|
-महेश शुक्लतार सब टूटे हुए हैंमानवी संवेदना के।नियति कैसी हो गई है!आज मानव के ह्मदय की,धरा विह्वल हो रही हैरेख फिर से खिंची भय की,अश्रु का क्या मोल होगा!बूंद झूठी भावना के…स्वार्थ भी नि:स्वार्थ भूलेयह सहज संभव नहीं है,सिर्फ पाना और पानाभी सुखद अनुभव नही
टिप्पणियाँ