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चर्चा-सत्र

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Dec 3, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Dec 2006 00:00:00

उत्तर प्रदेशन नैतिकता, न वैधता, सिर्फ अराजकताटी.वी.आर. शेनायसंघ का बजट भारतीय अर्थतंत्र में आगे की दिशा दर्शाने वाला एक मानचित्र समझा जाता है। लेकिन तब भी लगातार दूसरे साल राजनीति ने वित्तमंत्री को दूसरे स्थान पर पहुंचा दिया। पिछले साल बिहार के चुनाव (विधानसभा चुनावों का पहला चक्र) परिणामों ने संघ के बजट को धकिया दिया, इस बार उत्तर प्रदेश ने उसे पीछे धकेल दिया।कम से कम चुनाव आयोग ने तो थोड़ी दया दिखाई और वित्तमंत्री को कुछ घंटों की चमक प्रदान की। इस वर्ष जब चिदंबरम लोक सभा में बजट भाषण दे रहे थे, तो उधर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति मुलायम सिंह यादव पर अपना फैसला सुनाने के लिए गला साफ कर रहे थे। उन्होंने निर्णय दिया कि बहुजन समाज पार्टी को छोड़कर गए 40 विधायकों का दर्जा संदिग्ध है। इन पंक्तियों को लिखते समय मुझे स्पष्ट नहीं है कि उन विधायकों को क्या वास्तव में अयोग्य करार दे दिया गया है। कई वकील इस मामले में जिरह कर रहे हैं और तय बात है कि यह अंतत: सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचेगा।बहरहाल, मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को साफ तौर पर इस फैसले का अनुमान हो चला था। विधानसभा का सत्र जारी था। (वास्तव में तो इसे 6 महीने से चलाए रखा गया था, शायद अदालत के फैसले के इंतजार में।) समाजवादी पार्टी के नेता ने तुरंत विधानसभा में विश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया और बहिर्गमन कर गए विपक्ष की अनुपस्थिति में 207 के मुकाबले एक भी विरोधी वोट नहीं पड़ने से जीत गए। जब तक कांग्रेस के नेता कोई प्रतिक्रिया कर पाते, काम तो पूरा किया जा चुका था। जो सांसद बजट पर लंबे-चौड़े वक्तव्य तैयार करके लाए थे, मुलायम सिंह यादव की त्वरित कार्रवाई के कारण हकबके से रह गए।राज्यपाल टी. वी. राजेश्वर और विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डे को सबको शांत करने की कोशिश करने का निहायत थकाऊ काम मिला है। मेरा आकलन है कि वे इस काम में असफल रहेंगे, क्योंकि उन पर कोई सीधे से भरोसा नहीं करता है। राजेश्वर कांग्रेस के नजदीकी माने जाते हैं और खासतौर पर नेहरू-गांधी परिवार के। इतना अधिक निकट कि वे पहले आई.पी.एस. अधिकारियों में से एक थे जो राज्यपाल नियुक्त किए गए, जब-जब कांग्रेस दिल्ली में सरकार में रही है, राजेश्वरपिछले 20 सालों से ज्यादा समय से किसी न किसी राज भवन में रहे हैं। लेकिन बूटा सिंह के विरुद्ध अदालत के फैसले के बाद अब उनके पास कितना मौका बचता है?यह देखते हुए कि उन 40 विधायकों, जिनके कारण संकट खड़ा हुआ, ने भी उन्हें वोट दिया था, यह तर्क दिया जा सकता है कि मुलायम सिंह यादव का विश्वास प्रस्ताव लोकतंत्र पर बट्टा था। लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं, नैतिकता और वैधानिकता में जमीन-आसमान का अंतर है। क्या 40 विधायकों ने वास्तव में जब तक वोट नहीं डाल दिया, खुद को अयोग्य मान लिया था? वह तो सदन के अध्यक्ष पाण्डे तय करेंगे और इसमें शक नहीं कि ऐसा करने में वे पर्याप्त समय लेंगे।विश्वास प्रस्ताव का सीधा अर्थ है कि कांग्रेस के दुर्नीति विशेषज्ञों को थोड़ा ज्यादा परिश्रम करना पड़ेगा। निश्चित रूप से दिल्ली में मौजूद शक्ति-केंद्र मुलायम सिंह यादव का आधार उड़ा ले जाने में समय व्यर्थ नहीं करेगा। उदाहरण के लिए, अजीत सिंह के पास 15 विधायक हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि चौधरी चरण सिंह के उत्तराधिकारी ने एक साथ कई मोर्चों से हाथ मिलाया हुआ है। अगर वह फिर से कांग्रेस से जुड़ना चाहें तो क्या होगा? और उन 40 विधायकों का क्या जिनके कारण संकट की शुरूआत हुई? एक बार पाला बदल चुकने के बाद क्या कोई नैतिक या वैचारिक कारण है कि उन्हें फिर से ऐसा नहीं करना चाहिए?एक बार फिर हम कुछ राजनीतिक दलों द्वारा कसमें खाए जाने वाले “सेकुलरिज्म” का नितांत खोखलापन देख रहे हैं। मैंने तमिलनाडु और फिर महाराष्ट्र के संदर्भ में इसके बारे में लिखा था और यह एक बार फिर से उत्तर प्रदेश में घटित हो रहा है।1997 में कांग्रेस ने गुजराल सरकार इस आधार पर गिरा दी थी कि वह उस सरकार का समर्थन नहीं कर सकती थी जिसमें द्रमुक एक घटक हो। (इसके बाद ही राजीव गांधी हत्याकांड पर जैन आयोग की प्राथमिक रपट प्रकाशित हुई थी।) वही कांग्रेस और वही द्रमुक आज तमिलनाडु में सहयोगी हैं और कांग्रेस का प्रधानमंत्री द्रमुक के मंत्री अपने मंत्रिमंडल में रखे हुए है। शरद पवार ने कांग्रेस इसलिए छोड़ी क्योंकि उन्होंने कहा था कि वे किसी विदेशी मूल की महिला को प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाना पचा नहीं सकते थे। अब उन्हें उसी केंद्रीय मंत्रिमंडल से जुड़ने में कुछ भी गलत नहीं दिखता जो उसी महिला के निर्देश पर काम करता है। एक दूसरे पर कीचड़ उछाल चुकने के बाद, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस महाराष्ट्र में गठबंधन किए हुए हैं। तब भी वे चुनावी फायदे के लिए एक दूसरे के पैरों तले की जमीन उखाड़ने में लगे हैं।विधान सभा में नौटंकी प्रस्तुत करने की बात पर मुलायम सिंह को बुरा भला कहना आसान है। मगर विशुद्ध राजनीतिक भाषा में वे करूणानिधि और शरद पवार से अलग कैसे हैं? ये दोनों व्यक्ति संसद में कांग्रेस का समर्थन करते हैं। तो क्या, समाजवादी पार्टी भी ऐसा करती है! राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और द्रमुक दोनों कम से कम कागज पर ही सही अपने-अपने गृहराज्यों में कांग्रेस का समर्थन तो पा ही रहे हैं। मगर वह तो लखनऊ में मुलायम सरकार को भी प्राप्त है।जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सदन में विश्ववास प्रस्ताव रखेंगे तो कांग्रेस विरोध में बाहर चली जाएगी, मगर वह यह कहने में हिचकती है कि उप्र सरकार ने कांग्रेस का समर्थन खो दिया है। आखिर वह “सेकुलर” सरकार को गिरा कर मतदाताओं के सामने कैसे जाएगी?कांग्रेस एक अजीब सी परिस्थिति में फंस गई है। वह लखनऊ में सत्ता में नहीं लौट सकती, न ही दिल्ली में, जब तक कि उन मतदाताओं को फिर से न प्राप्त कर ले जो मुलायम सिंह के पाले में चले गए हैं, अपने बूते बहुमत जुटा सकती है। लेकिन कम से कम निकट भविष्य में मुलायम सरकार का एकमात्र विकल्प किसी रूप में बसपा-भाजपा गठबंधन ही है। यह अभी तो सच नहीं है, शायद अगले विधानसभा चुनाव के बाद हो जाए। कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का कोई सवाल ही नहीं है। यह समाजवादी पार्टी, बसपा और भाजपा से बहुत छोटी है। यह तो महज दिल्ली में मौजूद सत्ता की चाबी घुमाने वालों के बूते उठा पटक ही मचा सकती है कि राष्ट्रपति शासन लगाया जाना चाहिए। लेकिन उसके बाद क्या? (2 मार्च 2006)7

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