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भगवती चरण वोहराजिनके लिए देश पहले, परिवार बाद में थावचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”28 मई, 1930 को लाहौर में एक घटना हुई। उस दिन विश्वनाथ वैशम्पायन, भगवती चरण वोहरा और सुखदेव राज नामक तीन क्रांतिकारी युवक रावी तट पर नाव से उतरे। वहां झाड़ी के पास एक गहरा गड्ढा देखकर वे रुक गए। इन्हीं के साथी थे सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त, सुखदेव और शिवराम हरि राजगुरु। ये चारों जेल में बंद थे। ये तीन क्रान्तिकारी जेल में बंद अपने साथियों को रिहा कराने की योजना पर काम कर रहे थे। इस योजना में प्रयुक्त किए जाने वाले बमों में से एक का परीक्षण करने वे रावी तट पर आए थे। इनमें केवल भगवती चरण वोहरा विवाहित थे। दुर्गा देवी वोहरा उपाख्य दुर्गा भाभी इन्हीं की पत्नी थीं, जो स्वतंत्रता के बाद बहुत समय तक गाजियाबाद में रहीं। तब उनका शचीन्द्र नाम का एक अल्पायु पुत्र भी था।क्रांतिकारियों ने तय किया कि बम परीक्षण इसी गहरे गड्ढे में किया जाए। सुखदेव राज ने बम देखकर कहा, “इसकी पिन ढीली नजर आ रही है, इसके कारण फेंकते समय खतरा पैदा हो सकता है।” खतरे को भांपते ही भगवती बाबू ने कहा, “तुम सब जरा दूर हट जाओ। मैं इसे फेंकता हूं।” भगवती चरण आयु में सबसे बड़े थे और बाकी साथी उन्हें “बापू भाई” कहते थे। उनके साथियों ने कहा कि हमें फेंकने दो। लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने कहा, “हटो! जल्दी हट जाओ।” फिर पिन निकालकर बम गड्ढे में फेंकना चाहा ही था कि वह हाथ में ही फट गया। तेज आवाज से सुनसान इलाका कम्पित हो गया। चारों ओर धुंआ छा गया। धुंआ कम होने पर देखा कि बापू भाई रक्त रंजित व क्षत-विक्षत अवस्था में भूमि पर पड़े हैं। उनका पेट फटकर आंतें बाहर आ गई थीं, हाथ हवा में उड़ गया और उनके शरीर से रक्त का फव्वारा फूट पड़ा था। उन्हें कितनी वेदना हुई होगी, अनुमान लगाना कठिन है। परन्तु एक दिन विश्वनाथ वैशम्पायन और सुखदेव राज ने मुझे बताया कि उस समय बापू भाई के चेहरे पर अद्भुत शान्ति व्याप्त थी, दृढ़ता थी। वे विचलित नहीं हुए। कह रहे थे, “अच्छा हुआ, अगर तुम दोनों कुछ हो जाता तो मैं पंडित जी (चन्द्रशेखर आजाद) को क्या मुंह दिखाता। तुम लोग यह स्थान फौरन छोड़ दो। मेरी चिन्ता मत करो। जाओ, अभी भगत सिंह को छुड़ाना है और देखो, दल की योजना में मेरे न रहने से शिथिलता न आए।” ऐसे थे भगवती चरण वोहरा, जो अपने अंतिम समय में भी देश की चिन्ता कर रहे थे। हालांकि उनके दोनों क्रांतिकारी साथी अविवाहित थे, पर भगवती बाबू के लिए अपने परिवार से पहले देश था, इसलिए उन्होंने खुद को ही सबसे आगे रखा।वे कह रहे थे कि विश्वनाथ और सुखदेव उन्हें इसी हाल में छोड़कर चले जाएं क्योंकि धमाके की आवाज सुनकर किसी भी वक्त पुलिस आ सकती थी। पर उनके साथी अपने वस्त्र फाड़कर, उनकी पट्टियां बनाकर उनके पेट व अन्य स्थानों पर लपेटते रहे। दोनों क्रांतिकारी उन्हें उठाकर दूर ले गए जिससे कि पुलिस आए भी तो वहां सिर्फ खून पड़ा हुआ ही मिले। सुखदेव राज के पैर में भी बम का टुकड़ा लग गया था। वैशम्पायन ने रुंधे गले से कहा, “भैया! यह क्या कर लिया।” भगवती भाई ने कहा, “तुम लोग यहां रुको मत, खतरे में पड़ जाओगे।” इसके बाद भगवती भाई ने अपनी आंखें बंद कर लीं।उनके साथी उनकी अंत्येष्टि भी न कर सके। यह दु:खद समाचार मिलते ही चन्द्रशेखर आजाद, यशपाल आदि साथी भी वहां पहुंच गए और शव को रावी तट पर ही पत्थरों में दबाकर आ गए। क्रान्तिकारी की यही चरम परिणति होती है। आज वह क्षेत्र भी आजाद भारत से पृथक पाकिस्तान में है, जहां भगवती बाबू की देह भूमि को अर्पित की गई थी।39
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