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लोकहित प्रकाशन, लखनऊ की चार पुस्तकें- बहादुर बंदा बैरागी, मेरा भारत महान,समय के हस्ताक्षर और गोवा की मुक्ति का आन्दोलनपुस्तकों के लिए सम्पर्क करें – लोकहित प्रकाशन, संस्कृति भवन, राजेन्द्र नगर, लखनऊ-226004सूरा सो पहचानिए जो लड़ै दीन के हेत।पुस्तक परिचयपुस्तक का नाम : बहादुर बन्दा बैरागीलेखक : प्रो. नेत्रपाल सिंहमूल्य : 120 रुपए, पृष्ठ संख्या : 288जाने-माने शिक्षाविद् प्रो. नेत्रपाल सिंह का सद्य:प्रकाशित उपन्यास “बहादुर बन्दा बैरागी” अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। इस उपन्यास में उन्होंने नान्देड़ के सन्त माधवदास बैरागी के उस पराक्रम का वर्णन किया है जिसके कारण पंजाब के एक बड़े भू-भाग से मुगलशाही खत्म हुई थी और सत्ता सिखों के हाथ में आ गई थी। उल्लेखनीय है कि औरंगजेब की मृत्यु के बाद शहजादा मुअज्जम बहादुरशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविन्द सिंह ने इस आशा के साथ बहादुरशाह का समर्थन किया कि वह मजहबी आधार पर होने वाले अत्याचारों को रोकेगा। परन्तु मुल्ला-मौलवियों की कट्टरता पर लगाम लगाना उसके लिए संभव नहीं हो सका। इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह संत माधवदास बैरागी के पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें अन्याय के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करने के लिए राजी कर लिया। माधवदास को उन्होंने नया नाम दिया बन्दासिंह बहादुर और उन्हें अपने चुने हुए 20-25 शिष्यों के साथ पंजाब भेज दिया। इस महान तेजस्वी संत ने पंजाब में सिखों का सफल नेतृत्व किया। सिखों के प्रति जो अन्याय हुआ था उसका उन्होंने प्रतिकार किया। और कुछ ही दिन में मजहबी जुल्म और अत्याचार का सिलसिला बन्द हो गया। आतंक फैलाने वाली शक्तियां ध्वस्त हो गर्इं। कौन था वह तेजस्वी संत? कैसी विलक्ष्ण थी उनकी कार्यपद्धति? किस प्रकार उन्होंने इस्लाम द्वारा पोषित तथा राजसत्ता द्वारा संचालित आतंकवाद का अंत किया। यही इस उपन्यास का मूल विषय है। उपन्यास के 18वें अध्याय का सम्पादित अंश यहां प्रस्तुत किया जा रहा है जो बहुत रोचक है-गुरु गोविन्द सिंह से बातचीत के बाद माधवदास का केवल नाम ही नहीं बदला उनका सम्पूर्ण जीवन-दर्शन ही बदल गया। संसार के प्रति उनका जो दृष्टिकोण कल था आज नहीं रहा। उनके अन्दर का योद्धा जाग्रत हो गया और वैराग्य उनके वीरत्व का सहधर्मी बन गया। आश्रम उन्हें वीराना लगने लगा। एक-एक पल उनके लिए भारी हो गया। उनकी भुजाएं फड़कने लगीं और सारा संसार उन्हें एक युद्धस्थल-सा लगने लगा। अगले दिन प्रात:काल वे गुरु के पास पहुंचे। गुरु को प्रणाम करके बोले-“गुरुदेव यहां अधिक समय बिताना अब मेरे लिए कठिन है। आप मुझे शीघ्र निर्देश दीजिए जिससे कि मैं यथाशीघ्र कर्मक्षेत्र में उतर कर अत्याचारियों का सफाया कर यश प्राप्त करूं।”गुरु ने आदरपूर्वक उन्हें अपने पास बिठाया और बोले-“बन्दासिंह मैं तुम्हें खालसा पंथ का गुरु नहीं सेनापति और नेता नियुक्त कर रहा हूं। गुरु परम्परा अनन्तकाल तक चलती रहेगी; परन्तु आगे से कोई व्यक्ति नहीं अपितु “ग्रन्थ साहब” ही गुरु रूप में पूज्य होगा। वही सभी सिखों की श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र होगा। “गुरु ग्रन्थ साहब” को गुरु मानने की घोषणा मैं पहले ही कर चुका हूं। यह घोषणा मैंने अकाल पुरुष की प्रेरणा से ही की है।””गुरु ग्रन्थ साहब मेरे लिए भी गुरु रुप में ही प्रेरणा का स्थाई स्रोत होगा। मैं अपने प्राण देकर भी ग्रन्थ की मर्यादा और उसके सम्मान की सदा रक्षा करूंगा।” बन्दासिंह ने कहा।गुरु गोविन्द सिंह ने आगे कहा, “खालसा पंथ का निर्माण भी मैंने अकाल पुरुष की प्रेरणा से ही बहुत लम्बे समय तक चिन्तन के उपरान्त किया है। अध्यात्म और पुरुषार्थ दोनों का समन्वय है इस पंथ में। सनातन हिन्दू धर्म की दुर्बलताओं से इसे पूरी तरह मुक्त रखा गया है। वैदिक आर्यों का शुद्ध सात्विक निर्मल धर्म ही खालसा पंथ का आधार है। मेरा मानना है कि इस पंथ के रूप में हिन्दू धर्म जब जाग्रत होगा तभी विश्व का कल्याण होगा। खालसा पंथ में अनेक परम्पराएं विधर्मियों से सफलतापूर्वक निपटने के लिए ही प्रारंभ की गई हैं। उन परम्पराओं का सम्मान करना तुम्हारा कर्तव्य होगा। इसलिए तुम्हें कोई अपना अलग पंथ चलाने की आवश्यकता नहीं है।””मैं खालसा पंथ की सभी परम्पराओं का सम्मान ही नहीं पालन भी करूंगा और अपना अलग पंथ चलाने की बात मन में भी नहीं लाऊंगा।” बन्दा ने गुरु को विश्वास दिलाया। “मुझे और क्या करना है यह भी बताने की कृपा करें।”गुरु बोले-“बन्दासिंह! संन्यास लेने, शाकाहारी रहने या ब्राह्मचर्य के पालन की बाध्यता हमने इस पंथ में नहीं रखी है। सभी सिखों को सच्चा कर्मयोगी बनने, इच्छानुसार आहार करने तथा विवाह करके धर्मानुकूल काम में प्रवृत्त होने की अनुमति दी गई है। खालसा पंथ में व्यभिचार तथा मादक पदार्थों का सेवन पूर्णतया वर्जित है। तुम्हें अपने जीवन में नित्य युद्ध करने होंगे। तुम्हारी सर्वत्र विजय होगी। अब तुम यहां से जाओ और यह वैरागी का चोला उतार कर क्षत्रिय वेश धारण करो। थोड़ी ही देर में उपयुक्त वस्त्र तुम्हारे पास भेज दिए जाएंगे। मेरा सन्देश मिलने पर पूर्ण क्षत्रिय वेश में ही अब तुम मेरे समक्ष आओगे।””जैसी आपकी आज्ञा।” इतना कहकर बन्दासिंह उठ खड़े हुए। उन्होंने गुरु को प्रणाम किया और अपनी कुटिया की ओर चले गए।दो घड़ी कम समय में ही गुरु की सैनिक टुकड़ी आ गई। गुरु ने विनोद सिंह और बाज सिंह को आदेश दिया कि तत्काल दरबार की सम्पूर्ण व्यवस्था की जाये। मेरा आसन यहीं इस चबूतरे पर रहेगा। सामने सभी सिख बैठेंगे। आनन-फानन में सारी व्यवस्था पूरी कर ली गई। गुरु का संकेत पाकर फतेहसिंह एक राजसी पोशाक लेकर बन्दासिंह की कुटिया में गये। बन्दासिंह ने वैरागी का चोला उतार कर उस वेश को धारण किया। तब तक सारे सिख पंक्तिबद्ध होकर वीरासन पर बैठ गए थे। ढोल की ध्वनि से पूरा आश्रम गूंज उठा और इसी के साथ “बन्दासिंह बहादुर” अपनी कुटिया से निकलकर दरबार स्थल की ओर बढ़े। बन्दासिंह इस समय पूरी तरह वीर वेश में थे। राजसी वेशभूषा ने उनके व्यक्तित्व को और अधिक निखार दिया था।चबूतरे पर आकर बन्दासिंह ने गुरु को प्रणाम किया और गुरु का संकेत पाकर बगल के आसन पर जाकर बैठ गए। बन्दासिंह के बैठते ही ढोल फिर से बजने लगा। मानसिंह ने गाना प्रारंभ किया- सभी सिख उनके साथ समवेत् स्वर में गा उठे-गगन दमामा बाज्योऽऽऽ परयो निशाने काव।खेत जो माडो सूरमाऽऽऽ अब जूझन को चाव।।सूरा सो पहचानिए जो लड़ै दीन के हेत।पुर्जा-पुर्जा कटि मरे, तबहुं न छांड़े खेत।सूरा सोई…सूरा सोई…सूरा सोई।।ढोल की थाप के साथ लगभग तीन सौ सिखों के समवेत स्वर से दिशाएं गूंज उठीं।गुरु ने अपना दाहिना हाथ उठाकर सभी को शान्त होने का संकेत किया। गुरु ने कहना प्रारंभ किया-“खालसा पंथ के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले मेरे वीर साथियो! अति शीघ्रता में बुलाया गया आज का यह दरबार अभूतपूर्व है। इस दरबार का एक विशेष प्रयोजन है, जो कुछ समय बाद स्पष्ट हो जायेगा। औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुरशाह से भी न्याय की आशा करना व्यर्थ है। सिखों को अपने अधिकार के लिए नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज के हित के लिए संघर्ष को आगे भी जारी रखना होगा। अब तक न जाने कितने सिखों ने पंथ के लिए लड़ते हुए अपना बलिदान दे दिया; परन्तु खेत नहीं छोड़ा। यह भावना अब खालसा पंथ के स्वभाव का अंग बन चुकी है। अकाल पुरुष की इच्छा ही इस संसार में सर्वोपरि है फिर भी उसने मनुष्य के करने के लिए भी बहुत कुछ छोड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छानुसार कार्य करता हुआ उसके पुण्य और पाप का भागीदार होता है। इसीलिए मनुष्य को कर्म करते हुए बहुत सावधान रहना चाहिए। अकाल पुरुष मनुष्य को निरन्त सत्कर्मों की प्रेरणा ही देता है यह अलग बात है कि वह उसकी प्रेरणा की अनदेखी करके मनमानी करने लगता है। आप मुझसे यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि मैं मनमानी करूंगा। मैं स्वयं भी यह अपेक्षा नहीं करता कि आप लोग मनमाने ढंग से कार्य करेंगे। अब तक आप लोग खालसा पंथ में पूरी तरह दीक्षित हो चुके हैं और अकाल पुरुष की प्रेरणा को समझने की सामथ्र्य आपके अन्दर है। अकाल पुरुष की यह इच्छा है कि अब मैं युद्धों से अपने को अलग कर लूं। इसका स्पष्ट संकेत मुझे मिल चुका है परन्तु खालसा को अभी कई युद्ध लड़ने हैं मुझे पूरा विश्वास है कि खालसा अपने युद्ध स्वयं लड़ने में समर्थ होगा। मेरे बगल में आसन पर विराजमान हैं भाई बन्दासिंह बहादुर। मैंने इनको यह नया नाम दिया है। कल तक यह थे माधवदास बैरागी। इनके इसी नाम से आप सभी परिचित भी हैं। आज ये माधवदास नहीं हैं और यह आश्रम भी अब इनका नहीं है। यह आश्रम अब हमारा है। अकाल पुरुष की इच्छा से हम अपना शेष जीवन यही बितायेंगे और यह मेरे अधूरे कार्यों को पूरा करेंगे।” समीक्षकविधायक जी से मिलना है तो जिला अस्पताल जायेंपुस्तक परिचयपुस्तक का नाम : मेरा भारत महानलेखक : माधव गोविन्द वैद्यपृष्ठ : 138, मूल्य : 50 रुपएराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकारी मण्डल के स्थाई सदस्य श्री माधव गोविन्द वैद्य विख्यात विचारक एवं लेखक हैं। उनकी चिन्तनपरक गूढ़-दृष्टि छोटी-छोटी बातों, उक्तियों में भी नवीन विचार खोज लेती है और फिर वही विचार उनकी यशस्विनी लेखनी से अत्यन्त रोचक एवं ह्मदयग्राही शैली में नि:सृत होते हैं। अपने इन्हीं विचारों को उन्होंने अपनी नवीन रचना “मेरा भारत महान” में पिरोया है। इस पुस्तक में उन्होंने बड़ी ही रोचक भाषा में लोक कल्याण में लगी संस्थाओं और विभूतियों का परिचय प्रस्तुत किया है। पुस्तक पाठक को सेवाभावी बनने के लिए प्रेरित करती है। पुस्तक में जूनागढ़ (गुजरात) के विधायक के सेवाभावी व्यक्तित्व का परिचय “विधायक जी से मिलना है तो जिला अस्पताल जायें” शीर्षक से दिया गया है। विधायक महेन्द्र मशरू के बारे में लिखा गया है, “वह न तो विधायक को मिलने वाला वेतन लेते हैं और न ही विधायकों को मिलने वाली किसी सुविधा का इस्तेमाल करते हैं। और न ही कभी ऐसे किसी प्रस्ताव का समर्थन करते हैं जिसमें विधायकों को अधिक सुविधाएं देने की सिफारिश हो।” आगे लिखा गया है “शहर के सबसे बड़े अस्पताल के बाह्र रोगी विभाग के सामने एक सफेदपोश व्यक्ति रोगियों की भीड़ से घिरा हुआ है और उनकी दवाओं, रक्त और गाड़ियों का इंतजाम करने में जुटा है। यह और कोई नहीं विधायक महेन्द्र मशरू ही हैं।”राष्ट्र जागरण के मंत्रपुस्तक परिचयपुस्तक का नाम : समय के हस्ताक्षरलेखक : आनन्द मिश्र “अभय”पृष्ठ : 163, मूल्य : 50 रुपएलखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रधर्म मासिक के सम्पादक श्री आनन्द मिश्र “अभय” की हाल ही में एक नई कृति आई है-“समय के हस्ताक्षर”। मूलत: यह पुस्तक सन् 2001 से 2003 तक राष्ट्रधर्म में छपे उनके सम्पादकीय लेखों का संकलन है। 36 अध्यायों में बंटी इस पुस्तक का प्रकाशन राष्ट्रधर्म के सुधी पाठकों के आग्रह पर किया गया है। सम-सामयिक विषयों और ज्वलंत समस्याओं पर लिखे गए ये लेख नि:संदेह राष्ट्र जागरण के मंत्र हैं। पुस्तक की प्रस्तावना में पाञ्चजन्य के सम्पादक श्री तरुण विजय ने एक जगह लिखा है, “जो कौम अपने पर हो रहे आक्रमण पर गुस्सा नहीं करती, वह वैसे ही मिट जाती है, जैसे बेबिलोनिया और मिस्र की सभ्यताएं मिट गर्इं।””बहुक्म तालिबानी” लेख में बामियान की बुद्ध प्रतिमाएं तोड़ने पर लेखक ने लिखा है, “काल बड़ा बलवान् है और इतिहास के पुराने पृष्ठ याद दिलाने का उपक्रम वह समय-समय पर करता ही रहता है। आज भी उसने इतिहास के वे पृष्ठ उलटने को हमें बाध्य कर दिया है जो हमारे इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ रहे हैं, रहे थे और रहेंगे। बुद्ध की प्रतिमाएं नष्ट करने से न बुद्ध मरे हैं, न मरेंगे और न उन्हें कोई मार सकता है। मुल्ला मोहम्मद उमर जैसे तालिबानों की तो औकात ही क्या!”…और गोवा स्वतंत्र हुआपुस्तक परिचयपुस्तक का नाम : गोवा की मुक्ति का आन्दोलनलेखक : वीरेन्द्र कुमार “वीरू”पृष्ठ : 160, मूल्य : 50 रुपए1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली, इसके बावजूद भारत की सीमा के भीतर कुछ ऐसे क्षेत्र थे जो स्वतंत्र भारत का अंग नहीं बन सके थे। उनमें से कुछ का भारतीय संघ में विलय आसान नहीं था। इसके लिए आन्दोलन हुए, हजारों लोगों ने यातनाएं झेलीं और सैकड़ों शहीद हुए। इनमें से एक गोवा का क्षेत्र था जहां पुर्तगाली शासन था।गोवा अपने मनोरम प्राकृतिक दृश्यों विशेषत: सुन्दर समुद्रतटों के लिए सुविख्यात है और देश-विदेश के पर्यटकों का चहेता क्षेत्र है। इस क्षेत्र को मुक्त करने के लिए जो आन्दोलन हुआ उसका “गोवा की मुक्ति का आन्दोलन” पुस्तक में दस अध्यायों के अन्तर्गत सविस्तार विवेचन किया गया है। इसके लेखक हैं श्री वीरेन्द्र कुमार “वीरू”।इस पुस्तक में उन्होंने आन्दोलन का क्रमिक विकास दिखाया है। विकास-निरूपण में तिथिक्रम का ध्यान रखा गया है। आन्दोलन के साथ ही कूटनीतिक दांव-पेंच और संवैधानिक वाद-विवाद, अन्तरराष्ट्रीय दबाव और अन्तरराष्ट्रीय संगठनों की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है।19
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