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मुसलमानों का हित करेगा-न देश का-प्रेमचन्द्रसेवानिवृत्त संयुक्त आयुक्त, व्यापार कर (उत्तर प्रदेश)इस वर्ष चार राज्यों में आसन्न विधानसभा चुनावों को केन्द्र में रखकर देश की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार मुस्लिम वर्ग के पिछड़ेपन को लेकर उनके लिए आरक्षण का जो राग अलाप रही है, उसका कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता। सच्चर समिति की जो रपट आयी है, वह नि:संदेह राजनीति से प्रेरित है, क्योंकि यह रपट किसी सर्वेक्षण पर आधारित नहीं है। पता नहीं सच्चर समिति द्वारा किस पैमाने से मुस्लिम समाज को पिछड़ा बताया जा रहा है। यहां तक कि इस रपट के आधार पर केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल तो एक न्यूज चैनल पर बहस के दौरान यह कहते भी सुने गए कि देश में मुसलमानों की स्थिति “दलितों” से भी बदतर है। परन्तु अधिसंख्य मुसलमानों के पिछड़ेपन के जो कारण रहे हैं, उस पर राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में दबी जबान से भी कुछ कहने को तैयार नहीं हैं। जिस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश ने जो थोड़ा-बहुत विकास किया है, वह बढ़ती जनसंख्या की भेंट चढ़ गया, उसी प्रकार मुस्लिमों की रेखागणितीय सिद्धान्त के आधार पर बढ़ती जनसंख्या भी उनके पिछड़ेपन का एक कारण है।वंचितों को सदियों तक मानवाधिकारों से वंचित रखा गया। इसलिए भारतीय संविधान में इनके लिए कुछ छूट व रियायतें दी गयीं। जब मुस्लिम समाज इस प्रकार की बाधाओं से सदैव मुक्त रहा है और उन्हें उन्नति के समान अवसर सदैव उपलब्ध रहे हैं तो फिर किस आधार पर उनके लिए आरक्षण व अन्य रियायतों की बात की जा रही है? मुसलमानों की तरक्की में पहले से ही कभी कोई सामाजिक भेदभाव या बाधा नहीं रही है। फिर “दलितों” से भी बदतर स्थिति का आकलन केवल तुष्टीकरण की नीति ही तो है। क्या कांग्रेस को पता नहीं कि डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम सहित चार मुस्लिम भारत के राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके हैं, जबकि 1947 से आज तक की अवधि में केवल एक वंचित, स्व. श्री के.आर. नारायणन ही राष्ट्रपति रहे हैं। दूसरी ओर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों में भी तीन मुख्य न्यायाधीश मुस्लिम वर्ग से रहे हैं। जबकि 1947 से आज तक दलित वर्ग से कोई मुख्य न्यायाधीश इस पद पर नहीं रहा। समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचार से अब ज्ञात हुआ है कि न्यायमूर्ति श्री वाई.के. सब्बरवाल की जनवरी माह में सेवानिवृत्ति पर न्यायमूर्ति श्री के.जी. बालाकृष्णन वंचित वर्ग से सर्वोच्च न्यायालय के प्रथम मुख्य न्यायाधीश होंगे। फिर भी कांग्रेस का यह कहना कि मुस्लिमों की स्थिति देश में वंचितों से भी बदतर है, अपने आप में एक सफेद झूठ है और राष्ट्र को भ्रम में डालने वाला है। क्योंकि किसी भी समुदाय अथवा वर्ग की सामाजिक, आर्थिक स्थिति इस बात से जांची-परखी जाती है कि उस वर्ग में कितने लोग अधिकार सम्पन्न प्रशासनिक पदों पर कार्यरत रहे हैं या वर्तमान में हैं। आज भी अस्पृश्यता, असमानता, अन्याय, उत्पीड़न और उपेक्षा के चलते वंचितों का विकास बाधित होता है। एक पुस्तक छपी है जिसका नाम “बाबा साहेब डा. अम्बेडकर-संपूर्ण वाङ्मय-खण्ड 4” है तथा जिसका प्रकाशन डा. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा किया गया है। इस पुस्तक के एक प्रस्तर से स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो रही है। यह पुस्तक साइमन कमीशन के समक्ष बहुमत की रपट से भिन्न एक विसम्मत रपट है, जो बम्बई प्रेसीडेन्सी की सरकार के गठन के सम्बंध में डा. अम्बेडकर ने प्रस्तुत की थी। डा. अम्बेडकर ने अपनी इस रपट में वंचितों और मुसलमानों की सामाजिक स्थिति पर तुलनात्मक तथ्य दिए थे, जो इस प्रकार हैं-“मेरे साथियों ने विभिन्न अल्पसंख्यकों के लिए सीटों का बंटवारा करते समय एक समान सिद्धान्त नहीं अपनाया है। ना ही ऐसा लगता है कि उन्होंने सम्बद्ध अल्पसंख्यकों के साथ कोई न्याय करने का प्रयास किया है। यह बात स्पष्ट हो जाती है जब मेरे साथियों द्वारा मुसलमानों के साथ किए गए बर्ताव की तुलना हम दलित वर्गों के साथ किए गए बर्ताव से करते हैं। प्रेसिडेंसी में मुसलमानों की संख्या विधान परिषद् के लिए नियत कुल प्रतिनिधित्व में से 19 प्रतिशत है। मेरे साथियों ने उनके लिए 31 प्रतिशत से भी अधिक दिए जाने का प्रस्ताव किया है। दूसरी ओर अति अनुदार आकलन के अनुसार भी दलितों की संख्या प्रेसिडेंसी की कुल आबादी का 8 प्रतिशत है और उनके लिए परिषद् की कुल सीटों का केवल 7 प्रतिशत भाग दिया गया है। इस भेदभाव का कोई कारण नजर नहीं आता। दोनों अल्पसंख्यकों में से मुसलमान अल्पसंख्यकों की संख्या नि:संदेह अधिक है। वे सम्पन्नता और शिक्षा की दृष्टि से भी काफी आगे हैं। दलित वर्ग संख्या, सम्पन्नता और शिक्षा में तो पिछड़े हैं ही, उस पर ऐसा असमर्थताओं का भी भार है जिससे मुसलमान नितांत बरी हैं। दलित वर्ग के लोग सार्वजनिक पनघटों से पानी नहीं ले सकते, सरकारी सेना और नौ सेना में भर्ती नहीं हो सकते। हालांकि भारत सरकार के अधिनियम का प्रावधान है कि जाति, नस्ल या रंग के आधार पर किसी भी व्यक्ति को सरकारी नौकरी से वंचित नहीं रखा जा सकता। मुसलमानों के लिए न केवल सरकारी सेवाओं के द्वार खुले हैं बल्कि कुछ विभागों में तो उनकी संख्या सर्वाधिक है। दलित वर्गों के बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों में दाखिला नहीं मिल सकता हालांकि उन पर सार्वजनिक कोष से पैसा खर्च होता है। मुसलमानों पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं है। दलित वर्ग के व्यक्ति का स्पर्श “भ्रष्ट” कर देता है, मुसलमानों का नहीं। व्यापार और उद्योगों में मुसलमानों पर कोई पाबंदी नहीं जबकि दलितों पर है। मुसलमानों पर हीनता का कलंक भी नहीं लगा हुआ है जैसा कि दलितों पर लगा है। परिणामस्वरूप मुसलमान इस बात के लिए स्वतंत्र हैं कि जैसे चाहें पहनावा पहनें, जैसे चाहे रहें और जैसे चाहे करें। दलितों को यह छूट नहीं है। कोई दलित आर्थिक सामथ्र्य होने के बावजूद अपना पैसा खर्च करके गांव वालों से अच्छा वस्त्र नहीं पहन सकता। उसे झोंपड़ी में ही रहना पड़ेगा। कोई दलित उत्सव आदि पर भी अपने धन और ऐश्वर्य का अधिक प्रदर्शन नहीं कर सकता। उसका दूल्हा बारात में सड़कों पर घुड़चढ़ी नहीं कर सकता। जो रीति-रिवाज उसके लिए बनाए हैं, उन्हें तोड़ने पर उसे समूचे गांव वालों के कोप का भाजन बनना होगा, जिनके बीच वह रहता है। दलित जातियों को बहुधा बहुसंख्यकों का अत्याचार झेलना पड़ता है। मुसलमानों को उतना नहीं झेलना पड़ता। इसका कारण है कि मुसलमानों को बुनियादी मानव अधिकार प्राप्त हैं, इसलिए उनका बहुसंख्यकों से झगड़ा नहीं होता, सिवाय उसके जब कोई धार्मिक विवाद उठ खड़ा हो। परन्तु दलितों की स्थिति बिल्कुल भिन्न है। उन्हें अपने मानवीय अधिकारों के लिए सतत संघर्ष करना पड़ता है जो अल्पसंख्यकों के लिए सतत चुनौती है। वे उनको ये अधिकार देना नहीं चाहते। अगर मुसलमानों पर बहुसंख्यकों का कोई जुल्म होता है तो पुलिस और मजिस्ट्रेट के लम्बे हाथ उसकी सहायता करते हैं, परन्तु जब किसी दलित पर बहुसंख्यकों का अत्याचार होता है तो पुलिस और मजिस्ट्रेट कभी-कभार ही उसकी रक्षा करते हैं। दलित के खिलाफ उनकी बहुसंख्यकों से मिलीभगत होती है। इसकी सीधी सी वजह है कि प्रांत की पुलिस और मजिस्ट्रेट के कार्यालय में मुसलमान अपने अनेक परिचितों तथा सम्बंधियों तक पहुंच सकते हैं, जबकि दलितों का कोई सगा संबंधी उन विभागों में नहीं होता और यह भी ध्यान रखने की बात है कि दलितों को केवल रूढ़िवादी हिन्दुओं की मार को ही झेलना नहीं पड़ता, उसे मुसलमान को भी भुगतना पड़ता है। आमतौर पर समझा जाता है कि मुसलमान उन सामाजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, जो दलितों के प्रति हिन्दू रखते हैं। इससे बड़ी भूल और कोई हो नहीं सकती। शहरी क्षेत्रों की बात छोड़ दें, गांवों में भी तो मुसलमानों का रवैया हिन्दुओं जैसा विषैला ही है।”यह भी विचारणीय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में लगभग आधी शताब्दी तक कांग्रेस का शासन रहा है। और मुस्लिम समुदाय पिछले सात-आठ वर्षों को छोड़कर पूरे देश में कांग्रेस का वोट बैंक रहा है। फिर भी यदि मुसलमान आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गए तो कांग्रेस ही इसकी मुख्य दोषी है। पुन: इस छिटके समुदाय को कांग्रेस अपना वोट बैंक बनाना चाहती है। इसी कड़ी में प्रधानमंत्री ने तो राष्ट्रीय विकास परिषद् की बैठक में यहां तक कह दिया है कि “देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। प्रधानमंत्री का यह अभ्यर्थन बिल्कुल बेमानी है। वास्तव में देश के संसाधनों पर सभी देशवासियों का बराबर का हक है। मुसलमानों ने देश के लिए ऐसी कौन-सी अद्वितीय सेवा की है, जो बहुसंख्यक हिन्दू नहीं कर पाए? इस तरह की तुष्टीकरण पर आधारित सोच न तो मुसलमानों का कोई भला कर पाएगी न ही इससे राष्ट्र का कोई भला होगा। बल्कि प्रधानमंत्री का यह अभ्यर्थन देश की एकता और अखण्डता के लिए बेहद खतरनाक है।यहां तक कि संसद पर हमले के दोषी मोहम्मद अफजल को फांसी की सजा पर अमल के लिए भी आसन्न विधानसभा चुनावों के संदर्भ में मुस्लिम तुष्टीकरण ही आड़े आ रहा है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी अफजल की पुनर्विचार याचिका को अस्वीकार करते हुए कहा गया है कि अफजल की क्षमादान सम्बंधी याचिका पर केन्द्र को शीघ्र निर्णय लेना चाहिए। कम से कम इस पर तो कांग्रेस को शर्मसार होना ही चाहिए था कि संसद पर हमले में शहीद सुरक्षाकर्मियों के परिजनों ने महामहिम राष्ट्रपति को अपने पदकों को लौटा दिया है। अफजल को फांसी के निर्णय पर टाल-मटोल के रवैये से राष्ट्र शर्मसार है, परन्तु कांग्रेस नहीं। यह विडम्बना ही है कि हिन्दुस्थान में हिन्दू हित की बात करने वाला साम्प्रदायिक और खुलेआम मुस्लिम हित की तुष्टीकरण की हद तक बात करना साम्प्रदायिकता नहीं है। यह कैसा विरोधाभासी चरित्र है कांग्रेस का। प्रधानमंत्री से एक कदम आगे निकलकर केन्द्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री श्री अन्तुले तो अल्पसंख्यकों की दशा को सुधारने के लिए ब्याज रहित ऋण की वकालत कर रहे हैं।सच्चर समिति की रपट के मद्देनजर योजना आयोग की एक उप समिति ने अब मुसलमानों की शैक्षिक स्थिति में सुधार के उद्देश्य से 11वीं पंचवर्षीय योजना में कुल 5400 करोड़ रुपए की योजना की अनुशंसा की है। इस उप समिति द्वारा की गई प्रमुख अनुशंसाओं में जिला बुनियादी शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में अधिक विद्यालय खोलने के लिए 2500 करोड़ रुपए का आवंटन भी शामिल है। इससे बहुत ही विचारणीय प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व और आज भी जब मुसलमानों के लिए स्कूलों के दरवाजे खुले हुए हैं तो फिर ऐसी क्या आवश्यकता है कि मुस्लिमों की शिक्षा के लिए मुस्लिम मोहल्ले में ही स्कूल खोले जाएं? यह आवश्यकता तो तब उत्पन्न होती है जब आम स्कूलों में मुस्लिम बच्चों को दाखिला लेने में कोई सामाजिक बाधा आ रही हो। मुसलमान कभी भी वंचितों की तरह शिक्षा में भेदभाव के शिकार नहीं रहे हैं।कांग्रेस का अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देना देश में मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ने नहीं देगा और कालान्तर में कांग्रेस का यही मुस्लिम तुष्टीकरण एक और पाकिस्तान को जन्म देने का सबब बनेगा। कांग्रेस यदि वास्तव में मुस्लिम समाज का भला चाहती है तो उन्हें परिवार नियोजन का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। साथ ही मदरसों में कठमुल्लाओं द्वारा पढ़ायी जाने वाली शिक्षा को आधुनिक बनाने की योजना पर भी विचार करना चाहिए। कांग्रेस को समझना चाहिए कि समाज एक श्रृंखला के समान है। जब तक श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी मजबूत नहीं होगी तब तक श्रृंखला के टूटने का भय बना रहेगा। इसलिए सरकार का कत्र्तव्य है कि वह समाज रूपी श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी को बिना किसी राग-द्वेष के सशक्त बनाने का संकल्प ले। केवल यही संकल्पना वास्तव में भारत को वर्ष 2020 तक विश्व में एक महान एवं विकसित राष्ट्र बनाने के सपने को साकार कर सकती है।17
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