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2007 के द्वारे 1857 की दस्तक-5मौ. अहमदुल्लाह-सन्त या जिहादी?देवेन्द्र स्वरूपसावरकर ने 1909 में 1857 का “भारतीय स्वातंत्र्य समर” शीर्षक से जो इतिहास लिखा उसमें मौलवी अहमदुल्लाह का जो “फैजाबाद के मौलवी” के नाम से लोकप्रिय हो गए थे, एक स्वतंत्र अध्याय में भारी महिमामंडन किया है। स्वाभाविक ही, सावरकर के द्वारा ऐसे गौरवशाली चित्रण के कारण मौलवी अहमदुल्लाह को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रतिष्ठित जागरण पत्र “पाथेय कण” (जयपुर) ने “राष्ट्र-संत” की उपाधि से विभूषित करना उचित समझा है। इसमें सन्देह नहीं कि 8 जून, 1857 को सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में बंगाल रेजीमेंट में बगावत का झंडा फहरा कर फैजाबाद जेल में बंद सब कैदियों के साथ मौलाना अहमदुल्लाह को भी मुक्त कराया, तब से 15 जून 1858 को पुवायां रियासत के द्वार पर रणभूमि में अपना सर कटाने तक मौलाना अहमदुल्लाह ने क्रांति की अगली पंक्ति में रहकर असामान्य संगठन कुशलता, सैनिक क्षमता, साहस और शौर्य का परिचय दिया। परन्तु इन सब गुणों के पीछे उनकी मूल प्रेरणा क्या थी, उनकी विचारधारा क्या थी, उनका अंतिम लक्ष्य क्या था? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए मौलाना का पूरा जीवन परिचय देखना आवश्यक हो जाता है। सावरकर ने 8 जून, 1857 से पहले के मौलाना के जीवन पर इसके अलावा कोई प्रकाश नहीं डाला है कि वे अवध के किसी तालुकेदार घराने के थे और अंग्रेजों के द्वारा अवध की स्वतंत्रता के अपहरण से आहत होकर उन्होंने देश और धर्म की सेवा में अपना सर्वस्व-न्योछावर करने का संकल्प ले लिया। वे मौलवी बन गए और पूरे हिन्दुस्तान में अलख जगाने के लिए निकल पड़े। सावरकर लिखते हैं कि अवध के नवाब के घर में उनका कथन कानून माना जाता था। उन्होंने आगरा में एक गुप्त सोसायटी का निर्माण किया था। वे क्रांतिकारी पेम्फ्लेट भी लिखते थे। उनके एक हाथ में तलवार थी तो दूसरे हाथ में कलम थी। फैजाबाद में वे कब पहुंचे, क्यों पहुंचे, उनकी गिरफ्तारी क्यों हुई, उन्हें प्राणदंड की सजा क्यों दी गई इन सब बातों पर सावरकर जी ने कोई प्रकाश नहीं डाला है।सावरकर की सोचसावरकर के द्वारा मौलवी अहमदुल्लाह के इस महिमामंडन से प्रमाणित होकर पाथेय कण के लेखक ने भी उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या का तालुकेदार” कहा है। साथ ही, नई जानकारी जोड़ी है कि “नाना साहब का गुप्त संदेश मिलते ही उन्होंने पूरे अवध में जन-जागरण शुरू कर दिया। इससे भी अधिक आश्चर्यजनक जानकारी उन्होंने यह दी है कि “मौलवी अहमदशाह के ही विश्वस्त अमीर अली ने बाबा रामचरण दास को श्रीराम जन्मभूमि सौंप दी थी। बाद में अंग्रेजों ने 18 मार्च को इन दोनों ही देशभक्तों को मृत्युदंड दे दिया था।” (पृष्ठ-42) पता नहीं इन जानकारियों का आधार क्या है? जहां तक सावरकर का सम्बंध है उन्होंने “भारतीय स्वातंत्र्य समर 1857” पुस्तक की रचना एक सुनिश्चित सीमित उद्देश्य को लेकर की थी। उन्होंने यह बात “तलवार” नाम क्रान्तिकारी पत्र में प्रकाशित अपने लेख, 1948 में 1857 की बरसी पर “ओ शहीदों” शीर्षक अपने पत्रक और पुस्तक की भूमिका में भी स्पष्ट कर दी है। वे 1857 की क्रांति को भावी स्वतंत्रता संघर्ष के लिए प्रेरणा, मार्गदर्शक और राष्ट्रीय एकता की आधार भूमि बनाने के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे इसलिए उन्होंने यथासंभव आपसी कलह, मतभेदों और विश्वासघात के प्रसंगों की उपेक्षा कर के शौर्य, बलिदान, कट्टर ब्रिटिश विरोध और हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को पुष्ट करने वाले प्रसंगों पर ही ध्यान केन्द्रित रखा। अहमदुल्लाह कौन थे, कहां के रहने वाले थे, इसकी खोज के पचड़े में वे नहीं पड़े। यद्यपि उन्होंने एक फुटनोट में अवध की घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी गबिन्स का 1858 में प्रकाशित यह कथन उद्धृत किया है कि मौलवी मद्रास से आया था। (सावरकर, 1947 संस्करण, पृष्ठ 251)अब दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर सैयद जहीर हुसैन जाफरी ने पाकिस्तान और भारत में प्रकाशित अरबी एवं उर्दू स्रोत सामग्री के आधार पर लिखा है कि मौलवी अहमदुल्लाह का जन्म मद्रास के चीना पट्टन (कहीं कहीं चंेगलपुट भी लिखा है) के नवाबी खानदान में हुआ था और वे मौलवी या सन्त से अधिक तलवार की कला में माहिर थे। उन्होंने अपनी युद्धकला का पहला परिचय हैदराबाद के निजाम के आदेश पर एक बागी हिन्दू राजा का दमन करके दिया था। उस युद्ध में उन्होंने पहली बार छापा मार प्रणाली का हुनर दिखाया था। प्रो. जाफरी ने मौलना के जीवन वृत्त का मुख्य आधार सन् 1863 में किसी फतेह मुहम्मद तैय्यब जो 1856 में मौलवी अहमदुल्ला का शिष्य बना था, की अरबी रचना “तवारीख-ए-अहमदी” को माना है। इस ग्रन्थ के अनुसार अहमदुल्लाह की युद्ध कला से प्रभावित अंग्रेजों के आग्रह पर उन्होंने इंग्लैंड की यात्रा की, वहां से लौटते समय वे मक्का-मदीना, इराक और ईरान होते हुए भारत आये। यहां आकर उन्होंने ग्वालियर में बसे कादरी सम्प्रदाय के एक मेहराब अली कादरी का शिष्यत्व स्वीकार किया। मेहराब अली कादरी भी सिंधिया की फौज में सैनिक रह चुके थे। शायद उन्होंने शाह अब्दुल अजीज के फतवे के बाद अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद में मराठों का समर्थन लिया हो और वे सैयद अहमद बरेलवी के वहाबी संगठन से जुड़े हों। वे अपने सब शिष्यों को अंग्रेजों के विरुद्ध जिहाद का उपदेश देते थे। अहमदुल्लाह शाह में उनकी रुचि का भी मुख्य कारण यही था कि वे भी युद्ध कला में पारंगत थे और इसलिए जिहाद आंदोलन को अमली जामा पहनाने में सक्षम थे। अहमदुल्लाह शाह ने साढ़े चार वर्ष मेहराब अली कादरी के पास रहकर जिहाद की विचारधारा और प्रचार कला को आत्मसात किया। मेहराब अली के आदेश पर ही वे आगरा में जिहाद का प्रचार करने गए। मौलाना के बारे में फैलाया गया कि उन्हें आग नहीं जला सकती, तलवार नहीं काट सकती। वे चमत्कारी पुरुष हैं। उनके जिहादी प्रचार से चिंतित होकर अंग्रेज पुलिस ने दबाव बनाया और अहमदुल्लाह ग्वालियर अपने “पीर” के पास वापस आ गये।अवध में जिहादग्वालियर से मौ. अहमदुल्लाह अवध आये। अवध आने का कारण अंग्रेजों से अधिक हिन्दुओं के खिलाफ जिहाद छेड़ना था। इसका कारण था 1855 में भड़का अयोध्या की हनुमान गढ़ी का विवाद। अवध के मुसलमानों में खबर फैल गई थी कि हनुमान गढ़ी के भीतर किसी पुरानी मस्जिद को मिटा दिया गया है और कुरान का अपमान किया गया है। इस अफवाह से उत्तेजित होकर अमेठी के मौलवी अमीर अली ने जिहाद की घोषणा कर दी और वे मुजाहिदीनों की फौज लेकर हनुमान गढ़ी पर हमला करने के लिए रवाना हो गए। उस समय के नवाब वाजिद अली शाह ने मौ. अमीर अली को समझाने बुझाने की बहुत कोशिश की पर वे नहीं माने। अन्तत: नवाबी फौज ने अंग्रेजी की मदद से बाराबंकी जिले में रुदौली के पास अमीर अली की फौज को रोककर पराजित कर दिया। उस युद्ध में अमीर अली मारा गया। उसकी शहादत का बदला लेने के लिए मौलवी अहमदुल्लाह अवध पधारे। लखनऊ से प्रकाशित होने वाले उर्दू अखबार तिलिस्म के 21 और 30 नवम्बर, 1856 के अंकों में मौ. अहमदुल्लाह के भाषण छपे। उनकी सभाओं में मौ. अमीर अली की शहादत की याद दिलाकर जिहाद के लिए भड़काया जाता। तब तक अवध पर अंग्रेजों का अधिकार हो चुका था। उन्होंने कोतवाल को अहमदुल्लाह को यह जहरीला प्रचार बंद करने के लिए भेजा। 30 जनवरी, 1857 के तिलिस्म में प्रकाशित अहमदुल्लाह और कोतवाल के संवाद के अनुसार अहमदुल्लाह ने कोतवाल से कहा “तुम भी मुसलमान हो, शरीयत के अनुसार जिहाद तुम्हारा अनिवार्य धर्म है”। सरकारी दबाव के कारण अहमदुल्लाह को लखनऊ छोड़ना पड़ा और वे अपनी शिष्य मंडली के साथ बहराइच होते हुए फैजाबाद पहुंच गए। वहां सराय चौक में उन्होंने डेरा डाला और हनुमान गढ़ी के खिलाफ जिहाद की आग भड़काना शुरू कर दिया। 16 फरवरी 1857 को एक पुलिस दल ने उनको गिरफ्तार करने की कोशिश की तो उन्होंने प्रतिरोध किया, उनके कई चेले मारे गए और वे जेल पहुंच गए। उन पर मुकद्दमा चला, उन्हें प्राणदंड की सजा सुनाई गई। वे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे कि क्रांति का विस्फोट हो गया और फैजाबाद में नियुक्त बंगाल रेजीमेंट के सूबेदार दिलीप सिंह ने जेल के सब कैदियों के साथ मौ. अहमदुल्लाह को भी मुक्त कर दिया। प्रो. जाफरी ने माना है कि मुक्त होते ही मौलवी साहब ने अंग्रेजों के बजाय हनुमान गढ़ी मन्दिर को ध्वंस करने का हुक्म सुनाया। जिसे सुनकर बंगाल रेजीमेंट के हिन्दू सिपाही भौचक्के रह गए। हिन्दुओं में नाराजगी फैली कि “अगर यह अभी ही अनुमान गढ़ी के विध्वंस की सोचता है तो आगे क्या करेगा, कहना मुश्किल है।” इससे सिपाहियों के बीच नेतृत्व के सवाल पर मतभेद पैदा हो गया। स्व. अमृतलाल नागर ने भी अपनी प्रसिद्ध कृति “गदर के फूल” (पृष्ठ-48-49) पर एक पुराने ग्रंथ, “सवानहात-ए-सलातीन-ए-अवध” को उद्धृत किया है “पहले फौज ने चाहा, इसे अपना अफसर कर हमराह सरपरस्त हों, लेकिन इसकी बातों से डरे कि हिन्दू से नफरत रखता है, इन्तकाम हनुमानगढ़ी के वास्ते भी कहता है, इससे हिन्दू-मुस्लिम सूरते-फसाद निकले इससे अफसर नहीं किया।” आगे नागर जी अपनी अयोध्या यात्रा का वर्णन करते हुए लिखते हैं, “यह भी सुनने में आया कि वे अयोध्या की हनुमानगढ़ी पर जिहाद अथवा धर्मयुद्ध कराने के इरादे से यहां आए थे। मैंने स्वयं भी 1985-86 में राष्ट्रीय अभिलेखागार में इस हनुमान गढ़ी प्रसंग से सम्बंधित दस्तावेज पढ़े थे और मौ. अहमदुल्लाह के दक्षिण से फैजाबाद आने की जानकारी पाई थी।इस्लामी उन्मादजेल से रिहाई के क्षण से ही मौलवी विवादास्पद बन चुके थे। वे अपनी मुजाहिदीन टोली को लेकर लखनऊ की ओर चल पड़े। बागी सिपाही अलग से चले। 30 जून को लखनऊ के निकट चिनहट के युद्ध में सबने मिलकर अंग्रेजी फौज को परास्त किया और लखनऊ की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। मौलाना एक जिहादी के जोश से लबालब भरे थे। जिहादी जोश कैसा होता है इसका वर्णन सावरकर के शब्दों में पढ़ें। 15 मई, 1858 को बरेली की स्वतंत्रता को बचाने के लिए जो निर्णायक युद्ध हुआ उसमें गाजी लोग सर पर हरा कफन बांधे, हाथों में कुरान के पवित्र शब्दों से अंकित कड़े पहन कर अंग्रेजी फौज पर जिन्दगी या मौत का संकल्प लेकर टूट पड़े और एक भी वापस नहीं लौटा। उन्माद में बहुत ताकत होती है और इस्लामी विचारधारा यह उन्माद पैदा करती है।चिनहट युद्ध में विजय के बाद से ही सिपाहियों और मौलवी के बीच मतभेद प्रारंभ हो गए। सिपाही अवध के शहजादे बिरजिस कद्र को नेता घोषित करना चाहते थे पर मौलवी साहब को यह मंजूर नहीं था। उनका कहना था कि शरीयत के अनुसार जिहाद का नेतृत्व कोई इमाम ही कर सकता है, शहजादा नहीं। वैसे भी शहजादा बिरजिस कद्र शिया है और शिया लोग जिहाद को अनिवार्य नहीं मानते। जबकि मुझे “पीर” (मेहराब अली) ने भेजा है इसलिए मैं ही इमाम बनने का अधिकारी हूं। उनकी इस जिद्द के कारण विचित्र स्थिति पैदा हो गई। वे सब्रा कर अपने मुजाहिदीनों को लेकर गऊघाट पर किसी मकान में चले गए। मुजाहिदीनों और शाही फौज के बीच भारी मतभेद पैदा हो गए। बिरजिस कद्र की फौज ने गऊघाट के महल में मौलवी का दस दिन तक घेरा डाले रखा। इन्हीं दिनों, संभवत: जुलाई मध्य में, एक पेम्फ्लेट रिसाला-ए-फतेह-ए-इस्लाम, जिसका लेखक मौलवी अहमदुल्लाह को ही माना जाता है, प्रसारित हुआ। इस रिसाले में शरीयत के आधार पर जिहाद, गाजी, मुजाहिदीन और इमामत आदि की व्याख्या की गई। पेम्फ्लेट पूरी तरह जिहाद की इस्लामी व्याख्या और लक्ष्य प्रस्तुत करता है किन्तु अन्त में हिन्दुओं से अपील की गई कि क्योंकि अंग्रेज हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के शत्रु हैं इसलिए उन्हें भी मुजाहिदीनों का पूरे दिल से साथ देना चाहिए। यहां यह ध्यान देने की बात है कि 1857 की क्रांति के समय इलाहाबाद के मौलवी लियाकत अली, या दिल्ली के नसीरुद्दीन देहलवी या फजले हक खैराबादी आदि जिन मौलानाओं ने फतवे जारी किये वे पूरी तरह कुरान और शरीयत की भाषा में रंगे हुए हैं और दारुल इस्लाम की स्थापना का लक्ष्य प्रतिपादित करते हैं। किन्तु आपद् धर्म के रूप में हिन्दुओं का सहयोग आमंत्रित करते हैं। उन्हें गऊ, तुलसी और शालिग्राम की शपथ दिलाते हैं।क्रान्ति या मुस्लिम राज की पुनस्स्थापना?यहां पर कभी-कभी यह सवाल खड़ा हो जाता है कि यदि 1857 की क्रांति सफल हो जाती तो उसकी परिणति क्या होती? क्योंकि मुस्लिम समाज के भीतर वहाबी लोग 1803 और विशेषकर 1828 से ही दारुल इस्लाम अथवा मुस्लिम राज्य की पुनस्स्थापना के लिए जिहाद का उन्माद जगाने में लगे हुए थे। और उन्होंने पूरे भारत में अपना संगठन तंत्र खड़ा कर लिया था। दक्षिण भारत में बंगाल नेटिव इन्फ्रेंट्री न होने के कारण अधिकांश स्थानों पर क्रांति की पहल अधिकांशत: वहाबी तत्वों ने ही की। यह सत्य है कि यदि हिन्दू बहुल बंगाल इन्फेन्ट्री बगावत का झंडा न फहराती तो वहाबी इतने बड़े पैमाने पर क्रांति का दृश्य न खड़ा कर पाते। किन्तु क्रांति का विस्फोट होते ही जगह-जगह वे नेतृत्व पाने की कोशिश कर रहे थे, मेरठ की जिस घुड़सवार फौज के 85 सिपाहियों ने कारतूस लेने से मना कर बगावत की, वे अधिकांशत: मुस्लिम थे और उन्होंने तुरंत दिल्ली कूच करके बूढ़े बहादुरशाह को सम्राट घोषित कर दिया। उधर बरेली में खान बहादुर खान नवाब बने। बिजनौर में नवाब मुहम्मद अली कूद पड़े। बख्त खां, जिन्हें वहाबी कहा गया है, अपनी बरेली ब्रिगेड को लेकर 1 जुलाई, 1857 को दिल्ली पहुंच गए और मुख्य सेनापति के रूप में पूरी ताकत अपने हाथों में ले ली। इसी परम्परा का अनुसरण करते हुए मौ. अहमदुल्लाह के बारे में लिखा गया है कि सीतापुर के पास मोहम्मदी नामक स्थान पर 15 मार्च, 1858 को उन्हें राजा घोषित किया गया और उन्होंने अपना सिक्का भी जारी किया जिस पर अपने को पीर मेहराब शाह का गुलाम कहकर मुहम्मद के मजहब का अनुयायी कहा। यह मात्र किंवदन्ती है या सत्य, कहना कठिन है। किन्तु इससे मौलवी अहमदुल्लाह की विचारधारा और लक्ष्य का तो पता चलता ही है।यदि धर्म और जाति को खतरा न होता तो पूरी की पूरी बंगाल इन्फेन्ट्री बगावत के रास्ते पर कदापि न जाती। उनकी दृष्टि में क्रांति का कार्यक्रम केवल इतना था कि जेलों को खोलो और फिरंगियों को चुन-चुन कर मारो। वे समझते थे कि न फिरंगी रहेंगे, न उनका ईसाईकरण होगा। किन्तु इसके आगे का कोई कार्यक्रम उनके पास नहीं था। कोई सर्वस्वीकार्य राजनैतिक नेतृत्व उनके सामने नहीं था। यदि भारत फिरंगीशून्य हो जाता तो 1857 की क्रांति सफल हो जाती। और तब जगह-जगह राजा और नवाब सत्ता हथियाने की कोशिश करते जिससे व्यापक सत्ता-संघर्ष छिड़ जाता। जिसका लाभ अपनी मजहबी एकता, मजहबी उन्माद और अखिल भारतीय संगठन के द्वारा वहाबी लोग उठाते। तब क्या भारत में पुन: मुस्लिम सत्ता स्थापित न हो जाती? (24 मई, 2007)41
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