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सियाचिन पर सियासत क्यों?

by
Dec 11, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Dec 2006 00:00:00

सियाचिन पर फिर से सुगबुगाहट शुरू हुई है। और यह सुगबुगाहट भारत की ओर से कम, पाकिस्तान की ओर से ज्यादा दिखाई दे रही है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री खुर्शीद अहमद कसूरी के हाल के बयान पर गौर करें तो साफ पता लगेगा कि पाकिस्तान की एकमात्र इच्छा सियाचिन पर तैनात भारतीय सैनिकों की वापसी है। आखिर भारत ऐसा क्यों करे? सियाचिन सहित पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अटूट अंग है, भारत की संसद ने 1994 में इस संकल्प की पुष्टि की थी। लेकिन भारत के कुछ राजनीतिज्ञ ही इस संकल्प को भुलाकर सियाचिन पर विरोधाभासी वक्तव्य देते हैं।

दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र कहे जाने वाले सियाचिन की रक्षा में कठिन परिस्थितियों को झेलकर भी भारत के जांबाज सैनिक डटे हैं। सियाचिन का सामरिक-राजनीतिक-भौगोलिक महत्व क्या है? भारत और पाकिस्तान का सियाचिन पर क्या दृष्टिकोण है? 1949 में सीमा निर्धारण के समय कहां चूक हुई? इस विवाद को उपजाने वाले कौन हैं? इसका समाधान क्या है? ऐसे ही कुछ प्रश्नों पर पाञ्चजन्य ने सियाचिन से भलीभांति परिचित दो वरिष्ठ रक्षा विश्लेषकों से बात की। प्रस्तुत हैं उसी वार्ता के प्रमुख अंश।

प्रस्तुति : आलोक गोस्वामी

मुशर्रफ पर भरोसा न करें

मेजर जनरल (से.नि.) अफसिर करीम

सियाचिन पर भारत और पाकिस्तान के मतभेद बहुत पुराने समय से नहीं हैं। जब संघर्षविराम रेखा की जगह नियंत्रण रेखा निर्धारित की गई, तबसे यह समस्या शुरु हुई है। नियंत्रण रेखा पर प्वाइंट 9842 है, उसके आगे सीमा निर्धारण नहीं किया गया था। क्योंकि उस वक्त कहा गया कि वह इलाका ऐसा है जहां फौजी कार्रवाई नहीं हो सकती, न ही वह जगह फौजें रखने के लिए ठीक है, इसलिए इसके आगे एक रेखा खींच दी जाए। विवाद उस रेखा के कारण उपजाया गया है। हमारे अनुसार वह रेखा उत्तर की ओर बढ़ती है, जबकि पाकिस्तान ने उस रेखा को उत्तर पूर्व की ओर बढ़ाते हुए कराकोरम से मिला दिया। दरअसल वह रेखा तो अमरीकी नक्शे में पहले से छपी रेखा ही थी और उनके हवाई जहाज दूसरे विश्व युद्ध के जमाने में उधर से गुजरते थे। यह शिमला समझौते के बाद यानी 1972 के बाद की बात है। इस सबके बाद जब भारत ने देखा कि पाकिस्तान की ओर से सियाचिन हिमनद पर हलचल शुरू की गई है और कुछ पाकिस्तानियों का आना-जाना शुरू हो गया है तो भारतीय सैनिकों ने साल्टोरो रिज पर कब्जा कर लिया, वहां निगरानी बढ़ा दी। उसके बाद से वह क्षेत्र हमारे कब्जे में है, पूरी ब्रिगेड वहां तैनात है। पाकिस्तान ने सियाचिन में ही नीचे की ओर अपनी सेना तैनात की हुई है।

भारत की दृष्टि से सियाचिन का सामरिक महत्व तो है परंतु एक अर्थ में इसका सामरिक से अधिक राजनीतिक महत्व है। कारण यह है कि अगर वह इलाका, जिसका अधिकांश भाग हमारे पास है, अगर कोई गलत फैसला लिया गया तो पूरा क्षेत्र पाकिस्तान के पास चला जाएगा। सामरिक दृष्टि से अगर वहां पाकिस्तानी एक बार चढ़ बैठे तो फिर उसे वापस पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। चीन का इसमें कोई दखल नहीं है क्योंकि उसका इलाका तो कराकोरम के आगे से शुरू होता है। चीन का कराकोरम राजमार्ग सियाचिन के उत्तर-पूर्व की ओर आता है। अत: सियाचिन विवाद में चीन की कोई भूमिका नहीं है।

सियाचिन पर चर्चा करते समय हमें उसके स्वरूप को भी समझना होगा। उसके तीन हिस्से हैं- उत्तरी हिमनद, मध्य हिमनद और दक्षिणी हिमनद। इन पर बड़ी संख्या में भारतीय चौकियां स्थित हैं। वहां के तीन में से दो दर्रे हमारे कब्जे में हैं। पूरी ब्रिगेड ऊपर तैनात रहती है और उतने ही सैनिक आधार शिविर में उसके पीछे रहते हैं, जिसमें वायुसैनिक भी शामिल हैं।

मैंने जम्मू-कश्मीर में एक लम्बे समय तक सेवाएं दी हैं और सियाचिन भी कई बार गया हूं। भारत के सैनिक देश की रक्षा में दुर्गम से दुर्गम स्थान पर भी तैनाती से पीछे नहीं हटते। मैं जब सियाचिन गया था तब वहां एक सैनिक को आने वाली दिक्कतों का अनुभव किया था। चारों ओर बर्फ ही बर्फ, बेहद खराब मौसम, जाने-आने में कठिनाई के अलावा अन्य कई तरह की परेशानियां थीं। अब स्थितियां कुछ सुधर गई हैं। बर्फीले तूफान और खराब मौसम के कारण हमारे कितने ही सैनिक वहां शहीद हुए हैं। हफ्तों तब वहां कुछ दिखाई नहीं देता क्योंकि चारों ओर बर्फ के टुकड़े तूफानी गति से उड़ते रहते हैं। बर्फीली खाइयों का भी खतरा रहता है। मगर इतने सब के बावजूद हमारे बहादुर जवान सियाचिन की सुरक्षा कर रहे हैं।

सियाचिन को लेकर जिस तरह की राजनीतिक बातें सुनाई दे रही हैं उस पर मैं इतना ही कहूंगा कि जब तक आपको यह यकीन न हो जाए कि पाकिस्तान मुजाहिदीन या किसी और नाम से अपने आदमी वहां नहीं भेजेगा तब तक वहां से सैनिक हटाने पर बात तक नहीं होनी चाहिए। सियाचिन पर जारी वार्ता में अगर पाकिस्तान हमारी इस बात पर तैयार हो जाता है और हस्ताक्षर करता है तब तो किसी निर्णय पर पहुंचने की उम्मीद हो सकती है। मेरा जहां तक अनुभव है, मुशर्रफ पर हम बिल्कुल भरोसा नहीं कर सकते हैं। वह अगर सीधे-सीधे अपने फौजी भेजकर हिमनद पर नहीं चढ़ बैठेगा तो मुजाहिदीनों के रूप अपने लोग भेज देगा। दो देशों, खासकर भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी महत्वपूर्ण बिन्दु पर तब तक समझौता नहीं होता और नहीं होना चाहिए जब तक कि उस पर पूरी सुनिश्चिता नहीं हो जाती। हमारी सरकार पाकिस्तान से साथ किस तरह समझौता करेगी और अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमें कितनी गारंटी देगा, यह तो समय ही बताएगा। हमें भी पाकिस्तान को स्पष्ट करना होगा कि अगर उसने सियाचिन पर कब्जा करने (भारतीय सैनिकों के हटने की सूरत में) की कोशिश की तो फिर हम कैसा व्यवहार करेंगे।

सियाचिन

कुछ तथ्य

पूर्वी कराकोरम में समुद्रतल से 5,400 मी. ऊपर स्थित है यह दुनिया का सबसे ऊंचा रणक्षेत्र।

सियाचिन हिमनद 78 किमी. लम्बा है जिसके पश्चिम में साल्टोरो रिज है और पूर्व में कराकोरम पहाड़ियां।

सामान्यत: -30 डिग्री तापमान, जो -60 डिग्री तक गिर जाता है।

1949 में भारत-पाकिस्तान के बीच कराची समझौता हुआ। सीमांकन प्वांइट एन.जे. 9842 तक हुआ।

1972 में शिमला समझौते के दौरान भी इस मुद्दे को अधूरा छोड़ा गया।

1984 के बाद वहां अनेक बार भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य संघर्ष हुए।

भारतीय सैनिक सियाचिन के लगभग दो तिहाई शिखरों पर तैनात हैं।

एक पूरी ब्रिगेड हिमनद पर और लगभग उतने ही सैनिक आधार शिविर में रहते हैं।

अब तक सियाचिन पर भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत के दस दौर हो चुके हैं।

पाकिस्तान की नीयत में खोट है

मेजर जनरल (से.नि.) शेरू थपलियाल

गुलाम कश्मीर और उत्तरी क्षेत्र सहित पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का अंग है। सियाचिन भी उसी उत्तरी क्षेत्र (नादर्न एरिया) का हिस्सा है। अगर हम यह मानते हैं कि पूरा (गुलाम कश्मीर सहित) जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा है तो सियाचिन का कोई अलग से समाधान निकालने की जरुरत ही क्या है। इसका हल तो जम्मू-कश्मीर समस्या के हल के साथ ही हो जाएगा। सियाचिन को, मेरे अनुसार, जम्मू-कश्मीर से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए।

हमारे कुछ राजनीतिज्ञ कहते हैं कि सियाचिन की सुरक्षा पर बहुत पैसा खर्च हो रहा है, वहां सैनिकों को रखने की जरुरत नहीं है। क्या देश की सुरक्षा को आप पैसों में तोलना चाहते हैं? या तो आप देश की रक्षा करें या फिर हाथ खड़े करे दें। हिन्दुस्थान की समस्या यही है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में लड़ने का जज्बा नहीं है। आप इतिहास उठा कर देख लें। हमारे नेता सोचते होंगे कि सियाचिन एक सिरदर्द है, इसे खत्म करो। हमें इस तरह की भावना वाले लोग नहीं चाहिए। क्या कोई आफत आ गई है कि सियाचिन को अभी सुलझा लें? इस हड़बड़ी की कोई वजह नहीं है। हमारे नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि जब जम्मू-कश्मीर पर बात होगी तो उसी के साथ सियाचिन भी चर्चा में आ जाएगा। वैसे भी सियाचिन हमारे अधिकार क्षेत्र में स्थित है।

1949 में कराची समझौता हुआ था, जिसके अंतर्गत संघर्ष विराम रेखा बनाई गई। इस रेखा पर प्वाइंट एन. जे. 9842 तक का क्षेत्र चिन्हित कर दिया गया। पर उससे आगे बहुत दुर्गम क्षेत्र है अत: उसे यूं ही छोड़ दिया गया। समझौते में भाषा भी अस्पष्ट है- “…उसके बाद रेखा उत्तर की ओर बढ़ेगी…।” यह एक भूल थी जो हमारी दूर तक देखने में खामी को झलकाती है। हमारे नेताओं ने उस समय यह क्यों नहीं सोचा कि आगे चलकर इस पर विवाद हो सकता है। फिर 1971 युद्ध के बाद 1972 में शिमला समझौते में संघर्ष विराम रेखा को नियंत्रण रेखा बना दिया गया तब भी प्वाइंट एन.जे. 9842 से आगे सीमा निर्धारण नहीं किया गया। उस समय इस पर निर्णय कर लेना चाहिए था। भविष्य के लिए संकट की शुरुआत वहां से कर दी गई थी।

पाकिस्तानियों का कहना है कि प्वाइंट एन.जे. 9842 से नियंत्रण रेखा उत्तर पूर्व की ओर बढ़ते हुए कराकोरम दर्रे तक जाए। हमारा कहना है कि पहाड़ी क्षेत्रों में सीमा रेखा साल्टोरो रिज के पास से होती हुई इंदिरा पोल तक जाए। यानी बीच में एक त्रिभुजाकार क्षेत्र बन गया जिसमें से 5-6 हजार वर्ग किमी. क्षेत्र 1964 में पाकिस्तान ने चीन को दे दिया। उस समय पाकिस्तान चीन के बीच सीमा समझौता हुआ था और तब पाकिस्तान ने शक्सकाम घाटी क्षेत्र चीन को दे दिया। कराकोरम, इंदिरा पोल और एन.जे. 9842, इन तीनों बिन्दुओं से एक त्रिभुज बनता है। 1972 में इस विवाद को यूं ही न छोड़कर हम अंतरराष्ट्रीय मंच तक ले जाते तो आज ये समस्या नहीं होती।

सियाचिन हिमनद पर आज की स्थिति यह है कि साल्टोरो रिज पर हमारा कब्जा है। इस रिज के पूर्व में सियाचिन हिमनद है जिस पर हमारे सैनिक तैनात हैं। हमारा कहना है कि आपस में बैठकर नक्शों पर निर्धारण करें, हस्ताक्षर के बाद उनकी अदला-बदली करें, तब तक हमारे वहां से हटने का सवाल ही नहीं होना चाहिए। लेकिन पाकिस्तान की नीयत में खोट है इसलिए वह ऐसा करने को तैयार नहीं है। अगर भारतीय सैनिक साल्टोरो रिज से उतर जाएं तो पाकिस्तानी वहां आ जायेंगे और फिर आप उन्हें हटा नहीं सकेंगे। फिलहाल पाकिस्तानी सैनिक नीचे ढलान की ओर तैनात हैं। शिखर पर हम हैं। आप हटे तो पाकिस्तान आकर बैठ जाएगा। जब स्पष्ट नियंत्रण रेखा वाले कारगिल क्षेत्र में पाकिस्तान आगे बढ़ आया और कहने लगा कि यही नियंत्रण रेखा है तो आप उस पर यकीन कैसे कर सकते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि हम आखिर सियाचिन के “हल” की उतावली में क्यों हैं? हमें दीर्घकालीन संदर्भों में चीजों को देखना चाहिए। जब चीन सीमा निर्धारण के लिए हमारे साथ किसी तरह की जल्दबाजी नहीं दिखा रहा है तो हमारे नेताओं को सियाचिन पर आपाधापी क्यों करनी चाहिए? इन बातों का कोई अर्थ नहीं है कि हमारे सैनिक वहां बेकार में अपनी जान गंवा रहे हैं।

पाकिस्तानी विदेश मंत्री कसूरी की बयानबाजी झूठ के पुलिन्दे से अधिक कुछ नहीं है कि सियाचिन पर वार्ता निर्णायक दौर में पहुंच गई है। कसूरी तो महज दबाव बनाना चाहते हैं और उनकी एकमात्र इच्छा यही है कि भारतीय सेना सियाचिन से हट जाए। हम अगर ऐसा करते हैं तो बहुत बड़ी मूर्खता होगी। भारतीय सेना ने साफ कहा है कि ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारे यहां के कुछ नेता सोचते हैं कि हम अपनी ओर से ही इस तरह की कोई कार्रवाई करेंगे तो वाहवाही मिल जाएगी। हमारे नेता, दुर्भाग्य से, इतिहास तो जानते नहीं हैं। जरा इतिहास देखें, जब भी आप अपनी ओर से ऐसा कोई नरम हाव भाव दिखाते हैं तो उल्टा ही जवाब मिला है। महमूद गजनवी और पृथ्वीराज की कथा याद करें। हम अपनी गलतियों से सीखते नहीं हैं।

मैं मार्च 2000 से अक्तूबर 2001 तक सियाचिन पर तीन इफेंक्ट्री डिवीजनों का कमांडर रहा हूं। 1984 में हमने इस हिमनद पर अपनी चौकियां बनाई थीं। उस समय की तुलना में आज वहां रहने की परिस्थितियों में बड़ा सुधार हुआ है। रहन-सहन, खान-पान और चिकित्सकीय सुविधाओं में काफी सुधार हुआ है। इस कारण खराब मौसम की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं में कमी आई है।

पाकिस्तान का कोई अधिकार नहीं बनता कि वह हमें हमारी ही जमीन को खाली करने की हिदायत दे। उल्टे हमें पाकिस्तान को गुलाम कश्मीर खाली करने को कहना चाहिए। दुर्भाग्य से, जैसा मैंने पहले कहा, हमारे राजनीतिज्ञों को इतिहास की जानकारी नहीं है। ज्यादातर भारतवासियों को भी जम्मू-कश्मीर समस्या की जड़ की जानकारी नहीं है। 1949 में संघर्ष विराम के बाद संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव में साफ लिखा था कि पाकिस्तान पहले भारत की जमीन से हटे उसके बाद पूरा जम्मू-कश्मीर भारतीय अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत होगा। तब वहां जनमत किया जाएगा। हमको तो दिन-रात यह बोलना चाहिए कि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के अनुसार गुलाम कश्मीर को खाली करे। जबकि पाकिस्तान जनमत सर्वेक्षण की रट लगाए रखता है। वह बड़ी चतुराई से गुलाम कश्मीर को खाली करने की बात दबा देता है। हम जब अपना पक्ष दुनिया के सामने रखेंगे नहीं तो किसी को तथ्यों का पता कैसे चलेगा। तथ्य यही है कि गुलाम कश्मीर पर पाकिस्तान जबरदस्ती जमा हुआ है।

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