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इतिहास दृष्टि

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Feb 9, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Feb 2007 00:00:00

नृशंस हत्याकाण्ड तथा लूटमार-1भारतीयों की लाशों पर अंग्रेजों का विजय अभियानडा. सतीश चन्द्र मित्तलकुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्राध्यापक रहे डा. सतीश चन्द्र मित्तल ने अंग्रेजों द्वारा रचे गए नृशंस हत्याकाण्डों तथा लूटमार की घटनाओं के संबंध में जो विस्तृत आलेख लिखा है, इतिहास दृष्टि स्तम्भ में प्रस्तुत है उसकी पहली किस्त। -सं.यह बड़े आश्चर्य की बात है कि विश्व के इतिहास में सभ्यता की उच्चता तथा आदर्शों की डींग हांकने वाले तथा इसका ढिंढोरा पीटने वाले ब्रिटिश साम्राज्य का मुखौटा यथार्थ में अत्यधिक घिनौना, भौंडा तथा हेयस्पद रहा है। ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत में इतिहास उसके कुकृत्यों, निर्ममतापूर्ण अत्याचारों एवं अपराधों तथा भयंकर लूटमार की वीभत्स कहानी है।इससे भी अधिक विडम्बना यह है कि ब्रिटिश इतिहासकारों, प्रशासकों तथा विद्वानों ने दोहरे मापदण्ड अपनाये। जहां उन्होंने भारतीयों द्वारा किये गये संघर्ष को प्रतिक्रियावादी, घृणास्पद तथा अत्याचारों से भरपूर बताया, वहीं अपने द्वारा किये गए जघन्य अपराधों, सामूहिक नरसंहार तथा अविश्वसनीय लूटमार का वर्णन पूर्वाग्रहों से ग्रसित, एकाकी व पक्षपातपूर्ण तरीके से किया। उदाहरणत: 10 मई, 1857 को मेरठ के महासंघर्ष के बारे में लिखा कि भारतीयों ने जहां कहीं भी किसी अंग्रेज पुरुष, स्त्री या बालक को देखा, एक को भी नहीं छोड़ा। उनकी हत्या कर दी। उपरोक्त वर्णन नितांत असत्य तथा प्रभावरहित है। कुल 31 व्यक्ति मेरठ में मारे गये, जिनकी कब्रों आज भी हैं। इसके विपरीत तत्कालीन ब्रिटिश इतिहासकार जे.डब्ल्ू केयी, जी.बी. मेलीशन, टी.आर. होल्म्स ने जानबूझकर ब्रिटिश अत्याचारों को छिपाया। केयी ने सितम्बर में किये गये दिल्ली के नृशंस हत्याकाण्ड को पूर्णत: छिपाया तथा 2015 पृष्ठों की पुस्तक में केवल एक पंक्ति “भारतीयों की लाशों पर अंग्रेजों का विजय अभियान हुआ” लिखा है। टी.आर. होल्म्स ने इस संघर्ष को “सभ्यता तथा बर्बरता के बीच” बताया, परन्तु उसने कर्नल नील के बनारस तथा इलाहाबाद में किये गये बर्बरतापूर्ण अत्याचारों को छिपाया। विरोधी दल के नेता लार्ड डिजरैली ने यह स्वीकार किया कि ब्रिटिश सरकार अत्याचारों को छिपा रही है।इस महान संघर्ष के क्रूरतापूर्ण हत्याकाण्डों तथा लूटमार का स्वरूप क्या था? इसे कुछ प्रमुख घटनाओं तथा प्रसंगों के विवरणों से सहज में ही समझा जा सकता है- दिल्ली में 14 सितम्बर से 20 सितम्बर 1857 ई. तक किया गया नरसंहार विश्व के इतिहास एवं ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक कलंक तथा शर्मनाक घटना है। उस समय दिल्ली की कुल आबादी एक लाख बावन हजार थी। अंग्रेजों ने भारतीयों को सबक सिखाने के लिए भयंकर हत्याकाण्ड किया। दिल्ली को एक श्मशान नगरी बना दिया। सैकड़ों भवन नष्ट कर दिये। दिल्ली के लालकिले, जामा मस्जिद को सैनिक छावनी बना दिया। मस्जिद के एक भाग को घोड़ों के अस्तबल में बदल दिया। फतेहपुरी मस्जिद पर ताले लगा दिये, लालकिले की कई इमारतें गिरा दी गईं। लालकिले का नाम विक्टोरिया फोर्ट करने तथा उसको चर्च बनाने के भी सुझाव आये। लाहौरी गेट व दिल्ली गेट के नाम विक्टोरिया गेट व अलेक्जेण्डर गेट कर दिये गये।दिल्ली में 27000 व्यक्तियों को फांसी दी गई। अकेले कूचा चेलान में 1400 लोग मार दिये गये। इस खूनी खेल में दिल्ली के नागरिकों को घरों से निकाल कर मौत के घाट उतार दिया। मिर्जा गालिब ने “रक्त के सागर” का वर्णन किया। तत्कालीन बम्बई के गवर्नर लार्ड एलफिन्स्टन ने वर्णन किया कि “बदले की भावना से न कोई मित्र और न कोई दुश्मन बच सका। अत्याचारों ने नादिरशाह को भी भुला दिया।” सर डिल्के ने इन अत्याचारों को इतना अधिक बताया कि मुहम्मद तुगलक को भी शर्म आ जाए। लार्ड राबर्टस ने आंखों देखा वर्णन किया। चांदनी चौक मुर्दों का शहर नजर आया। लाशों पर कुत्ते और गिद्ध जमा थे, जो उनके गोश्त को नोंच-नोंचकर खा रहे थे। इस संघर्ष के पश्चात् दिल्ली की जनसंख्या एक चौथाई रह गई थी। अगले अंक में जारी5

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