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बर्बादी से डरे करोड़ों खुदरा व्यापारी संघर्ष को मजबूरदेवेन्द्र स्वरूपपिछले दिनों लखनऊ, वाराणसी, गाजियाबाद, रांची और इंदौर जैसे अनेक नगरों में धरने-प्रदर्शन तोड़-फोड़ और आगजनी के जो दृश्य खड़े हुए उनके लिए जनता नहीं, वह सत्ताधारी राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है जो भारत के सामाजिक-आर्थिक यथार्थ की ओर से आंखें मूंद कर पश्चिम के समृद्ध देशों की जीवनशैली और चमक-दमक को भारत पर थोपने पर तुला हुआ है। वह देश के कृषि उत्पादन को बढ़ाने के बजाय प्रत्येक गांव क्या प्रत्येक घर में मोबाइल पहुंचाने का लक्ष्य लेकर चल पड़ा है। कृषि नीति की पूर्ण उपेक्षा के कारण कर्ज के बोझ से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, गेहूं और दालों का विदेशों से आयात करने की नौबत पैदा हो गई है और राष्ट्र की प्रगति का भ्रम पैदा करने के लिए मोबाइलों की बिक्री की संख्या के वृद्धिगत आंकड़े रोज उछाले जा रहे हैं। यह नेतृत्व भूल गया है कि मोबाइल बतिया तो सकता है, गेहूं पैदा नहीं कर सकता, भूख की आग को नहीं बुझा सकता। अन्धा भी देख सकता है कि इस देश को मोबाइल क्रान्ति की नहीं, अन्न क्रान्ति की आवश्यकता है।आर्थिक विकास का सपना गांधी के गरीब और भूखे अंतिम आदमी से खिसक कर नवधनाढ मध्यम वर्ग पर केन्द्रित हो गया है। पश्चिमी शैली के विशाल औद्योगिकीरण तक सिमट गया है। मुट्ठी भर पूंजीपति औद्योगिक घरानों के लिए राष्ट्र की जीवन रेखा जैसी उपजाऊ जमीन से किसानों को उखाड़कर “सेज” बनाया जा रहा है। जिसने प्रत्येक राज्य में वह चाहे तमिलनाडु हो या हरियाणा, उत्तर प्रदेश हो या पंजाब, महाराष्ट्र हो या उड़ीसा किसानों को अपनी पुश्तैनी जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष के रास्ते पर धकेल दिया है। कम्युनिस्ट शासित प. बंगाल के नंदीग्राम व सिंगूर ग्रामों में सरकारी एजेंट बनकर कम्युनिस्ट कैडरों ने पुलिस के साथ मिलकर गरीब ग्रामवासियों पर जो कहर ढाया, बलात्कार किए, वह भारतीय कम्युनिस्टों के माथे पर कभी न मिटने वाला कलंक बन गया है।महापाप में कम्युनिस्ट आगेजिस देश में आर्थिक विकास का मुख्य नारा “हर हाथ को काम, हर पेट को खाना” होना चाहिए वहां पश्चिम शैली के औद्योगिकीकरण की चाह ने किसानों और उद्योगपतियों के बीच वर्ग-संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है। और इस महापाप में कम्युनिस्ट सबसे आगे हैं। उनकी पुलिस उद्योगपतियों के हित में किसानों पर अत्याचार कर रही है।एक ओर कृषि प्रधान भारत की कृषि को उजाड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर सहस्राब्दियों से चली आ रही श्रृंखलाबद्ध बाजार व्यवस्था को ध्वस्त करने की नीति अपनाई जा रही है। खेत और कारीगर से लेकर माल को उपभोक्ता तक पहुंचाने की जो विकेन्द्रित रचना इस देश में विकसित हुई वह पूंजी के केन्द्रीयकरण को रोकने एवं आर्थिक विषमता की खाई को पाटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। इस बाजार व्यवस्था में खुदरा दूकानों की कम से कम डेढ़ करोड़ इकाइयां देशभर के शहरों, कस्बों और गांवों में बिखरी हुई हैं। ये इकाइयां अपने मालिकों के अलावा सात-आठ करोड़ कम पढ़े-लिखे, गरीब कर्मचारियों को जीविका देती है। छोटी-छोटी इकाइयों में स्वामी और कर्मचारियों के बीच विश्वास और अपनत्व का रिश्ता बन जाता है। ये दूकानें बहुत अल्प पूंजी से बहुत कम जगह घेर कर चलती हैं। इनमें भी कई श्रेणियां होती हैं-एक, थोक व्यापारी जो किसान से या मिल से माल मंगाता है, दूसरा मध्यम व्यापारी जो इससे माल खरीदता है, तीसरा खुदरा व्यापारी जो मध्यम व्यापारी से माल लेकर ग्राम तक पहुंचाता है। इन दूकानदारों के अलावा एक बहुत बड़ा वर्ग पटरी वालों, रेहड़ी वालों, खोमचों वालों का होता है, जो इन खुदरा व्यापारियों से थोड़ा सा माल लेकर गली-मुहल्लों में पहुंचाते हैं। वे कम से कम लाभ पर माल बेचकर अपने परिवार का पेट पालते हैं। इसके अलावा हर मुहल्ले, कस्बे और गांव समूह के बीच साप्ताहिक बाजार की परम्परा चली आ रही है, जहां ग्रामवासी विशेषकर महिलायें जाती हैं, अपनी पसंद का माल मोल-तोलकर खरीद लाती हैं, साथ ही मेला घूमने का आनंद भी उठता है। मुझे अपने बचपन की याद है जब हमारे कस्बे में गांव की औरतें सब्जी, फल या थोड़ा सा अनाज लेकर पटरी पर बैठती थीं। और कम से कम नफा कमाकर अपना माल बेचने को व्याकुल रहती थीं क्योंकि उन्हें घर जाकर अपने बच्चों का पेट भरना होता था। इस प्रकार एक दूसरे के सहारे यह श्रृंखलाबद्ध अर्थव्यवस्था चली आ रही है। प्रत्येक अपनी जगह स्वामी है, स्वतंत्र है, स्वावलंबी है, स्वाभिमानपूर्ण है। कम से कम पूंजी से भी वह अपने परिवार का पालन करने में समर्थ है। 7 करोड़ लोगों की आजीविका का प्रबन्ध करने वाला यह खुदरा व्यापार बहुत कम पूंजी और बहुत कम जगह घेरता है। इन डेढ़ करोड़ खुदरा व्यापारिक इकाइयों के भूमि घेरने का औसत 500 वर्ग फुट भी नहीं आता होगा। यदि मैं अपने पैतृक कस्बे का स्मरण करूं तो यह और 200 वर्ग फुट ही होगा। कुल मिलाकर यह खुदरा व्यापार 14 लाख रुपए की पूंजी वाला है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में दस प्रतिशत का योगदान करता है। यह जीविकार्जन का स्थाई साधन है क्योंकि मनुष्य अपनी अन्य आवश्यकताओं में भले ही कटौती कर ले किन्तु तन ढकने और पेट भरने की न्यूनतम आवश्यकता से छुटकारा कभी नहीं पा सकता।औद्योगिक घरानों की लारइसीलिए बड़े -बड़े पूंजीपति औद्योगिक घरानों की लार लाखों करोड़ों वाले इस खुदरा व्यापार पर टपक पड़ी है। और वे अपने अकूत साधनों को लेकर इस क्षेत्र पर आक्रमण करने के लिए दौड़ पड़े हैं। यहां हम स्पष्ट कर दें कि हम पूंजी निर्माण और पूंजी पतियों के विरुद्ध नहीं हैं। न ही हम पूरी तरह औद्योगिक उत्पादन को रोकना चाहते हैं। पूंजी निर्माण करना हरेक की बस की बात नहीं है। हमें अपने उन पूंजी पतियों पर गर्व है जो पूरे विश्व में भारत की यशोगाथा फैला रहे हैं। वे यूरोप, अमरीका, चीन, खाड़ी देशों में बड़े-बड़े उद्योगों को खरीद रहे हैं। जब लक्ष्मी मित्तल ने विश्व की सबसे बड़ी इस्पात कम्पनी अर्सेलर को खरीदा तो हमारी छाती गर्व से फूल गई। जब टाटा ने भारी विरोध को परास्त कर कोरस कम्पनी को खरीदा तो भारत का माथा ऊंचा हुआ। रिलायंस परिवार के दोनों अम्बानी भाइयों की विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली 50 व्यक्तियों में गणना हो रही है यह हमारे लिए गर्व की बात है। वे टेली कम्युनिकेशन, केमीकल्स और विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमारे पूंजीपति और आगे बढ़ें, सड़क निर्माण, परिवहन, पानी, बिजली, चिकित्सा, शिक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि आधारभूत योजनाओं में अपना कन्धा लगायें। पर खुदरा व्यापार पर कब्जा करके करोड़ों देशवासियों को बेरोजगारी के मुंह में न धकेलें।एक दैनिक के अनुसार अनिल अम्बानी के खजाने में हर मिनट 15 लाख रुपए की बढ़ोत्तरी हो रही है। तब उनके मन में खुदरा व्यापार में कूदने का विचार क्यों उत्पन्न हुआ। रिलायंस रिटेल के मालिक मुकेश अम्बानी ने घोषणा की कि वे खुदरा व्यापार में 25,000 करोड़ रुपए का निवेश करेंगे। वे देशभर में सब्जी, फल और अन्य खाद्य पदार्थों की बिक्री के लिए रिलायंस फ्रेश के नाम से खुदरा केन्द्र खोलेंगे। उनके अतिरिक्त बड़े नगरों में विशाल हाईपर मार्केट केन्द्रों की स्थापना करेंगे। इन हाईपर केन्द्रों की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पिछले सप्ताह ही मुकेश अम्बानी ने अमदाबाद नगर में 1 लाख 65 हजार वर्ग फुट क्षेत्रफल में हाईपर मार्केट का उद्घाटन किया। मुम्बई में वे श्रीराम मिल्स के विशाल परिसर में चार मंजिल की इमारत में इसका श्रीगणेश करने जा रहे हैं। उनका लक्ष्य ऐसे 500 हाईपर मार्केट स्थापित करने का है। उनका दावा है कि वे 2011 तक 5 लाख नौकरियां पैदा करेंगे। इनमें से एक प्रतिशत कर्मचारी ग्राहकों से सम्पर्क रखेंगे। उन्हें मार्केटिंग और जन सम्पर्क का विशेष प्रशिक्षण दिया जायेगा। इस प्रशिक्षण के लिए एक विश्वविद्यालय बनाने की भी उन्होंने घोषणा की है। दिल्ली के इन्दिरा गांधी ओपन यूनीवर्सिटी ने हवा का रुख पहचानकर ऐसा प्रशिक्षण प्रारम्भ करने की पहले से घोषणा कर दी है। ऐसी ही मोहक योजनाओं को लेकर भारती-वालमार्ट गठबंधन और रिलायंस रिटेल के बीच कड़ी स्पर्धा आरंभ हो गई है। टाटा, बिड़ला आदि भी खुदरा व्यापार में प्रवेश करने के मनसूबे बना रहे हैं। इस स्पर्धा का अन्तिम परिणाम होगा कि खेत और फैक्टरी से लेकर उपभोक्ता तक पूरी उत्पादन और व्यापारिक प्रक्रिया पर कुछ इने-गिने पूंजीपति घरानों का वर्चस्व स्थापित हो जायेगा और शेष सब उनके कर्मचारी होंगे। उन कर्मचारियों में भी ग्राहकों को रिझाने के लिए वाक्पटु दर्शनीय चेहरों-अर्थात् कन्याओं का चयन मुख्यत: होगा। खुदरा व्यापार पर इस समय अवलम्बित 7 करोड़ लोग बेरोजगार और निराधार हो जायेंगे।बर्बादी का रास्ताहमने आठ माह पहले 17 दिसम्बर, 2006 के अंक में “डेढ़ करोड़ खुदरा व्यापारियों का क्या होगा?” शीर्षक लेख में चेतावनी दी थी कि यह देश की बर्बादी का रास्ता है। एक ओर तो आन्ध्र प्रदेश की सरकार वेश्याओं के पुनर्वास की चिन्ता करती है दूसरी ओर देश की सब सरकारें-चाहे वह महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस की हों, चाहे प. बंगाल में कम्युनिस्टों की हो, चाहे उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह या मायावती की हों, चाहे उड़ीसा में नवीन पटनायक की हो या मध्य प्रदेश में भाजपा की हो, सभी सरकारें इन पूंजीपतियों को न्योता दे रही हैं, जमीन आवंटित कर रही हैं, ठेके पर खेती की सुविधा दे रही हैं। किसी भी दल की सरकार यह नहीं कह रही कि कृपया खुदरा व्यापार को अछूता छोड़ दीजिए। आपको पूंजी लगाने के लिए, लाभ कमाने के लिए और बहुत क्षेत्र उपलब्ध हैं। यहां भी राजनीतिक राग-द्वेष काम कर रहा है। मायावती की सरकार अमिताभ बच्चन को किसान नहीं मानती इसलिए उनसे बाराबंकी की जमीन छीनी जा रही है। वह अनिल अम्बानी को पसंद नहीं करती क्योंकि वे अमर सिंह और मुलायम सिंह के निकट माने जाते हैं इसलिए विद्युत उत्पादन के लिए उनको आवंटित जमीन छीन ली गई है। किन्तु दूसरी ओर मुकेश अम्बानी को ठेके की खेती के लिए हरी झण्डी दिखाई गई है। प. बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार का रवैया तो और भी विचित्र है। यह सरकार टाटा, बिड़ला, रिलायंस, इन्डोनेशिया के सलीम ग्रुप और इंग्लैंड के भारतीय उद्योगपति स्वराजपाल को बंगाल में पूंजीनिवेश और कारखाने खड़े करने के लिए तरह-तरह से रिझा रही है। यह सरकार रिलायंस इन्डस्ट्रीज को छह फूड प्रोसेसिंग केन्द्रों की स्थापना के लिए भू सीमा नियमों का उल्लंघन करने को तैयार है। इन नियमों का उल्लंघन करने के लिए इन केन्द्रों को कृषि-उद्योगों का आवरण पहनाया जा रहा है। ये छह केन्द्र आसनसोल, खड़गपुर, मालदा, हल्दिया, फाल्टा और सिलीगुड़ी में स्थापित होंगे। वर्तमान भू-सीमा नियमों के अन्तर्गत केवल मिलों, फैक्टरियों, वर्कशाप और चाय बागानों को 24 एकड़ से अधिक भूमि रखने की अनुमति है। पर रिलायंस के ये छह केन्द्र इनमें से किसी भी श्रेणी में न आने पर भी लगभग 100 एकड़ जमीन प्रति केन्द्र पाने के अधिकारी होंगे। इससे भी अधिक रोचक इंडियन टोबेको (तम्बाकू कम्पनी) को लाईफ स्टाईल (अर्थात् फैशन) खुदरा केन्द्र स्थापित करने की अनुमति है। ये केन्द्र सिगरेट ब्रांडों के नाम पर खोले गए हैं, जैसे- विल्स लाइफ स्टाईल, जान प्लेयर्स एवं मिस प्लेयर्स स्टोर। इनमें रोहित बल जैसे फैशन डिजाइनरों के सहयोग से नए फैशन की ड्रेसों की बिक्री होगी। टाटा कार बनायेंगे। स्वराजपाल कारों की भीतरी सजावट के उपकरण तैयार करेंगे, यह सब किसके लिए किया जा रहा है? जिस देश में 70 प्रतिशत जनसंख्या की दैनिक आय केवल 20 रुपए रोज बताई जा रही है वह कौन सा कितना बड़ा वर्ग है जिसके लिए विलासिता के ये सब साधन पैदा किए जा रहे हैं।वर्ग-संघर्ष का डरबार-बार चेतावनी देने पर भी राजनीतिक नेतृत्व और नीति निर्माता नौकरशाहों के कान पर जूं नहीं रेंगी इसलिए खुदरा व्यापारियों को मजबूर होकर अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए संघर्ष के रास्ते को अपनाना पड़ा है। यह वर्ग असंगठित है, संघर्ष उसका स्वभाव भी नहीं है। अत: अभी तक उसका विरोध प्रदर्शन स्थानीय है। केवल उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी उसका उपयोग मायावती सरकार के विरुद्ध राजनीतिक उद्देश्य से कर रही है। यह रहस्य ही है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का यह वर्ग अब तक मुख्य जनाधार रहा है पर उसने जबानी जमा खर्च से आगे बढ़कर उसकी पीड़ा को संगठित रूप देने का कोई प्रयास नहीं किया। जबकि यह प्रश्न उसकी विकेन्द्रित अर्थ रचना के विचार से अभिन्नत: जुड़ा हुआ है। असंगठित और स्थानीय होने के कारण उनकी चिन्ता और आक्रोश तोड़-फोड़ का रूप धारण कर जाती है। एक वर्णन के अनुसार, “दो माह के भीतर झारखंड की राजधानी रांची में एक एक कर रिलायंस की चार खुदरा दुकानें खुल गर्इं। कम्प्यूटरीकृत, चिकने-चुपड़े और अंग्रेजी बोलते सेल्स मैन एवं सेल्स गल्र्स वाली इन आधुनिक दूकानों पर भीड़ जुटाना स्वाभाविक ही था। इनका भार दो चार सौ रुपए लगाकर व्यापार करने वाले उन हजारों सब्जी विक्रेताओं पर पड़ना तय था जो रोज कमाकर खाते हैं। आमदनी घटने पर उनमें आक्रोश पलने लगा था। करीब एक पखवाड़े तक पल रहा यह आक्रोश 16 मई को अपने चरम पर आ गया। बिहार प्रगतिशील यूनियन के बैनर तले छोटे-छोटे सब्जी विक्रेता गोलबंद हुए और सड़कों पर निकल पड़े। और परिणाम-तोड़फोड़। ऐसा ही इंदौर में खोले गए छह आउट लेटर्स के साथ हुआ। जिससे डर कर भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर में खोलने का विचार थम गया। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, वाराणसी और गाजियाबाद में व्यापारी व सब्जी विक्रेता धरने पर बैठे। 14 अगस्त को राज्य भर में दिनभर की हड़ताल रखी गई। इसका नेतृत्व राष्ट्रीय उद्योग व्यापार मण्डल के अध्यक्ष और सपा के राज्यसभा सदस्य बनवारीलाल कंछल ने किया। तीनों जगह तोड़फोड़ और गिरफ्तारियां हुई। इन उग्र प्रदर्शनों के तुरन्त बाद मायावती सरकार ने वाराणसी और लखनऊ में पूंजीपतियों की दुकानों पर रोक लगा दी। इस निर्णय के पीछे खुदरा व्यापारियों के प्रति हमदर्दी है या राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का भाव? अभी यह शुरुआत है। किन्तु यह समस्या इतनी गंभीर है और उससे प्रभावित वर्ग इतना बड़ा है कि यदि उसका तुरन्त निदान न खोजा गया तो पूरे देश में वर्ग संघर्ष का दृश्य खड़ा हो सकता है। (24 अगस्त, 2007)25
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