मचारी-सैनिक अंग्रेजों को एक ही दिन एक ही समय एक साथ मार कर खत्म कर देने की कोई अखिल भारतीय योजना थी, तो वैसी योजना का मंगल पांडे के हाथों इतने दिन पहले असमय वध न होता। वैसा असमय वध हुआ और योजनाकारों के हाथों के तोते उड़ गए, इसे राष्ट्रीय सोच का अभाव न कहें तो और क्या कहें? अगर सोच राष्ट्रीय होती तो इस कथित स्वातंत्र्य-संग्राम के ठीक बीच पहला मौका आते ही लक्ष्मीबाई अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी का महाराजा घोषित करने की जल्दबाजी न करतीं? और न ही नाना साहेब भी वैसी जल्दबाजी करते जो उन्होंने कानपुर पर कब्जा जमाते ही खुद को “पेशवा” घोषित करने में की। यानी दोनों के पास किसी भी तरह की राष्ट्रीय सोच का अभाव था और उनका तमाम भारत-स्वातंत्र्य झांसी की रियासत को उसका उत्तराधिकारी प्रदान करने और खुद की पेशवाई स्थापित करने में ही परिभाषित हो रहा था। और अगर सोच राष्ट्रीय होती तो लालकिले के प्रभारी, यानी दिल्ली के श्रीहीन, बलहीन, वर्चस्वहीन तख्त पर बैठे बूढ़े, कमजोर और कर्महीन बहादुरशाह जफर को इस महासमर का नेता बनाने की वैसी अकुलाहट, बेबसी और उत्साह उस समय के जांबाज क्रांतिकारियों में देखने को न मिलते जैसे कि देखने को मिले।और अगर पहले पैरा में उठाए गए सवाल और इस पैरा के ठीक ऊपर गिनाए गए उदाहरण सही हैं, जो कि हैं और यकीनन हैं, तो हम अपने इस निष्कर्ष को दोहरा सकते हैं कि 1857 में भारत के पास किसी भी तरह की समग्र राष्ट्रीय सोच का नितान्त अभाव था। राष्ट्रीय सोच के इस नितान्त अभाव के परिणामस्वरूप 1857 की इस राष्ट्रव्यापी हलचल का, जिसे हर कोई अपनी इच्छानुसार विप्लव, क्रांति, स्वातंत्र्य समर कहने को स्वतंत्र है, वही पराजयपरक परिणाम निकलना ही था, जो कि निकला। अगर कहीं देश के सौभाग्य या दुर्भाग्य से अंग्रेजों को तब भारत से बाहर कर दिया गया होता तो क्या होता? उस वक्त पसरी राष्ट्रीय सोच के अभाव के परिणामस्वरूप भारत फिर से उन्हीं अंग्रेजों के या किसी दूसरी विदेशी शक्ति का गुलाम बनने का एक “फिट केस” बना रहता। यह भी हो सकता है कि अंग्रेज को निकाल बाहर कर देने के बाद भारत में पूर्ववर्ती समर्थ रामदास या परवर्ती वीर सावरकर की प्रतिभा वाला कोई महान राजनीतिक विचारक देश को बौद्धिक नेतृत्व देकर उस भारतवर्ष के बनने की प्रक्रिया को जन्म देता, जैसा बनने के लिए अपना यह धर्मनिरपेक्ष भारत पिछले साठ साल से कसमसा रहा है, पर प्रतिभा सम्पन्न वैचारिक नेतृत्व के अभाव में ठीक राजनीतिक दिशा नहीं पकड़ पा रहा है।इसी पृष्ठभूमि में हम 1857 को, जो क्रान्ति तो जरूर थी, पर गदर नहीं था, और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था या नहीं इस पर बेबाक बहस की जरूरत बनी हुई है, ऐसे इस उभार को विचारधारा-विहीन राष्ट्रव्यापी हलचल कहते हैं। यह क्रांति या उभार राष्ट्रव्यापी जरूर था, क्योंकि हिन्दी भारत, जिसे हम भारतीय परम्परा में मध्यदेश कहते हैं, पूरी तरह से इस क्रांति के उभार के आगोश में था तो शेष भारत भी इससे अछूता तो नहीं था। मंगल पांडे ने एक महायोजना का असमय भांडा फोड़ने का जो बचपना दिखाया, वह दमदम (कोलकाता) में दिखाया गया था। पर हम इस महा-उठान को भी अगर विचारधारा-हीन करते हैं तो इसका कारण स्पष्ट है। इस देश की शक्ल बनाने का काम देश के उन लोगों ने किया है जिन्हें हम भारतीय-धर्मावलम्बी कहते हैं। जाहिर है कि जिन भारतीय-धर्मावलंबियों ने सदियों-सहस्राब्दियों से इस देश की शक्ल बनाई है, तो उन्हीं का कर्तव्य बनता है कि वे इस शक्ल को बिगाड़ने वाली प्रकट -संभावित ताकतों से इसकी रक्षा भी करें। शक्ल बनाने वाली सोच सांस्कृतिक सोच होती है तो उसकी रक्षा करने वाली सोच ही वास्तव में राजनीतिक सोच होती है। पर इन भारतीय-धर्मावलम्बियों में, यानी हिन्दू-सिख-बौद्ध-जैनों में इस राजनीतिक सोच का अभाव पिछली आठ-नौ सदियों से देखने को मिल रहा है। 1192 में सूर्य समान महाप्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मुहम्मद गोरी के हाथों पराजय क्या हुई, भारतीय- धर्मावलम्बियों कीे यानी कोर-भारतीयों की राजनीतिक सोच ही जैसे कुन्द हो गई। वैसे तो चौहान की पराजय ही इस कुन्द हो रही राजनीतिक सोच का पहला राष्ट्रीय स्तर का दर्दनाक नमूना था। ये ही तो वे कोर भारतीय थे, जिन्होंने हूणों को निर्णायक रूप से परास्त किया था, शकों को परास्त कर भारत में लीन कर लिया था और कुषाणों को भी कोर भारतीय ही बना दिया था। पर ये ही भारतीय-धर्मावलम्बी, यानी कोर-भारतीय 1192 में इस्लाम से क्या हारे कि उसके बाद से लगातार हार ही रहे हैं। लड़ भी रहे हैं, पर हार भी रहे हैं। यानी हारती हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। इन्हीं कोर भारतीयों ने 1857 के महासमर में विजय या पराजय के बाद की कोई राजनीतिक योजना नहीं बनाई, यह उनकी राष्ट्रीय विचारधारा के अभाव का ही एक प्रतीक है। नाना, लक्ष्मीबाई और तात्या टोपे जैसे योद्धा वाजिद अली शाह के लिए लड़ रहे थे और जफर को नेता बनाने को बेताब थे, यह उन कोर भारतीयों की यानी हिन्दू-सिख-बौद्ध-जैनों की राष्ट्रीय राजनीतिक विचारधारा के अभाव का ही ज्वलंत नमूना है। हमारा निवेदन है कि 1857 को भारत का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम हम बेशक मानें, पर उसके साथ जुड़ी भारतीय-धर्मावलम्बियों की, यानी कोर भारतीयों की सदियों से आज तक (यानी 2007 तक भी) बनी हुई राष्ट्रीय सोच की विहीनता को भी अर्थात् विचारधारा हीनता को भी नजरअंदाज न करें। जिस देश के पास राजनीतिक सोच नहीं होती, वह अपनी शक्ल बेशक बना ले, पर उसे संजोए नहीं रख सकता। भारतीय धर्मावम्बियों में यह विचारधारा-हीनता 1192 से चली आ रही है, 1857 में भी थी और अभी तक बदस्तूर जारी है।दिल्ली द्वार पर दस्तकअंग्रेज अधिकारियों और सिपाहियों ने जिस भीरूता और कायरता का परिचय दिया वह स्वयं में एक उदाहरण बन गया। अश्वारोही दल के विषय में कर्नल स्मिथ ने जब सुना कि उसके सैनिकों ने विद्रोह कर दिया है तो वह अपने प्राण बचाने के लिए भाग निकला। यही स्थिति अन्य अधिकारियों की भी थी। किन्तु विद्रोहियों की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न थी। उन्होंने सभी कुछ सुनियोजित रीति से निर्णय किया हुआ था और उस निर्णय के आधार पर ही उनका सारा कार्य सम्पन्न हो रहा था। मेरठ को मेरठवासियों पर छोड़कर पूर्व निर्धारित कार्यक्रमानुसार सैनिक दिल्ली के लिए कूच कर गए और निश्चित समय पर उन्होंने दिल्ली के द्वार पर दस्तक दे दी। (वीर सावरकर की पुस्तक- 1857 का भारतीय स्वातंत्र्य समर- से साभार, पृ.45)11

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