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सम्पादकीय

by
Feb 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Feb 2007 00:00:00

हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी।आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।-मैथिलीशरण गुप्त (भारत-भारती पृ.-4)पूर्वांचल अभी भारत में हैकुछ समय पहले राष्ट्रपति चुनाव की गहमा-गहमी थी, दोनों तरफ तीर चले, मामला खत्म हुआ। उसके बाद परमाणु संधि और संजय दत्त के मामले चल रहे हैं। परमाणु संधि के पक्ष और विपक्ष में धुआंधार मोर्चेबंदी है। लेकिन अखबारों में मजेदार रोचकता के साथ प्रमुखता से संजय दत्त की जमानत, रिहाई वगैरह-वगैरह की खबरें छाई हुई हैं। इस मेले में प्राय: यह भुला दिया गया है कि पूर्वांचल के विभिन्न प्रांतों में विद्रोह और भीतरी हमलों से उत्पन्न कराहटों के स्वर तीव्र होते जा रहे हैं, लेकिन दिल्ली में उन्हें कोई सुनने वाला नहीं है। कुछ समय पहले असम के छात्र संगठन “आसू” के नेताओं ने बयान दिया था कि पिछले 22 वर्षों से हम चिल्ला रहे हैं कि बंगलादेशी घुसपैठिए असम को खत्म करने पर तुले हैं, लेकिन किसी ने हमारी बात नहीं सुनी। अब हम कह रहे हैं कि अगले 5-10 वर्षों के भीतर असम में बंगलादेशी मुख्यमंत्री होगा। आज ये घुसपैठिए असम को समाप्त कर रहे हैं, कल वे भारत को समाप्त करेंगे।क्या कहीं किसी ने इस तीखे बयान के पीछे छिपे घाव और वेदना को समझा? हमने तो दिल्ली के किसी अखबार में यह बयान तक नहीं पढ़ा। उधर मणिपुर में कई दिन तक समाचार पत्रों ने सम्पादकीय की जगह खाली रखी। ऐसा तो आपातकाल के समय ही सुना गया था। मणिपुर के समाचार पत्रों ने इतना बड़ा विरोध प्रदर्शन भारत से अलग होने की मांग कर रहे आतंकवादी संगठनों के खिलाफ नहीं किया, बल्कि यह सरकार के उस निर्देश के विरोध में था जिसमें कहा गया था कि समाचार पत्र आतंकवादी विद्रोही संगठनों के बयान संयम से और कम छापें। ये इसलिए कहा गया था क्योंकि ये आतंकवादी संगठन समाचार पत्रों का इस्तेमाल करते हुए समाज में अफवाहें फैलाते हैं और एक आतंकित करने वाला माहौल बनाते हैं। लेकिन समाचार पत्रों को सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करना ज्यादा सुविधाजनक और पत्रकारिता के सिद्धांतों के लिए संघर्ष का सूचक प्रतीत होता है।मणिपुर में विद्यालयों और कार्यालयों में तिरंगा नहीं फहराने दिया जाता। न वहां राष्ट्रीय गीत गाया जाता है, और पिछले एक वर्ष से अधिक समय से हिन्दी फिल्मों पर पूर्ण प्रतिबंध है। लेकिन ऐसे में कोरियाई फिल्मों की बाढ़ आ गई है। भारत से जुड़ने वाला जो भी संबंध है, उसे घायल और खत्म किया जा रहा है। कुछ समय पहले वहां के बंगला भाषा की दुर्लभ पुस्तकों से समृद्ध डेढ़ सौ वर्ष पुराने पुस्तकालय को इसलिए जला दिया गया था क्योंकि आतंकवाद विरोधियों ने कहा कि औपनिवेशिक भाषा की कोई पुस्तक नहीं चाहिए। असम, मणिपुर, त्रिपुरा, अरुणाचल में विरोधी संगठन फल-फूल रहे हैं और उनके साथ भारत सरकार क्षमादान एवं “युद्ध विराम” की नीति अपनाए हुए है। ऐसी स्थिति में जो देशभक्त है और राष्ट्रीयता के लिए संघर्ष करने का इच्छुक है उसका साथ देने वाला कौन है? यहां आम धारणा है दिल्ली के सत्ताधारी पूर्वांचल से पैसा कमाना चाहते हैं, उसकी रक्षा करने की उनमें इच्छा नहीं है। लेकिन समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी पूर्वांचल का दु:ख-दर्द कितना छपता है? भारतीय राष्ट्रीयता की रक्षा के लिए आवश्यक है कि हमारी चिंताओं का दायरा अखिल भारतीय हो। संजय दत्त की जमानत और रिहाई इतनी महत्वपूर्ण क्यों हो जाती है कि श्रीनगर में आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद होने वाले सैनिकों के समाचार और पूर्वांचल में संघर्षरत देशभक्तों की वेदना चैनलों, समाचार पत्रों और राजनीतिक गलियारों में उपेक्षित रह जाती है?6

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