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प्रधानमंत्री कार्यालय से विदेश मंत्रालय तक पसरी चुप्पीइस सरकार को भारत की भावना की नहीं, विदेशी हितों की परवाह है!23 जनवरी को नेता जी सुभाष बोस का जन्म दिवस मनाया गया। देशभर में इस दिन नेताजी की याद में समारोहों के आयोजन हुए। नेताजी की कथित मृत्यु से जुड़ी गुत्थियां भुलाकर सरकार ने रस्म अदा की। लेकिन “मिशन नेताजी” संस्था से जुड़े अनुज धर को यह दिन एक लम्बे संघर्ष को और तेजी से जारी रखने की याद दिला गया। अनुज ने नेताजी के रहस्यमय परिस्थितियों में गायब होने और उस समय के तमाम दस्तावेजों का अध्ययन किया है और इसके आधार पर पुस्तक “बैंक फ्राम डैड” लिखी है। यह पुस्तक काफी चर्चित हुई। अनुज ने गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय से कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त करनी चाहीं तो सेकुलर संप्रग सरकार की ओर से सीधे से “ना” कर दिया गया।”सूचना के अधिकार” की कुछ धाराओं का हवाला दिया गया था। पाञ्चजन्य ने अनुज से इस विषय पर बातचीत की। संप्रग सरकार और “मिशन नेताजी” के बीच हुए पत्र व्यवहार का सारांश अनुज धर के ही शब्दों में यहां प्रस्तुत है। सं.किसी महापुरुष के जन्म-दिन के अवसर पर उनके निधन की बात असहज लग सकती है। लेकिन परिस्थितियां ही ऐसी हैं कि इससे बचा नहीं जा सकता। ऐसे समय में जब हम 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्म की 110वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, देशभर में उनके कथित निधन पर एक बार फिर से बहस छिड़ी है।उल्लेखनीय है कि इस पुराने विवादास्पद मुद्दे को लेकर उन युवाओं की दिलचस्पी सबसे अधिक है जो पच्चीस से पैंतीस वर्ष के आयु वर्ग में हैं और इंटरनेट पर सर्वाधिक सक्रिय हैं। मैं खुद जिस मिशन नेताजी नामक संस्था का प्रतिनिधि हूं, उसके सभी सदस्य विभिन्न व्यवसायों से जुड़े युवा ही हैं। हमारे मन में “मिशन नेताजी” नामक संगठन बनाने का विचार तब आया जब हमें यह आभास हो गया था कि केन्द्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार मुखर्जी आयोग की रपट के प्रति अनुकूल दृष्टिकोण नहीं अपनाएगी।यह आशंका तब सच साबित हुई जब सरकार ने मुखर्जी आयोग के इस निष्कर्ष को सिरे से खारिज कर दिया कि कथित वायु दुर्घटना में नेताजी की मौत की खबर दरअसल सोवियत संघ जाने की उनकी योजना को सफल बनाने के लिए जान-बूझकर प्रचारित की गई एक झूठी कहानी थी। आयोग की रपट को संसद में पेश किए जाने के बाद इस मुद्दे पर चर्चा में यह बात सामने आ गई कि सरकार ने ऐसा क्यों किया। राज्यसभा में तीखी बहस हुई जिसमें वरिष्ठ भाजपा नेता डा. मुरली मनोहर जोशी सहित कई सांसदों ने गृहमंत्री शिवराज पाटिल के वक्तव्य पर सवाल खड़े किए। गृहमंत्री से पूछा गया कि वह नेताजी को मृत साबित करने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं। गृहमंत्री का जवाब था कि शाहनवाज खान और जी.डी.खोसला की अध्यक्षता वाले पूर्ववर्ती दो आयोगों के निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय थे। इसी तरह का तर्क उन्होंने लोक सभा में भी दिया, जहां इस मुद्दे पर बहस को अप्रत्याशित रूप से बीच में ही रोक दिया गया। इस मामले में लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी पर सरकार का अनुचित रूप से साथ देने का आरोप भी लगा।लेकिन पुराने जांच आयोगों के निष्कर्षों के प्रति सरकार के इस नए प्रेम के पीछे असली कारण स्पष्ट है। जिस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1956 में शाहनवाज खान को नेताजी के संबंध में पहली जांच समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया था, उस समय खान कांग्रेस पार्टी के सांसद थे। पंडित नेहरू के मित्र रहे न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला की विश्वसनीयता की असलियत इसी से जाहिर होती है कि उन्होंने उसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जीवनी लिखी थी, जिस दौरान वे नेताजी के संबंध में बने जांच आयोग के अध्यक्ष थे।इस मामले की तह तक जाने और सच्चाई को उजागर करने के लिए “मिशन नेताजी” ने कुछ उल्लेखनीय कदम उठाए हैं, जिनमें से एक है वेबसाइट www.missionnetaji.org,, जिस पर इस विषय से संबंधित सभी प्रासंगिक तथ्यों को प्रामाणिक रूप में उपलब्ध कराया गया है। “मिशन नेताजी” ने “सूचना का अधिकार” अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए नेताजी से सम्बंधित रहस्यों को प्रकाश में लाने का प्रयास भी किया है। अब तक हम लोगों को जो तथ्य हासिल हुए हैं उससे उन लोगों को भी हैरानी होगी जो नेताजी की मृत्यु के सम्बंध में आधिकारिक दृष्टिकोण पर विश्वास करते आए हैं। सबसे पहले हमने गृह मंत्रालय से शाहनवाज खान और जी.डी. खोसला जांच आयोगों द्वारा प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल किए गए दस्तावेजों की अधिकृत प्रतिलिपियां उपलब्ध कराने के लिए कहा। हम उन जांच आयोगों द्वारा निकाले गए निष्कर्षों के आधार को ठीक से समझना चाहते थे जिनकी रपटों को मनमोहन सिंह सरकार ने विश्वसनीय करार दिया था, जबकि असंदिग्ध विश्वसनीयता वाले उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम.के. मुखर्जी की रपट को खारिज कर दिया था। लेकिन जब मंत्रालय का जवाब मिला तो हमें हैरानी हुई। मांगे गए दस्तावेजों को जारी करने से इनकार करते हुए मंत्रालय ने सूचना का अधिकार अधिनियम की कुछ धाराओं का हवाला दिया और कहा कि ऐसी सूचना नहीं दी जा सकती जिससे भारत के हितों को नुकसान पहुंचने की आशंका हो।उसके बाद हमने विदेश मंत्रालय से संपर्क किया। मंत्रालय से नेताजी के मुद्दे पर तत्कालीन सोवियत संघ और वर्तमान रूस की सरकार के साथ हुए सरकारी पत्राचारों की प्रतिलिपियां उपलब्ध कराने की मांग की। मंत्रालय ने यह स्वीकार तो किया कि इस मुद्दे पर पत्राचार के अभिलेख मौजूद हैं, लेकिन उनकी प्रतिलिपि उपलब्ध कराने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि इससे रूस के साथ भारत के संबंधों को नुकसान पहुंचेगा। हमने उन्हें यह समझाने का विफल प्रयास किया कि यह मामला सोवियत संघ के जमाने का है और चूंकि सोवियत संघ अब बिखर चुका है, इससे भारत तथा रूस के बीच के रिश्तों पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ेगा।लेकिन सबसे अनोखा रवैया प्रधानमंत्री कार्यालय ने अपनाया। हमने उनसे सीधे-सीधे यह पूछा कि क्या उनके पास नेताजी से संबंधित गोपनीय फाइलें हैं। हमने ऐसी फाइलों की सूची उपलब्ध कराने की मांग की। प्रधानमंत्री कार्यालय ने ऐसी फाइलों का अस्तित्व तो स्वीकार किया लेकिन उनके संबंध में कोई टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। जब सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत अपील की गई तो प्रधानमंत्री के संयुक्त सचिव ने उत्तर दिया कि उन फाइलों की केवल सूची भर प्रदान करने से भी विदेशी राष्ट्रों के साथ भारत के संबंधों को नुकसान पहुंचेगा।मुखर्जी आयोग की रपट की सच्चाई के बारे में कुछ कहने की बजाय मैं इस देश के प्रबुद्ध नागरिकों के विवेक पर ही इसे छोड़ता हूं। यदि नेताजी की मौत 1945 में एक वायुयान दुर्घटना में हो गई थी तो सरकार इससे सम्बंधित फाइलों को अब तक गोपनीय क्यों बनाए हुए है? इस मुद्दे की सच्चाई हमेशा के लिए अब सामने आ जानी चाहिए। केवल इस देश के जिम्मेदार नागरिकों का दबाव ही सरकार को सच्चाई प्रकट करने के लिए बाध्य कर सकता है।31
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