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पाठकीय

by
Dec 11, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 11 Dec 2006 00:00:00

अंक-सन्दर्भ, 15 अक्तूबर, 2006

पञ्चांग

संवत् 2063 वि. –

वार

ई. सन् 2006

मार्गशीर्ष कृष्ण 7

रवि

12 नवम्बर

“” 8

सोम

13 “”

“” 9

मंगल

14 “”

“” 10

बुध

15 “”

“” 11

गुरु

16 “”

“” 12

शुक्र

17 “”

“” 13

शनि

18 “”

(शनि प्रदोष)

फटती इनकी छाती

देश बांटने के लिए, जो हैं फिर तैयार

चौराहे पर कर खड़ा, मारो जूते चार।

मारो जूते चार, तभी शायद सुधरेंगे

उनके सब मन्सूबे धूल-धूसरित होंगे।

कह “प्रशांत” यदि अफजल को फांसी हो जाती

देशभक्त खुश होते, फटती इनकी छाती।।

-प्रशांत

अफजल के सेकुलर हमदर्द

आवरण कथा के अन्तर्गत श्री देवेन्द्र स्वरूप ने अपने लेख “सत्तालोभी कायरों का तर्कवाद” में अफजल समर्थकों को बेनकाब किया है। ये लोग अफजल को माफी दिलाने के लिए बेतुका तर्क दे रहे हैं। इन्हीं लोगों के कारण आतंकवादियों का हौंसला बढ़ता जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद द्वारा अफजल के समर्थन में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को पत्र लिखना न्यायपालिका को चुनौती देने के साथ-साथ एक राष्ट्रद्रोह के समकक्ष कदम है।

-राकेश चन्द्र वर्मा

मातृछाया, लाल दरवाजा, मुंगेर (बिहार)

न्यायालय द्वारा अफजल को फांसी की सजा सुनाने पर लगा था कि आज भी अपराधियों को दण्ड मिलता है। मगर सेकुलरवाद के झण्डाबरदारों का कानफोड़ू शोर सुनकर शंका हो रही है कि अफजल भी एस.ए.आर. गिलानी की ही तरह छूट जाएगा। शहीदों के परिवारजनों का एक-एक शब्द सत्ता अधिष्ठान के आतंक के प्रति नरम रवैए पर अपनी हताशा प्रकट कर रहा था। देश की नब्बे प्रतिशत जनता के फैसले को कुछ मुट्ठीभर लोग किस तरह दबाते हैं, यही इस लोकतंत्र का चमत्कार है। जिस सरकार में एक गद्दार को फांसी की सजा सुनाने पर चर्चाएं हों, वह सरकार वास्तव में रीढ़विहीन नहीं तो क्या है? सैनिकों की शहादत का ऐसा भद्दा मजाक उड़ते देखकर भी हम उफ् तक नहीं करते तो हमें समझ लेना चाहिए कि राष्ट्रप्रेम का वह आवेग सदैव के लिए शांत हो चुका है, जो सुभाष को नेताजी और भगत को सरदार भगत सिंह बनाता था। सरकार के इन कुकृत्यों को देखकर कौन माता-पिता अपने सीने के टुकड़ों को देश की सेवा के लिए सीमा पर भेजेंगे?

-ठा. नितिन पुण्डीर

मोदीपुरम, मेरठ (उ.प्र.)

गुलाम नबी आजाद द्वारा आतंकवादी अफजल की सजा माफ करने की मांग से स्पष्ट हो जाता है कि उनके नेतृत्व में जम्मू-कश्मीर की पुलिस आतंकवादियों के खिलाफ किस प्रकार की कार्रवाई करती होगी। ऐसी परिस्थिति में कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू किस दयनीय दशा में होंगे, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। गुलाम नबी आजाद जवाब दें कि अगर उनके परिवार के लोगों पर हमला हुआ होता तो क्या वे आतंकवादियों को माफी देने की मांग करते?

-आनन्द कु. भारतीय

होमियोपैथिक मेडिकल कालेज, मोतिहारी (बिहार)

गुलाम नबी आजाद ने अफजल का पक्ष लेकर उन वीरों का अपमान किया है, जिन्होंने अपनी जान देकर संसद की रक्षा की थी। अफजल समर्थकों को शहीदों के रोते-बिलखते परिजन क्यों नहीं दिखते? आश्चर्य तो इस बात का है कि इन लोगों ने अफजल के परिवार वालों से पहले ही उसकी माफी की मांग कर दी।

-कुलदीप

रेलवे रोड, गाजियाबाद (उ.प्र.)

एक आतंकवादी की फांसी का विरोध चाहे कोई मुख्यमंत्री करता हो या एक साधारण व्यक्ति, उसे देशभक्त नहीं कहा जा सकता। अफजल को माफी देने से पूरे देश में वर्तमान केन्द्र सरकार के खिलाफ क्रांति हो सकती है। यह सरकार देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है, इसलिए इसे हटाओ।

-रामगोपाल गुप्ता

तोशाम, भिवानी (हरियाणा)

अफजल जैसे गद्दार को माफी की मांग पर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की रहस्यमय चुप्पी के गहरे निहितार्थ हैं। इन्हें प्रत्येक देशवासी को समझना होगा। जब से सोनिया गांधी ने कांग्रेस का नेतृत्व संभाला है, कांग्रेस एक खतरनाक राह पर चल पड़ी है और वह राह है राष्ट्रवाद को निष्प्रभावी करना। श्री देवेन्द्र स्वरूप का यह आकलन एकदम सटीक है कि -“देश में इस समय देशद्रोह गरज रहा है और राष्ट्रभक्ति सहमी हुई है।”

-नारायण उपाध्याय

तहसील मार्ग, जिला राजसमन्द (राज.)

गुलाम नबी आजाद,फारुख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं ने मांग की कि अफजल को पवित्र रमजान के महीने में फांसी न दी जाए। इसके विपरीत रमजान महीने में हुई निर्दोषों की हत्याओं पर इन नेताओं का मुंह बंद रहा। 2002 में जम्मू-कश्मीर की सत्ता संभालने पर पी.डी.पी. के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने “हीलिंग टच” के नाम पर आतंकवादियों के हौंसले और बढ़ाये। जाहिर है इन नेताओं का झुकाव आतंकवादियों की ओर रहा है। निर्दोषों की हत्या की इन्होंने कभी निन्दा तक नहीं की। इस मानसिकता के कारण ही जम्मू-कश्मीर सरकार आतंकवाद पर अंकुश नहीं लगा पा रही है।

-चम्पत राय जैन

4-बी, रेस कोर्स, देहरादून (उत्तरांचल)

आवरण पृष्ठ पर अफजल की फांसी टालने को “शर्म” और “गद्दारी” लिखा है। इससे दिमाग में कई सवाल कौंध गये। क्या किसी की फांसी पहली बार टली है? क्या राष्ट्रपति को पहली बार किसी ने दया याचिका प्रस्तुत की है? क्या राष्ट्रपति को दया याचिका प्रस्तुत करना न्याय-प्रक्रिया का अंग नहीं है? क्या राष्ट्रपति ने दया याचिका का निस्तारण कर दिया? फिर यह गद्दारी कैसे हुई? इनमें से एक भी प्रश्न का उत्तर पाञ्चजन्य के पाठकों के सामने “शर्म” और “गद्दारी” को सार्थक सिद्ध नहीं करेगा। किसी भी दोषी व्यक्ति की ओर से दया की याचिका प्रस्तुत करना और राष्ट्रपति द्वारा उसे विचार के लिए स्वीकार करना हमारी न्याय प्रणाली की सामान्य प्रक्रिया का अंग मात्र है। राष्ट्रपति जी के इस कदम से अफजल के अपराध की गंभीरता किसी तरह भी कम नहीं हुई है, अपितु भारत की न्याय-व्यवस्था की गरिमा बढ़ी है। करोड़ों भारतीयों की यह प्रबल इच्छा है कि ऐसे लोगों को फांसी ही नहीं, यदि उससे भी बड़ी कोई सजा हो तो मिलनी चाहिए। एक बार नहीं, बार-बार फांसी लगनी चाहिए। परन्तु मेरा मानना है कि यह सब न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही होना चाहिए। फांसी तो अफजल को निचली अदालत ने ही दे दी थी। तो क्या उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील स्वीकार करना गद्दारी थी? सर्वोच्च न्यायालय ने तो इन लोगों में से कई को माफ भी कर दिया था। हमने उसे भी गद्दारी नहीं कहा, फिर एक ही झटके में हमने गद्दार किसे करार दे दिया? तौबा करें ऐसी बातों से। यह पाकिस्तान नहीं हिन्दुस्थान है। हमें अच्छी तरह समझना चाहिए कि हमारे राष्ट्रपति ए.क्यू. खान नहीं, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम हैं। उनका कोई भी कदम न्याय के विपरीत नहीं होगा।

श्रीराम शर्मा

खाचरियावास, सीकर (राज.)

कृपया पाञ्चजन्य ध्यान से देखें। न्यायपालिका या राष्ट्रपति द्वारा याचिकाएं विचारार्थ स्वीकार करने की नहीं, बल्कि उन लोगों द्वारा अफजल की फांसी माफ करने की मांग की आलोचना की गई है, जो देशभक्तों के दर्द पर चुप रहते हैं। सं.

अफजल की तरफदारी जम्मू-कश्मीर के अनेक नेताओं ने की। केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने के लिए इन्हीं लोगों ने घाटी के मुसलमानों को उकसा कर उनसे प्रदर्शन भी करवाया। धमकी भरे लहजे में यह भी कहा कि अफजल को फांसी देने से पाकिस्तान के साथ चल रही शान्ति-वार्ता या घाटी की शान्ति पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है और कश्मीरियों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। क्यों? अफजल मुसलमान है इसलिए! तो फिर यही कहा जा सकता है कि मुसलमान के नाम पर ही ये आतंकवादियों के साथ हैं।

-योगेन्द्र कुमार सिन्हा

377, को-आपरेटिव कालोनी, बोकारो स्टील सिटी (झारखण्ड)

राष्ट्रवाद और नैतिकता की बात तो यह होती कि कांग्रेस गुलाम नबी आजाद को मुख्यमंत्री पद से ही नहीं, बल्कि पार्टी से भी बाहर कर देती। किन्तु जब कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ही इस मुद्दे पर चुप हैं, तो फिर आजाद के विरुद्ध कार्रवाई कौन करे? आजाद जब से मुख्यमंत्री बने हैं, तब से उन्होंने आतंकवाद के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा है। उल्टे उन्होंने आतंकवादियों के खिलाफ बोलने पर भाजपा नेता विनय कटियार एवं साहिब सिंह पर मुकदमा करवा दिया था।

-कमल कुमार जैन

2054, गली सं.-6, कैलाश नगर (दिल्ली)

अदालत द्वारा फांसी की सजा होने पर भी अफजल को अपनी करतूत का कोई पछतावा नहीं है। उसने तो यह भी कहा था कि उसे भारतीय न्याय-प्रणाली पर ही यकीन नहीं है। ऐसे आतंकवादी को तो फांसी से भी कोई बड़ी सजा हो तो वह देनी चाहिए। राष्ट्रपति जी सिर्फ अफजल के ही नहीं, शहीदों के बच्चों एवं विधवाओं को देखें और तब क्षमा-याचना पर निर्णय लें।

-जमील रहमान

सेंडम रोड, गुलबर्गा (कर्नाटक)

अफजल की फांसी रोकने की आड़ में मजहबी ध्रुवीकरण हुआ है। एक देशद्रोही को बचाने के लिए मुस्लिम नेता इतनी ओछी राजनीति करेंगे, इसकी कल्पना नहीं थी। सत्तालोभियों की कायरतापूर्ण कार्रवाई से आम जनमानस आन्दोलित है। अफजल की वकील नन्दिता हक्सर कश्मीरी पण्डित है, तो क्या हुआ? राजा जयचन्द भी तो राजपूत था। इनका पर्दाफाश करना आवश्यक है।

-क्षत्रिय देवलाल

उज्जैन कुटीर, अड्डी बंगला, झुमरी तलैया, कोडरमा (झारखण्ड)

विशेष पत्र

महबूबा जवाब दें

जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी और पीडीपी अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती बड़े जोर-शोर से आतंकवादी अफजल को फांसी की सजा से मुक्त करने की मांग कर रही हैं। उन्हें अब अफजल के बेटे, युवा पत्नी और बूढ़ी मां पर तरस आ रहा है। उनसे मेरा सवाल है कि यह तरस और दया केवल उसके लिए ही क्यों, जिसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने संसद पर हमला करने-करवाने का दोषी पाया है? अभी कुछ दिन पहले ही श्रीनगर के लाल चौक पर आतंकवादियों से लड़ते हुए सात सुरक्षाकर्मी शहीद हुए थे। क्या उनके बच्चे, माता-पिता और पत्नी के लिए कोई दर्द महबूबा के दिल में है? घाटी में जो लाखों लोग बेघर हो गए, जिन सैकड़ों-हजारों बेटियों की इज्जत आतंकवादियों ने लूटी, क्या उनके नाम भी महबूबा को पता हैं? और भारत की जेलों में ऐसे अनेक उम्रकैदी हैं, जिनके बच्चे अनाथों की तरह घूम रहे हैं। फिर दया तो उनके लिए भी होनी चाहिए। यह एकतरफा दया ही क्यों उनके मन में आई है? महबूबा से सवाल यह भी है कि क्या उनका रिश्ता उन लोगों से है, जिन्हें आतंकवादियों ने मारा अथवा जो आतंकवादियों से लड़ते हुए शहीद हो गए? ऐसा लगता है कि महबूबा का यह अफजल प्रेम केवल चुनावी रणनीति का हिस्सा है। उन्हें देश से कुछ लेना-देना नहीं है।

-लक्ष्मीकांता चावला

अमृतसर (पंजाब)

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