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सम्पादकीय

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Jan 4, 2007, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Jan 2007 00:00:00

किसी भी प्राणी से द्रोह न करके जिस धर्म का पालन होता है, वही साधु पुरुषों के मत में उत्तम धर्म है।-वेदव्यास (महाभारत, शांति पर्व, 21/11)श्रीराम सेतुभारत और श्रीलंका के बीच मन्नार की खाड़ी से होते हुए लगभग 30 किलोमीटर लम्बा ऐसा क्षेत्र है जो सागर शैलों से पुल के समान आच्छादित है। इसे प्राचीन काल से श्रीराम सेतु के नाम से जाना जाता है। न केवल लोकमान्यताओं बल्कि पुराविदों के शोध से भी यह जानकारी मिलती है कि यह 30 किलोमीटर लम्बा श्रीराम सेतु 17 लाख वर्ष पुराना है। कुछ वर्ष पहले अमरीका के अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान “नासा” ने उपग्रह द्वारा खींचे चित्र जारी किए थे। उन चित्रों से पुन: एक बार यह प्रसंग प्रमुख हो उठा। पांच हजार वर्ष से भी पहले जो हिन्दू ग्रंथ रचे गए उनमें श्रीराम सेतु का बहुत प्रेरक, रोचक और महिमावान वर्णन मिलता है। तिरुचिरापल्ली स्थित भारतीदासन विश्वविद्यालय के पुरातत्व शास्त्रियों और वैज्ञानिकों ने शोध के उपरांत अपनी रपट में लिखा है कि यह श्री राम सेतु 3,500 वर्ष पुराना है। लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने लिखा है कि सागर के आरोह और अवरोह का वैज्ञानिक अध्ययन करने के उपरांत यह पता चलता है कि ईसा पूर्व छठी सहस्त्राब्दी में सागर का जलस्तर दस से बीस मीटर तक उठ गया था। अत: उससे पूर्व निश्चित रुप से जिस शैल खंड को श्रीराम सेतु कहा जाता है वह भारत से श्रीलंका तक पैदल जाने का एक व्यावहारिक मार्ग रहा होगा।हाल ही में भारत सरकार ने अरबों रुपए का सेतु समुद्रम नौका नहर प्रकल्प स्वीकृत किया है जिसका उद्देश्य है मन्नार की खाड़ी से होते हुए समुद्री नौकाओं के आवागमन का जलमार्ग तैयार करना। यह जलमार्ग तैयार करने के लिए धनुष्कोटि के पास श्रीराम सेतु के अंतिम छोर पर शैल खंडों को तोड़ना पड़ेगा ताकि वहां से बड़े समुद्री जहाज आसानी से पार हो सकें। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि श्रीराम सेतु नाम से प्रसिद्ध शैल खंड, जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के इतिहासकारों ने आदम पुल का नाम दिया, तोड़कर नौकाओं के लिए जलमार्ग सुगम बनाने से तीस घंटे का नौवहन समय और चार सौ किलोमीटर की श्रीलंका द्वीप के चारों ओर की जाने वाली यात्रा बच जाएगी। लेकिन यह तर्क देश के हिन्दू संगठनों और भारतीय सांस्कृतिक गौरव से जुड़े विभिन्न संस्थानों को स्वीकार्य नहीं है। अनेक ऐसे संगठन हिन्दू संवेदनाओं और भारतीय विरासत के विरुद्ध इस सबसे भीषण और पाश्विक आक्रमण के विरुद्ध खड़े हो गए हैं जो हिन्दू बहुल देश में, हिन्दू बहुमत द्वारा चुनी सरकार के अधिकांश हिन्दू नेता और अधिकारियों द्वारा तोड़ा किया रहा है। केवल एक ईसाई प्रमुख राजनेता के हाथों में सत्ता की बागडोर आ जाने से देश के राजनीतिक और प्रशासनिक चरित्र में कितना अंतर आ जाता है, यह इसका भी एक उदाहरण है।अब सिक्के पर क्रास-देश के साथ छलजैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारतीय मुंशी विक्टोरिया के गीत गाने लगे थे वैसे ही सिक्के पर कदाचित् ऊँ का विरोध करने वाले किसी न किसी बहाने से दो रुपए के सिक्के पर एक ऐसी आकृति अंकित कर बैठे हैं जो प्रथम दृष्टया ईसाई क्रास ही लगती है। इसकी पिछले अनेक दिनों से अन्तरताने सहित विभिन्न माध्यमों पर चर्चा हो रही है लेकिन सरकार अभी तक किसी स्पष्टीकरण के साथ सामने नहीं आई है। निश्चय ही वह किसी न किसी रूप में इस प्रकार का स्पष्टीकरण दे सकती है जिससे लगे कि क्रास की वह आकृति गन्ने के खेत या जनसंख्या नियंत्रण का प्रतीक अथवा ऐसा ही कुछ सीधा-सच्चा मामला है जिसे हिन्दू “साम्प्रदायिक” लोग विकृत कर प्रस्तुत कर रहे हैं।सामान्यत: 2 रुपए के सिक्कों पर एक तरफ भारत का राज चिन्ह, दूसरी ओर भारत का नक्शा या गेहूं की बालियां रहती थीं। लेकिन न केवल इन नए सिक्कों पर अब भारत के राज-चिन्ह के नीचे से सत्यमेव जयते का घोष वाक्य गायब है, जो कि राज-चिन्ह अधिनियम के अन्तर्गत दण्डनीय अपराध है, बल्कि चार रेखाओं का एक ऐसा अबूझा, अजीब एवं अव्याख्यायित चित्र है, जो क्रास की आकृति में है। जिस देश में छल एवं कपट से मतान्तरण सामाजिक हिंसा और तनाव पैदा कर रहा हो, जहां “लकड़ी के यीशू और लोहे के राम” पानी में डुबोकर पादरी हिन्दुओं पर छल का प्रहार करने से न चूकते हों, वहां 2 रुपए के सिक्के पर क्रास की आकृति का भोले-भाले वनवासियों के मतान्तरण में इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, यह कैसे कहा जा सकता है। अच्छा होगा सरकार इस भ्रम को दूर करे, यह सिक्का वापस ले और सर्वपंथ समादर की नीति को हिन्दुओं पर प्रहार का साधन न बनने दे।5

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