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असम नरसंहारवोट बैंक राजनीति के पाप का फलजगमोहन, पूर्व केन्द्रीय मंत्रीपिछले दिनों असम में 70 निर्दोष भारतीयों को नृशंसतापूर्वक मारने के लिए यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) पूरी तरह से जिम्मेदार है। लेकिन इसके साथ ही उन लोगों की भी कम जिम्मेदारी नहीं है जो अपनी वोट बैंक राजनीति, कुशासन और स्वार्थी नीतियों के कारण ऐसी स्थिति पैदा करते रहे। उल्फा के साथ ही इन राजनेताओं को भी इतिहास के कटघरे में खड़ा करने की जरुरत है ताकि उन्हें सजा मिले और वे भारतीय राजनीति के कूड़ेदान में फेंके जा सकें। उल्फा का जन्म 1979 में घुसपैठ विरोधी आंदोलन के दौरान हुआ था और उस समय उसने अपना उद्देश्य भारत सरकार की विदेशी घुसपैठियों को मतदाता सूची में शामिल करने की नीति का विरोध बताया था।यह ध्यान में रखना होगा कि संसद के सामने सबसे पहले घुसपैठ का प्रश्न 1950 में आया था। इसकी गंभीरता तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पहचानी थी। उन्होंने तुरंत कार्रवाई की और 1950 में अनुप्रवेश कानून (असम से निष्कासन) पारित किया गया। लेकिन दिसंबर 1950 में सरदार पटेल के निधन के तुरंत बाद इस कानून से जुड़े कुछ तथाकथित मुद्दे उठाए गए और अंतत: उसका पालन रोक दिया गया तथा 1957 में कानून ही समाप्त कर दिया गया। असम के हितों और देश की सुरक्षा के प्रति किए गए उपायों को यह पहला बड़ा धक्का था।इसके बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से घुसपैठ जारी रही। 1962 में चीन के हमले के दौरान बड़ी संख्या में पूर्वी पाकिस्तानी घुसपैठियों को पाकिस्तानी झंडों के साथ असम में देखा गया। उसके बाद घुसपैठ निरोधक योजना बनाई गई जिसके अन्तर्गत 1951 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर के आधार पर घुसपैठियों की पहचान का प्रावधान किया गया। इस योजना को असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बी.पी. चालिहा द्वारा पूरी शक्ति से क्रियान्वित किया गया। 1964 से 1970 के बीच 2 लाख 40 हजार घुसपैठियों की पहचान की गई। 1967 से 1970 के बीच एक दूसरे अभियान में 20,800 घुसपैठियों की पहचान पृथक से की गई । लेकिन तब तक संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ उभरने लगा था। फखरुद्दीन अली अहमद के नेतृत्व में विधायकों के एक समूह ने प्रचार करना शुरू किया कि यदि मुख्यमंत्री बी.पी. चालिहा ने अपना अभियान जारी रखा तो कांग्रेस पार्टी न केवल असम में बल्कि पूरे देश में मुस्लिम वोट से हाथ धो बैठेगी। अंतत: वोट बैंक राजनीति का प्रभाव छाया और घुसपैठियों की पहचान का काम पूरी तरह से रोक कर उन्हें वापस भेजने वाला आयोग रद्द कर दिया गया। घुसपैठियों की यह दूसरी विजय थी।1979-80 के संसदीय चुनाव 1979 की उन मतदाता सूचियों के आधार पर कराए गए, जोकि बंगलादेशी घुसपैठियों के नामों से भरी हुई थीं। इसके बाद बंगलादेशी घुसपैठियों को मतदान के अधिकार से वंचित करने की तीव्र मांग उठी। यहां तक कि मुख्य चुनाव आयुक्त ने 1961 से 1971 के मध्य असम की जनसंख्या में असाधारण 35 प्रतिशत वृद्धि को “पड़ोसी देश से घुसपैठ” के कारण बताया। परिणामत: असम में असंतोष पनपा और अनेक आंदोलन प्रारंभ हुए। हालांकि आंदोलन का नेतृत्व अखिल असम स्टूडेंट्स यूनियन के हाथ में था लेकिन उल्फा ने उसमें हिंसा का तत्व शामिल किया। 1983 के प्रांतीय चुनावों में अधिक आग भड़की और 1985 तक अनेक कुख्यात नरसंहार हुए जिनमें नैल्ली और गोहपुर के नरसंहार विशेष उल्लेखनीय हैं। उस स्थिति में केन्द्र सरकार ने विदेशी घुसपैठियों को निकालने के लिए गंभीर अभियान नहीं छेड़ा। 1971-91 के मध्य असम की जनसंख्या 52.44 प्रतिशत की दर से बढ़ी जबकि अखिल भारतीय जनसंख्या वृद्धि दर 48.24 ही थी।केन्द्र और राज्य सरकारों के व्यवहार से अत्यन्त क्षुब्ध और हताश होकर सर्वानन्द सोनोवाल (अखिल असम स्टूडेंट्स यूनियन के पूर्व अध्यक्ष) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर करके आई.एम.डी.टी. एक्ट की वैधता को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 15 जुलाई, 2005 के अपने आदेश में इस कानून को असंवैधानिक घोषित किया।सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के पीछे की नीयत और आंतरिक सुरक्षा की समस्याओं के संदर्भ में केन्द्र सरकार के रवैये के बारे में जो कहा वह इस कानून को असंवैधानिक करार दिए जाने के फैसले से कम महत्वपूर्ण नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह लिखा, “आई.एम.डी.टी. कानून के प्रावधान एकतरफा हैं। उन्हें इस प्रकार से बनाया गया है कि केवल अवैध घुसपैठिए को ही लाभ और सुविधा मिले, न कि कानून को बनाने का उद्देश्य हासिल हो। इस कानून को बनाने के पीछे उद्देश्य यह बताया गया था कि उन तमाम बंगलादेशी नागरिकों की पहचान कर उन्हें वापस बंगलादेश भेजा जाएगा, जो 25 मार्च, 1971 या उसके बाद सीमा पार कर अवैध रूप से भारत में घुस आए हैं। हालांकि इस कानून के अंतर्गत 3,10,759 मामलों में जांच प्रारंभ की गई थी लेकिन केवल 10,015 व्यक्तियों को ही अवैध घुसपैठिए घोषित किया गया। और उसके बाद भी केवल 1,481 अवैध घुसपैठियों को 30 अप्रैल, 2000 तक वापस बंगलादेश भेजा जा सका। यह आंकड़ा दर्ज किए गए मामलों के आधे प्रतिशत से भी कम ठहरता है।”बंगलादेश के साथ लगभग 4 हजार किलोमीटर लम्बी छिद्रित सीमा की चौकस व्यवस्था करना बहुत कठिन है। इसका एक विशाल क्षेत्र पश्चिम में नदियों से जुड़ा है और उत्तर-पूर्व में पहाड़ी इलाकों से भरा हुआ है। इस सीमा पर 162 से अधिक एन्क्लेव हैं। असंदिग्ध रूप से इस प्रकार की कठिन सीमा पर चौकसी रखना आसान काम नहीं है, लेकिन मुख्यत: धूमिल राष्ट्रीय दृष्टि, स्वार्थी राजनीति, शोषणयुक्त लोकतंत्र और विभाजनकारी सामाजिक ढांचे के कारण सीमा पर भारतीय राष्ट्रीयता और अखण्डता को चोट पहुंचाने वाली गंभीर समस्याएं खड़ी हैं।पिछले तमाम वर्षों में उल्फा नरभक्षी पशु की तरह से रक्त का स्वाद चख चुका है। उसने अपार पैसा और हथियार इकट्ठे किए हैं और अपने प्रारंभिक उद्देश्यों को लगातार बदलते हुए एक स्वतंत्र असम देश की स्थापना का उद्देश्य घोषित किया है। यहां तक कि उसने पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आई.एस.आई. तथा भारत के प्रति शत्रुता रखने वाली बंगलादेशी ताकतों के साथ मित्रतापूर्ण सहयोगी सम्बंध स्थापित कर लिए हैं। उसने भारत सरकार द्वारा घोषित “युद्ध विराम” की अवधि और विभिन्न माध्यमों द्वारा वार्तालाप के कालखण्डों का उपयोग अपनी शक्ति के पुनर्गठन और पुनस्संगठन के लिए किया। अब ऐसी परिस्थिति पैदा हो गई है जिसमें आतंकवाद में जड़ जमाए एक समानांतर अर्थव्यवस्था और भारत के प्रति विद्रोह एक स्थाई व्यवस्था के रूप में दिखने लगा है। सामान्य देशभक्त नागरिकों से पैसे की जबरन और अवैध उगाही, उन पर हमले और रंगदारी अब आमतौर पर सामान्य जनजीवन के स्तर पर क्रियाशील है। इतना ही नहीं, केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा सामान्य जनता के विकास और ढांचागत सुविधाओं के लिए जो अपार धनराशि दी जाती है उसका एक बड़ा हिस्सा आतंकवादियों के हाथों में चला जाता है।असम में बंगलादेशियों की अवैध घुसपैठ और वोट राजनीति के तीव्रता से उदय के कारण अनेक ऐसे राजनीतिक संगठन उभर आए हैं, जो कि घोषित तौर पर साम्प्रदायिक और संकीर्ण प्रान्तीयतावादी हैं। इन संगठनों में मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम, मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स, लिबरेशन इस्लामिक टाइगर फोर्स, मुस्लिम वालंटियर फोर्स, स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया और इस्लामिक लिबरेशन आर्मी प्रमुख हैं। बंगलादेश के विभिन्न अतिवादी तत्वों का इन आतंकवादी और अलगाववादी संगठनों के साथ बहुत घनिष्ठ सम्बंध सिद्ध हुआ है।सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, “केन्द्र सरकार को असम की परिस्थिति के बारे में इन तमाम राष्ट्रघातक तथ्यों की जानकारी थी।” उसने अपने फैसले में लिखा, “असम में बंगलादेशियों की पहचान कर उन्हें वापस भेजने के संदर्भ में सरकार की अनिच्छा पूरी तरह से राजनीतिक कारणों से रही।” सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी निर्देशित किया कि अवैध घुसपैठियों के बारे में सभी मामले विदेशियों के बारे में बने कानून (फोरेनर एक्ट) के चौखटे में ही निर्णीत किए जाने चाहिए। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट फैसले और निर्देशन के बावजूद आत्मघाती तथा नकारात्मक सरकारी तत्वों ने अपने तरीके बदलने से इनकार कर दिया। उन्होंने सत्ता प्राप्ति के लिए वैकल्पिक रास्ते निकालने की तैयारी की। एक दूसरे दुर्भावनापूर्ण कानून के द्वारा केन्द्र सरकार ने विदेशियों से सम्बंधित कानून (फोरेनर एक्ट) के नियमों को संशोधित कर जिस आई.एम.डी.टी. कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध और असंवैधानिक घोषित किया था वही कानून विदेशियों से सम्बंधि कानून के अंतर्गत शामिल कर देश के साथ एक बहुत बड़ा छल किया।उक्त संशोधनों को भी सर्वानन्द सोनोवाल ने एक दूसरी याचिका द्वारा चुनौती दी थी। 5 दिसम्बर, 2006 के अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने न केवल इन तमाम संशोधनों को “तर्कहीन, मनमाने और अवैध” घोषित किया, बल्कि किसी को भी इस बारे में किसी संदेह में नहीं रखा कि केन्द्र सरकार की नीयत कितनी खराब थी। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “हालांकि सामान्यत: राष्ट्र की सुरक्षा के प्रश्नों पर हम टिप्पणी करने से दूर रहते हैं, लेकिन जो मुद्दे सोनोवाल की याचिका में रेखांकित किए गए हैं उनके संदर्भ में हमें यह कहना ही होगा कि “संशोधनों के सम्बंध में” जो कार्रवाई की गई है वह अनपेक्षित थी।” सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में, हालांकि वह काफी विनम्र और तीखेपन से परे है, बहुत महत्वपूर्ण एवं गहराई से हमारे देश की वोट बैंक राजनीति की घृणित असलियत को प्रकट किया गया है। हमारे देश में जिस प्रकार का लोकतंत्र है वहां सत्ता के क्षुद्र उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं न कि राष्ट्र की सुरक्षा और उसका दीर्घकालिक कल्याण। और भारत के प्रति शत्रुता रखने वाली ताकतें असम की एकता, अखण्डता और शांति को ही नहीं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी विस्फोटक स्थिति पैदा कर रही हैं। काफी समय से बंगलादेश आतंकवाद और कट्टरवादी जिहादी संगठनों का एक सुरक्षित केन्द्र बन गया है। इन संगठनों में जमाते इस्लामी, इस्लामी एक्य जोट और जैयतो पार्टी (एम.) खालिदा जिया के सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा थीं। उनके प्रभाव तथा संरक्षण में इन जिहादी कट्टरवादी तत्वों ने न केवल असम के सत्तारूढ़ ढांचे में घुसपैठ कर ली, बल्कि प्रदेश के शैक्षिक संस्थानों तथा अन्य सामाजिक स्तरों पर भी उन्होंने अपनी गहरी पैठ जमा ली। पाकिस्तान की अत्यंत जहरीली खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. और ओसामा बिन लादेन के अलकायदा संगठन के सदस्य अब न केवल बंगलादेशी समाज के कुछ हिस्सों में अपने समर्थक वर्ग तैयार कर सके हैं, बल्कि असम के सत्ता ढांचे में भी उन्होंने अपने समर्थक पैदा कर लिए हैं। इसके कारण से आतंकवादियों के अनेक प्रशिक्षण शिविर स्थापित हो गए हैं जो उन्हें सुरक्षित कार्रवाई की सुविधाएं और अवसर देते हैं, बल्कि इसके साथ ही बंगलादेश से जुड़ी छिद्रित सीमा के कारण भारत के विभिन्न हिस्सों में ये जिहादी तत्व आतंकवादी कार्रवाइयां करने के लिए बहुत निÏश्चतता के साथ भेजे जाते हैं।ऐसी कठिन और दु:खद परिस्थिति में अपने अनुभवों के आधार पर मैं कुछ सुझाव दे रहा हूं- सर्वोच्च न्यायालय ने सोनोवाल द्वारा दायर दूसरी याचिका के संदर्भ में दिसम्बर 2006 में जो फैसला दिया उसमें स्पष्ट रूप से निर्देशित किया है कि विदेशियों सम्बंधी कानून के अंतर्गत नई व्यवस्थाएं 4 महीने के अंतर्गत क्रियान्वित की जानी चाहिए। केन्द्र सरकार और असम की राज्य सरकार को इस निर्देश का तुरन्त और प्रभावशाली ढंग से पालन करते हुए उसके प्रकाश में उपर्युक्त कानून और उसके नियमों का क्रियान्वयन करना चाहिए। अगर यह नहीं किया जाता है तो सोनोवाल अथवा अन्य किसी देशभक्त व्यक्ति द्वारा पुन: सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर न्यायालय से प्रार्थना की जानी चाहिए कि वह एक निरीक्षण समिति बनाए जो यह सुनिश्चित करे कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का केन्द्र सरकार और असम की राज्य सरकार पालन कर रही हैं। इस प्रकार की निरीक्षण समिति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिल्ली के “सीलिंग” मामलों के बारे में गठित की गई थी और उसका असर काफी निर्णायक रहा है।विदेशियों सम्बंधी कानून के अंतर्गत सभी बंगलादेशी घुसपैठियों को, जिन्हें पहचानकर अवैध घोषित किया गया है परन्तु जिनको बंगलादेश वापस भेजने में व्यावहारिक कठिनाइयां आ रही हैं, एक निश्चित अवधि तक कार्य अनुमति (वर्क परमिट) दी जा सकती है जब तक कि वे वापस बंगलादेश नहीं भेज दिए जाते। लेकिन उनके नाम मतदाता सूचियों से तुरंत निकाल दिए जाने चाहिए और किसी भी प्रकार की राष्ट्रीय गतिविधि में भाग लेने से प्रतिबंधित कर देना चाहिए।फिलहाल उल्फा के सर्वोच्च नेता बंगलादेश की भूमि से असम में अपनी आतंकवादी गतिविधियों को संचालित कर रहे हैं। इस प्रकार का घृणित कार्य वे पाकिस्तान और बंगलादेश की गुप्तचर एजेंसियों तथा अन्य भारत विरोधी संगठनों के सहयोग से कर रहे हैं। उनको जितनी अकूत सम्पदा और धन मिला है उसके कारण इस प्रकार की आतंकवादी गतिविधियों में उनके निहित स्वार्थ पैदा हो गए हैं। अपनी उपस्थिति को दर्ज कराने के लिए वे उन निर्दोष असमिया बच्चों की भी हत्या करने से नहीं हिचकते, जो स्वतंत्रता दिवस की परेड देखने आते हैं या बाजार से सब्जी खरीदने निकलते हैं। ऐसा घृणित और शत्रुतापूर्ण रवैया रखने वाले नृशंस नेताओं के साथ सीधे या विभिन्न माध्यमों द्वारा बातचीत करने का अर्थ केवल अन्यों को संरक्षण और प्रोत्साहन देना है। इसलिए सरकार को असंदिग्ध तौर पर यह घोषित करना चाहिए कि उल्फा के साथ तब तक किसी भी प्रकार की कोई बातचीत या सम्पर्क स्थापित नहीं किया जाएगा जब तक कि वह पूरी तौर पर अपनी विध्वंसक मांगों और स्वतंत्र असम के उद्देश्य को छोड़ नहीं देता।कुछ दिन पहले असम में हिन्दीभाषियों का जो रोंगटे खड़े कर देने वाला नरसंहार हुआ वह हमें सिर्फ इस बात की याद दिलाता है कि या तो भारत को कठोरतापूर्वक दृढ़ता से शासित किया जा सकता है या अराजकता में ही छोड़ा जा सकता है। इन दोनों के अलावा और कोई तीसरा बिन्दु नहीं है। भारत की सभी राष्ट्रीय पार्टियों और विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं को यह महसूस करना चाहिए कि देश की एकता और अखण्डता केवल सिद्धांतयुक्त, प्रभावशाली और दृढ़ शासन व्यवस्था द्वारा, ही सुनिश्चित की जा सकती है, न कि वोट बैंक की घृणित और देश-तोड़क राजनीति द्वारा, जिससे कि केवल नकारात्मक और राष्ट्रघातक तत्वों को ही सहारा मिलता है।6
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