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मंथन

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Jan 7, 2007, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Jan 2007 00:00:00

अरुण शौरी की “संसदीय प्रणाली” पुस्तक के सन्दर्भ मेंराष्ट्रपति पद- संविधान बनाम जनमतदेवेन्द्र स्वरूपअरुण शौरी की इक्कीसवीं रचना बाजार में आ गयी है। इस रचना के लिए उन्होंने विषय चुना है- “संसदीय प्रणाली: उसका हमने क्या कर दिया और क्या कर सकते हैं।” मेरे जैसे लोग इस पुस्तक का इंतजार लम्बे समय से कर रहे थे। मन में यह विश्वास बैठा हुआ था कि अरुण शौरी ही इस विषय को उठाने के सर्वोत्तम अधिकारी हैं। लम्बे समय तक एक निर्भीक खोजी पत्रकार के नाते उन्होंने बाहर बैठकर इस प्रणाली के क्रियान्वयन को तटस्थ भाव से देखा। सत्ता के गलियारे में चलने वाले अनाचार, भ्रष्टाचार को बेपरदा किया। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं में जन्मी मर्यादा-शून्य और सिद्धान्तहीन राजनीति के चरित्र को देखा। सत्ता के शिखर पर बैठे शक्तिशाली राजनेताओं- इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, वी.पी सिंह, चंद्रशेखर, देवीलाल आदि के अनैतिक आचरण पर उंगली उठाने का साहस दिखाया। उनसे सीधा टकराव मोल लिया। भारतीय पत्रकारिता में “आंधी से टक्कर लेने वाले नन्हें दीये” का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके प्रखर राष्ट्रभक्त अन्त:करण ने राष्ट्रीय एकता और स्वाभिमान को दुर्बल करने वाली प्रत्येक पृथकतावादी और विघटनकारी प्रवृत्ति पर बेझिझक चोट की- चाहे वह मुस्लिम कट्टरवाद-पृथकतावाद हो, चाहे छल-बल से धर्मान्तरण में प्रवृत्त ईसाई मिशनरी हों, चाहे संकीर्ण खालिस्तानवाद हो, चाहे विघटनकारी जातिवाद और आरक्षणवाद हो। अरुण शौरी की कलम प्रत्येक राष्ट्रीय व्याधि पर चली। लोग गुस्से से तिलमिला उठे। अरुण शौरी को गालियों की बौछार और उग्र प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा। किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को चुनौती देने का साहस कोई नहीं कर सका। ठोस-आकट तथ्यों के आधार पर राष्ट्रहित की कसौटी पर निर्भय तार्किक समीक्षा ही अरुण शौरी का वैशिष्ट है, वही उनकी ताकत भी है। भारत की न्याय-व्यवस्था की वर्तमान दुरावस्था और चीन के प्रति भारत की विदेश नीति को अदूरदर्शिता का उनका विवेचन उन्हें भविष्यद्रष्टा चिन्तकों की पंक्ति में खड़ा कर देता है।पहले वे राजनीति का अंग नहीं थे। सत्ता के गलियारे के बाहर खड़े थे, किन्तु पिछले दस वर्ष से वे राज्यसभा के सदस्य हैं। कई वर्ष तक उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में विनिवेश, संचार एवं सूचना जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों को मंत्री के नाते संभालने का अवसर मिला। अत: कई बार मेरे मन में प्रश्न उठता था कि उनके जैसे सिद्धान्तनिष्ठ निर्भीक पत्रकार को सत्ता के गलियारे में प्रवेश करने के बाद कैसा लग रहा है? क्या संसद के भीतर भी वे अपनी आवाज को उतना ही प्रभावी पाते हैं, जितना वह संसद के बाहर थी? क्या मंत्रिमंडल के निर्णयों को दिशा देने में वे अपनी कोई भूमिका देखते हैं? क्या नौकरशाही से वे अपने निर्णयों को क्रियान्वित करा पाते हैं? सरकार को राजनीतिक नेतृत्व चलाता है या नौकरशाही तंत्र? क्या सांसद और मंत्री के नाते अपने दस वर्ष लम्बे अनुभव के पश्चात् भी वे समझते हैं कि भारत द्वारा अंगीकृत संसदीय प्रणाली तो स्वयं में ठीक है, उसका क्रियान्वयण ही दोषपूर्ण है, गलत अयोग्य हाथों में है, अर्थात् स्वाधीन भारत आज जिस संकट से गुजर रहा है उसकी जड़ें संविधानिक रचना में नहीं, गलत राजनीतिक नेतृत्व में है? मुझे प्रसन्नता है कि उनकी पैनी, अन्वेषक बुद्धि ने इस महत्वपूर्ण विषय पर अपनी लेखनी चलायी।जैसा समाज, वैसा नेतृत्वइस विषय पर उनकी पुस्तक ऐसे समय बाजार में आयी है जब 1950 में अंगीकृत संविधानिक रचना में अन्तर्हित सब विकृतियां और अन्तर्विरोध भयावह रूप धारण करके हमारे सामने खड़े हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव-परिणामों ने यह स्पष्ट किया कि चुनावी-राजनीति में सफलता के लिए आदर्शवाद या सिद्धान्तनिष्ठा से अधिक कुशल रणनीति और धन-बल के साधन चाहिए। इन चुनवों में एक भी बाहुबली हारा नहीं- मुख्तार अंसारी, राजा भैया, अखिलेश प्रताप, डी.पी. यादव आदि-आदि सभी जीत गये। बाहुबलियों के राज को खत्म करने के नारे पर सवार होकर जो मायावती सत्ता में पहुंचीं, उन्हें अपने मंत्रिमंडल में अपराधी छवि के लोगों को स्थान देना पड़ा और स्थान-स्थान से सत्ता के नशे में चूर उनके विधायकों और कार्यकर्ताओं के अमर्यादित हिंसक आचरण के समाचार आने लगे। यदि लोकतंत्र के इस मूलभूत सिद्धान्त, “जैसा समाज होगा वैसा ही नेतृत्व वह चुनकर ऊ‚पर भेजेगा”, की कसौटी पर कसें तो पिछले 57 वर्षों में हमने कैसा समाज जीवन खड़ा किया है, वह हमारी आंखों के सामने है।राजस्थान के गुर्जर आंदोलन ने इस राजनीतिक प्रणाली में से जन्मी संकीर्ण, प्रतिस्पर्धी व हिंसक जातिवादी राजनीति का भयानक चेहरा हमें दिखाया। योग्यता और कर्मठता के बल पर आगे बढ़ने के बजाय जातिवादी आरक्षण की वैशाखी के सहारे नौकरियों में आगे बढ़ने का लालच दिखा कर नेतृत्व ने गुर्जर समाज को “अन्य पिछड़े वर्गो” की आरक्षित श्रेणी से और नीचे “अनुसूचित जनजाति” की श्रेणी पाने के लिए उग्र हिंसक प्रदर्शन के रास्ते पर धकेल दिया। पूर्व योजना से राष्ट्रीय मार्गों और रेल मार्गों को हिंसापूर्वक अवरुद्ध करके करोड़ों-करोड़ों देशवासियों के जीवन को अस्त व्यस्त कर दिया। पुलिस थानों, सरकारी एवं सार्वजनिक सम्पत्ति को नष्ट किया गया। सैकड़ों करोड़ रुपए की हानि की गयी। टी.वी. चैनलों पर हथियारबंद गुर्जर युवकों के मुंह से यह सुन कर भारतीय लोकतंत्र की 57 वर्ष लम्बी यात्रा पर लज्जा आयी कि ओ.बी.सी. में जाट म्हारा रास्ता रोके खड़ा है और एस.टी. पर मीणा ने कब्जा जमा रखा है। जातीय स्पर्धा और विद्वेष का जहर कितना गहरा हो गया है, यह उसका उदाहरण है। इस जहर ने मीणा और गुर्जर समाजों के बीच सशस्त्र गृह युद्ध का रूप धारण कर लिया। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही जातीय हिंसा के इस नग्न प्रदर्शन और करोड़ों रुपयों की राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करने की इस हिंसक राजनीति को “राष्ट्रीय शर्म” कहा है। इस स्थिति को उत्पन्न करने के लिए राजनीतिक नेतृत्व पूरी तरह जिम्मेदार है। कितनी लज्जाजनक स्थिति है कि जातीय संघर्ष की इस आग को बुझाने, जातीय सद्भाव को पैदा करने के बजाय राजस्थान सरकार के गुर्जर मंत्री गुर्जर और मीणा मंत्री केवल मीणा हो गये। न कोई राजस्थानी बचा, न कोई भारतीय।विखंडित राजनीतिअरुण शौरी ने अपनी पुस्तक में प्रामाणिक आंकड़े देकर सिद्ध किया है कि भारतीय लोकतंत्र को सही अर्थों में प्रतिनिधिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अधिकांश सांसद और विधायक अपने चुनाव क्षेत्र की कुल मतदाता सूची के 20 प्रतिशत से कम वोट प्राप्त करके चुन लिये जाते हैं। पुस्तक का वह अंश बहुत ही तथ्यात्मक एवं स्पष्ट है। अरुण शौरी का मत है कि इतने कम प्रतिशत मतों से विजय मिलने के कारण राजनेताओं में जाति, संप्रदाय एवं क्षेत्रवाद को उभारने की प्रवृत्ति को बल मिला है। इस प्रवृत्ति ने समाज को विभाजित किया है और समाज का विखंडन विधानमंडलों व संसद में प्रतिबिम्बित हो रहा है। इस विखंडित राजनीति में से गठबंधन सरकारें बन रही हैं जिनका आधार राष्ट्रहित या सैद्धान्तिक कार्यक्रम न होकर केवल सत्ता के टुकड़ों का बंटवारा होता है। अरुण शौरी ने इस राजनीतिक प्रणाली के पिछले 57 वर्षों के अनुभव के आधार पर निष्कर्ष निकाले हैं-यह प्रतिनिधिक नहीं है।देश के शासन प्रबंध में जन सहभाग नहीं है।कार्यपालिका विधायिका के प्रति अपने को उत्तरदायी नहीं मानती। विधानसभाओं एवं संसद भवन में समस्याओं और विधेयकों पर गहन चिन्तन या बहस नहीं होती। इनका उपयोग केवल शोर मचाकर और सदन की कार्रवाई को भंग करके अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए किया जाता है।प्रत्याशियों का चयन उनकी बौद्धिक एवं प्रशासकीय योग्यता, उनकी प्रामाणिकता व नि:स्वार्थ राष्ट्र भावना के आधार पर न होकर उनके चुनाव जीतने की क्षमता के आधार पर किया जाता है।चुनाव में विजय का मुख्य आधार जाति, सम्प्रदाय या क्षेत्रवादी वोट बैंक होता है। धनशक्ति व डंडाशक्ति भी विजय में मुख्यकारक होते हैं। इसलिए विधानसभाओं और संसद में अपराधी छवि के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है।गठबंधन सरकार में मंत्रियों का चयन योग्यता के आधार पर न होकर दल के आधार पर होती है इसलिए अपराधी तत्वों को भी मंत्री बनाना पड़ता है।गठबंधन सरकारों में अन्दरुनी सत्ता-स्पर्धा और खींचतान के कारण वह सरकार न सुदृढ़ होती है और न स्थायी। वह राष्ट्रहित में कोई भी कड़ा निर्णय लेने में असमर्थ होती है।इस प्रणाली के भीतर देश को न सुदृढ़ केन्द्र मिल सकता है, न सुदृढ़ और टिकाऊ सरकार।लोग विधायक या सांसद राष्ट्र सेवा के लिए नहीं, स्वसेवा के लिए बनते हैं। इससे उन्हें आर्थिक लाभ, प्रभाव एवं सत्ता सुख मिलता है। उनकी संसदीय कार्य में रुचि नहीं रह गयी है। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने लिखा है कि न्यायालय की अवमानना (संशोधन) जैसे महत्वपूर्ण विधेयक पर बहस के समय लोकसभा में सत्तारूढ़ पक्ष के 21 और विपक्ष के केवल 9 सदस्य उपस्थित थे। राष्ट्र का बजट भी बिना बहस के पास हो रहा है।कालबाह्र संविधानस्वाभाविक ही, राजनेताओं के स्वार्थी, भ्रष्ट और अनैतिक आचरण के कारण जनमानस की उनके प्रति श्रद्धा समाप्त हो गयी है। राष्ट्र इस सिद्धान्तहीन, सत्तालोलुप, राष्ट्र विघातक राजनीति से छुटकारा पाने को व्याकुल है, पर कोई उपाय उसे नहीं सूझ रहा। राजनीति एवं राजनीतिज्ञों के प्रति जनमानस की यह गहरी अनास्था वर्तमान राष्ट्रपति चुनाव के समय सामने आ गयी है। जनमानस चाहता है कि डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम पुन: राष्ट्रपति बने क्योंकि वे राजनीतिज्ञ नहीं हैं। अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि वे राजनीति से ऊ‚पर उठकर राष्ट्रहित में निर्णय ले सकते हैं। इस पूरे कालखंड में उन्होंने एक भी शब्द राष्ट्र के मनोबल को खण्डित करने वाला नहीं बोला, बल्कि अपने प्रत्येक शब्द से उन्होंने युवकों और बालकों को एक महान भारत के निर्माण का सपना व प्रेरणा प्रदान की है। उन्होंने राष्ट्रपति पद को एक नई गरिमा प्रदान की। उन्होंने राज्यपालों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाया। माना जाता है कि उनके कारण ही सोनिया गांधी अपने विदेशी मूल के कारण प्रधानमंत्री नहीं बन पायीं जबकि वे उसकी पूरी तैयारी करके राष्ट्रपति भवन गयी थीं। डा. कलाम ने ही लाभ के पद के विधेयक को वापस लौटाकर सोनिया गांधी को लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र देने की स्थिति में पहुंचाया था। इन सब गुणों के कारण डा. कलाम जनता के राष्ट्रपति बन कर उभरे। जनमत उनको दोबारा राष्ट्रपति देखने के लिए व्याकुल हो उठा है। अनेक टेलीविजन चैनलों एवं समाचार पत्रों द्वारा आयोजित जनमत सर्वेक्षण में डा. कलाम सर्वाधिक लोकप्रिय प्रत्याशी के रूप में उभरे। भारतीय राजनीति विखंडन के जिस दौर से गुजर रही है उसमें राष्ट्र के सर्वोच्च पद पर एक दल निरपेक्ष गैर राजनीतिक राष्ट्रभक्त का आसीन होना नितान्त आवश्यक है। किन्तु संविधान ने राष्ट्रपति के चयन का अधिकार राष्ट्र को न देकर राजनीतिक दलों को सौंप दिया है। वामपंथियों ने डा. कलाम को उनकी राष्ट्रभक्ति के कारण कभी पसंद नहीं किया। उन्होंने घोषणा कर दी कि वे राष्ट्रपति पद पर राजनीतिक व्यक्ति चाहते हैं, गैर राजनीतिक नहीं। सोनिया गांधी तो प्रारंभ से ही डा. कलाम को अपनी वंशवादी राजनीति के लिए बाधा समझती हैं। रबर स्टाम्प प्रधानमंत्री के बाद वे अब रबर स्टाम्प राष्ट्रपति चाहती हैं। इसलिए वे पहले दिन से राष्ट्रपति पद के लिए फखरुद्दीन अली अहमद जैसा रबर स्टाम्प नाम उछालती रहीं और अन्त में प्रतिभा पाटिल को मैदान में उतारा गया। इसे महिला सशक्तिकरण का निर्णय बताया जा रहा है। प्रतिभा के पीछे महराष्ट्र और राजस्थान का शेखावत अभियान खड़ा किया जा रहा है। यदि महिला सशक्तिकरण ही उनकी प्राथमिकता थी तो पिछली बार आजाद हिंद फौज से निकलीं वयोवृद्ध लक्ष्मी सहगल को जिताने के लिए पूरा जोर क्यों नहीं लगाया गया? एक बिन्दु तक डा. कलाम अत्यधिक लोकप्रिय और सशक्त प्रत्याशी थे। सबको विश्वास था कि सोनिया पार्टी और वामपंथियों के अलावा सभी दल उनको समर्थन देंगे। किन्तु जिस दिन विपक्ष के एक शीर्ष नेता ने एक पुस्तक लोकार्पण कार्यक्रम के मंच से बेमौके अचानक डा. कलाम के दोबारा राष्ट्रपति बनने को परम्परा विरुद्ध घोषित किया, उसी दिन से डा. कलाम के लिए जन उभार शिथिल पड़ गया और उनके विरोधियों के हौंसले बुलंद हो गये। किन्तु डा. कलाम का नाम दोबारा उभरते ही श्री भैरोंसिंह शेखावत ने अपनी प्रतिक्रिया में उसका स्वागत करके श्रेष्ठ राजनीतिक सोच एवं परिपक्वता का परिचय दिया। राष्ट्रपति पद को क्षुद्र स्वार्थी राजनीति के दलदल से बाहर निकालने के लिए जनमत को पूरी शक्ति से जोर लगाना होगा।किन्तु राष्ट्रपति चुनाव का वर्तमान परिदृश्य यह सिद्ध करता है कि संविधान की रचना जिन परिस्थितियों और वातावरण में हुई थी उसमें भारी परिवर्तन आ चुका है और यह संविधान अब कालबाह्र हो गया है। किन्तु इसमें परिवर्तन की पहल कौन करे? अरुण शौरी का सुनिश्चित मत है कि वर्तमान दलीय राजनीति में से यह पहल आना असंभव है, क्योंकि इस राजनीति का इस संविधानिक रचना में निहित स्वार्थ पैदा हो चुका है। शौरी ने जो कुछ संशोधन और विकल्प सुझाये हैं उन पर निर्णय कौन लेगा यह वे नहीं बताते। यह आवश्यक नहीं कि इन संशोधनों से ही समस्या का अचूक निदान निकल आये। किन्तु इतना तो स्पष्ट है कि इस राजनीतिक प्रणाली में प्रवाह पतित की तरह बहने के बजाय उसके बारे में देशव्यापी गंभीर बहस आरंभ होनी चाहिए। यह पुस्तक ऐसी बहस के लिए गंभीर बौद्धिक आधार प्रदान करती है। इस दृष्टि से पुस्तक स्वागत योग्य है। राष्ट्र की वर्तमान दुरावस्था से चिन्तित प्रत्येक व्यक्ति को उसका अध्ययन अवश्य करना चाहिए।(प्रकाशक- ए.एस.ए. एवं रूपा एण्ड कम्पनी, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ सं.- 264, मूल्य- 495 (सजिल्द)) (21-6-2007)12

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