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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ”कन्या भ्रूण हत्या” विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की अंतिम कड़ीस्त्री जननी बने, हत्यारिन नहीं-पूर्णिमा कुमावतकन्या भ्रूण हत्या के पीछे मुख्य समस्या है दहेज। और भी समस्याएं हैं जो कन्या भ्रूण हत्या से जुड़ी हैं, जैसे सीमित परिवार, पुत्र की चाह, अशिक्षा आदि। पुत्र की चाह हम इसलिए भी करते हैं कि पुत्र ही हमारे वंश को आगे चलाएगा। पुत्र चाहिए, केवल इसलिए कन्या भ्रूण की हत्या जघन्य अपराध है। अगर एक व्यक्ति की हत्या पर कठोर दण्ड मिलता है तो कन्या भ्रूण के हत्यारे को उससे दोगुना दण्ड दिया जाना चाहिए। सोचें, अगर हमारी मां भी कोख में हमारी हत्या कर देती तो क्या हम इस पृथ्वी पर आते?आज सीमित परिवार के चलते एक पुत्र और एक ही पुत्री का चलन बढ़ता जा रहा है। इसलिए जब भ्रूण की जांच सुलभ है तो लोग पुत्र ही क्यों नहीं प्राप्त करें, कन्या क्यों? इस पाप के लिए जितना समाज व चिकित्सक दोषी हैं उससे अधिक वह मां दोषी है जो अपने कोख की कली को खिलने से पहले ही किसी नाली में या कहीं जानवरों द्वारा नोचने के लिए फेंक देती है। यदि मां किसी भी मूल्य पर गर्भपात कराने को राजी न हो तो क्या भ्रूण हत्या हो पाएगी? स्त्री चाहे तो पुरुष के विचारों में भी बदलाव ला सकती है। पुत्र की शादी में दहेज मांगने वालों में स्त्री का प्रतिशत ही अधिक होता है। जन्म से ही लड़के को यह घुट्टी पिलाई जाती है कि पुरुष श्रेष्ठ है। उसे तो कमाना है जबकि लड़की को पराए घर जाना है। कन्या पर पढ़ाने-लिखाने का खर्च और फिर दहेज की समस्या, इसलिए कन्या पैदा ही न होने दी जाए- यह सोच बन गई है। अगर हम अपने समाज में यह सोच विकसित करने में सफल हो जाते हैं कि लड़का व लड़की दोनों एक समान हैं, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, वृद्धावस्था में कन्या भी माता-पिता की देखभाल कर सकती है तो काफी हद तक परिवर्तन होगा। साथ ही हमें दहेज समस्या भी हल करनी होगी। अगर दहेज समस्या हल हो जाती तो कन्या भ्रूण हत्या की समस्या स्वत: ही हल हो जाएगी।आज की युवा पीढ़ी- जो कल के माता-पिता हैं, विशेषकर कन्याएं- जो कल की भावी माताएं हैं, अपने मन में दृढ़ संकल्प लें कि वह ऐसे ही युवक से विवाह करेंगी जो दहेज न लेता हो और विवाह के बाद गर्भस्थ-चाहे पुत्री हो या पुत्र, वह उसे ही जन्म देगी, तब समाज में अपने आप एक स्वस्थ वातावरण निर्मित होगा।इसके साथ ही सभी भ्रूण जांच केन्द्रों और गलत आधार पर जांच करने वालों के विरुद्ध कठोर से कठोर कार्यवाही की जानी चाहिए ताकि गर्भपात करने से पहले व्यक्ति सौ बार सोचे। स्त्री ईश्वर की सुन्दरतम कृति इसीलिए कहलाती है क्योंकि वह अपने रक्त से निर्माण करती है। अत: स्त्री प्रकृति द्वारा दी गई जिम्मेदारी का उसी रूप में निर्वहन करे, तब ही हमारे आने वाला कल सुधरेगा।द्वारा श्री गोपाल कुमावत”रामेश्वरम्” 34/1166, विश्वविद्यालय मार्ग,पहाड़ा, उदयपुर (राजस्थान)खुलापन सही, पर वर्जनाएं न तोड़ें-सरोज ओकपुराने जमाने में संयुक्त परिवार पद्धति थी। भरे-पूरे परिवार में बड़े लोग बच्चों पर अच्छे संस्कार डालते थे। इससे बड़ों का आदर सत्कार करना, नम्रता, शालीनता, परस्पर प्रेम, सहयोग और आत्मीयता जैसे अच्छे गुणों का निर्माण होता था। परंतु धीरे-धीरे यहां पाश्चात्य संस्कृति का प्रवेश हो गया। अब न तो हम अपनी प्राचीन भारतीय परम्परा को निभा पाते हैं न पाश्चात्य संस्कृति पर चल पाते हैं।आजकल छोटे शहरों से बड़े शहरों में शिक्षा या नौकरी के लिए लड़कियां आती हैं। अपने माता-पिता की निगरानी, परिवार के मर्यादित वातावरण से दूर स्वच्छंद माहौल में इन्हें बहुत अच्छा लगता है। नए-नए मित्र बनते हैं। घूमना-फिरना, हंसी-मजाक आदि उम्र के इस पड़ाव में लुभावने लगते हैं। इसमें से कुछ मित्र घनिष्ठ हो जाते हैं। यह घनिष्ठता कब शारीरिक समर्पण में बदल जाती है, पता ही नहीं चलता। क्षणिक सुख के लिए लड़कियां अपना सर्वस्व खो बैठती हैं, नतीजा- भ्रूण हत्या? माता-पिता भी अपनी बेटियों को नई संस्कृति में ढालना चाहते हैं ताकि जमाने की रफ्तार में उनकी बेटियां पिछड़ी न रहें। परंतु लड़कियां उनकी दी हुई आजादी का अनुचित लाभ उठाती हैं। यदि घर पर ही बचपन से उन्हें अच्छे संस्कार दिए जाएं तो बुरा कार्य करते समय उनका अन्तर्मन उन्हें रोकेगा। यदि माता-पिता ऐसी बातों की जानकारी व समझ पहले से अपनी बच्चियों को दें तो दुविधा के क्षणों पर वे विजय प्राप्त कर सकती हैं। अविभावक व बच्चों के बीच मजबूत व खुला रिश्ता होगा तो आत्मविश्वास भी पैदा होगा।75, विष्णु पुरी, इन्दौर (म.प्र.)कोख में जब कन्या मारी जाती है तो मां, दादी, काकी, बुआ, मौसी कहां चली जाती हैं?-कल्पी शर्माहमारे धर्मशास्त्रों, परम्पराओं, रीति- रिवाजों में प्राय: जो लिखा और बोला जाता है, वह व्यवहार में लाया नहीं जाता है। इसे एक विरोधाभास ही कहेंगे कि हिन्दू समाज के रीति- रिवाजों में वधु को “शत पुत्रवती भव:” का आशीर्वाद दिया जाता है, “शत पुत्रीवती” का नहीं। क्योंकि कन्या तो दान की वस्तु है, पराया धन है। उसे माता-पिता के अंतिम संस्कार करने का भी अधिकार नहीं है। जबकि पुत्र मोक्ष प्राप्ति की सीढ़ी होता है। इन मान्यताओं ने हमारे समाज की चेतना तथा मानसिकता पर गहरा असर डाला है। रह-सही कसर बढ़ते भौतिक वाद ने पूरी कर दी है। कन्या का जन्म मध्यमवर्गीय परिवार के लिए बहुत बड़ा आर्थिक बोझ होता है। किन्तु जहां कन्या के विवाह पर लाखों रुपए व्यय कर दिये जाते हैं, उसकी उच्च और व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर सभी मौन रहते हैं। और आश्चर्य तब होता है जब ऐसा शिक्षित और सम्पन्न परिवारों में भी होता है। गांवों, देहातों में अशिक्षित परिवारों में बेटियों को कोख में भले ही न मारा जाता हो लेकिन उन्हें पुत्र को दी जाने वाली सभी सुविधाओं से वंचित रखा जाता है। अर्थात् मादा संतति को तो गरीब और धनी दोनों वर्गों के परिवारों में तिरस्कार मिलता है।विडम्बना यह भी है कि शक्तिरूपेण गृहलक्ष्मी मां, दादी, बुआ, चाची के रूप में जीने वाली स्त्री ही मूकदर्शक बनकर यह तिरस्कार झेलती है तथा इसे बढ़ावा भी देती है। कन्या के जन्म पर उपेक्षित भाव तथा पुत्र जन्म पर उत्सव मनाने वाले परिवारों की स्त्रियां क्यों अपनी गरिमा भूल जाती हैं?यह भी एक शाश्वत सत्य है कि स्त्री ने ही स्त्री की पीड़ा को कभी नहीं समझा तथा स्त्री के तिरस्कार तथा शोषण के पीछे एक स्त्री ही होती है। कन्या को कोख में मार देने वाले हाथ औरत के ही होते हैं। यदि मां मजबूर है तो क्या घर-परिवार की सभी औरतें भी मजबूर होती हैं?द्वारा श्री शिव नारायण शास्त्रीमंडी समिति के पास, द्वारिका पुरी,फिरोजाबाद (उ.प्र.)ऐसी मां, नागिन से भी बदतर-तृप्ति पटवागर्भ के पहले ही दिन से माता की कोख में जीव का प्रवेश हो जाता है। जरा सोचिए। बिना जीव के उसमें विकास कैसे संभव है? लेकिन संस्कारशील भारतीय नारी को भ्रमित कर उसे कहा जाता है कि गर्भपात में न तो जीव हिंसा है, न पाप। प्राथमिक अवस्था में उसमें जीव नहीं होता, वह तो केवल एक मांसपिण्ड है। गर्भपात में विशेष कोई कष्ट नहीं होता, आप एक सप्ताह में ही स्वस्थ नजर आएंगी। इस प्रकार सरासर झूठ बोलकर तथ्यों को छिपाया जाता है। वास्तव में गर्भपात बाल हत्या जैसा ही पाप है, फांसी की सजा से भी भयंकर आचरण है। फांसी तो गंभीर अपराध करने पर दी जाती है, जबकि गर्भ में पलने वाले बच्चे का कोई अपराध नहीं होता, वह अबोध व निर्दोष होता है। फांसी देते ही तत्काल मृत्यु हो जाती है, जबकि गर्भपात में निर्दोष शिशु तड़प-तड़प कर मरता है। वह बेचारा शिशु कौन से न्यायालय में जाकर अपने जीने के अधिकार के लिए लड़े?वात्सल्य, करुणा और अहिंसा को क्षण मात्र के लिए एक तरफ रखें तो भी गर्भपात कराने वाली स्त्री के लिए भी यह खतरनाक व जोखिम भरा है। दुनिया में प्रतिवर्ष पांच करोड़ से भी ज्यादा गर्भपात होते हैं, उसमें दो लाख से ज्यादा स्त्रियां यातना सहते हुए मृत्यु को प्राप्त होती हैं। गर्भपात के कारण कई स्त्रियां अनेक रोगों की शिकार बनती हैं।शेरनी भी अपने संतान की रक्षा के लिए जान न्योछावर कर देती है। अपने बच्चों को खा जाने वाली नागिन भी एक बार तो उनको जन्म देकर दुनिया देखने का अवसर देती है। कन्या भ्रूण का गर्भपात कराने वाली मां को नागिन की उपमा देना भी नागिन का अपमान है। माता-पिता अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए पुत्र को ज्यादा महत्व देते हैं। वे गर्भ-परीक्षण करवाते हैं और गर्भ में कन्या हो तो गर्भपात करा देते हैं। क्या यह नारी जाति का सम्मान करना है? एक कहावत है- अपने द्वारा लगाया हुआ विषवृक्ष भी काटा नहीं जाता। फिर जिस गर्भ को स्त्री-पुरुष मिलकर पैदा करते हैं, उसकी अपने ही द्वारा हत्या कर देना कितनी कृतघ्नता है? असंयम तो खुद करते हैं पर हत्या बेकसूर गर्भ की करते हैं। गर्भपात की वैधता ने देश में चारित्रिक एवं नैतिक संकट उत्पन्न कर दिया है। विवाहितों व वयस्कों की बात छोड़ दें तो भी देश में आज किशोरियों में बढ़ती गर्भपात की समस्या हमारे अमर्यादित आचरण को प्रकट कर देती है।द्वारा श्री परमल पटवाचौधरी मोहल्ला, नीमच (म.प्र.)बन्द हो यह कन्या का दान-प्रीति अग्रवालपुत्र जन्म अर्थात् वंशवाहक व बुढ़ापे में सुरक्षा व सहारे की गारंटी। पुत्री जन्म अर्थात् किसी दूसरे के लिए खेत को सींचना व उसकी रखवाली करना, वह भी तब जबकि अश्लीलता की हदें पार करता पुरुष बच्ची से लेकर बूढ़ी महिलाओं तक पर घात लगाये बैठा हो और कानून व न्याय व्यवस्था लगभग नपुंसक हो चुकी हो।इस सबके बावजूद भी कुछ लोग कन्याओं को जन्म देते हैं। उनकी परवरिश करते हैं। इसलिए महान हैं वे माता-पिता, अभिनन्दनीय हैं। उनका समाज और सरकार द्वारा सार्वजनिक अभिनन्दन, स्वागत होना चाहिए, उन्हें पुरस्कृत भी किया जाना चाहिए। परन्तु हम हर व्यक्ति से ऐसी महानता की अपेक्षा नहीं रख सकते। आमतौर पर व्यक्ति का हर कार्य स्वार्थ से जुड़ा होता है। कल्पना कीजिए कि हमारा समाज मातृसत्तात्मक होता और पुत्र एक दान में दी जाने वाली वस्तु होती, तो शायद आज हम बाल भ्रूण हत्या की समस्या से जूझ रहे होते। अर्थात् बीमारी की जड़ संतान के पुत्र या पुत्री होने में नहीं है बल्कि उसके उपयोगी या अनुपयोगी समझने जैसी मानसिकता में है। इस बीमारी का सिर्फ और सिर्फ एक ही इलाज है कि “कन्या दान” की रस्म को न निभाया जाए। ताकि पुत्री के माता-पिता अपनी पुत्री व दामाद से धन, सेवा, सुरक्षा, वंशवृद्धि व मुखाग्नि तक की वैसी ही अपेक्षा रखें जैसी बेटे से। हमें अपने बेटों को भी ऐसी शिक्षा देने की आवश्यकता है कि वे अपनी पत्नी के परिवार के लिए वही समर्पण और त्याग प्रदर्शित करें जैसा कि स्त्रियां अपने पति के परिवार के लिए करती आयी हैं। साथ ही बच्चों को हमेशा ऐसे संस्कार देने चाहिए ताकि उनमें नारी के प्रति सम्मान का भाव जगे।ए-3, गीता नगरी, बिजनौर(उ.प्र.)15
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