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देवेन्द्र स्वरूप
क्या न्यायपालिका का एजेंडा
भी मीडिया तय करेगा?
क्या भारत में न्यायपालिका का एजेंडा भी मीडिया ही तय कर रहा है? जिस देश की अदालतों में करोड़ों मुकदमे वर्षों से लम्बित पड़े हों, वहां केवल दिल्ली के एक रेस्त्रां में माडल जेसिका लाल की हत्या और गुजरात के वडोदरा शहर के बेस्ट बेकरी कांड ही सब ओर चर्चा का विषय क्यों हैं? सन् 2005 के अंत के आंकड़ों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में 33,635, विभिन्न उच्च न्यायालयों में 33,41,040 और उनसे निचली अदालतों में 2,53,06,458 मुकदमे निर्णय की प्रतीक्षा में धूल खा रहे हैं। तब एक जेसिका लाल की सात साल पूर्व हुई हत्या का केस सभी टी.वी. चैनलों और अखबारों पर क्यों छाया हुआ है? इस मुकदमे में सुन्दरी, सुरा और राजनीति का अच्छा घालमेल है। यह दिल्ली की नवधनाढ अभिजात्य संस्कृति का दर्पण है। सात साल पहले 29 अप्रैल, 1999 की रात में लगभग डेढ़ बजे दिल्ली के महरौली क्षेत्र के कुतुब कोलोनेड के तमरिंड कोर्ट रेस्त्रां में लगभग 400 लोगों की आंखों के सामने नशे में धुत्त दो युवकों ने शराब परोसने से इंकार करने पर माडल जेसिका लाल को गोली मार दी थी और उन 400 लोगों में से कोई गवाही देने का खतरा उठाने को तैयार नहीं था। ये 400 लोग ऐसे वैसे नहीं थे, उनमें पुलिस अधिकारी थे, उच्च पदस्थ सरकारी अधिकारी थे, रोहित बल जैसे फैशन डिजाइनर थे, नवधनाढ उद्योगपति थे। इस गोली कांड ने उनके खोखलेपन को, उनकी कायरता को उजागर कर दिया। इसके बाद नम्बर आता है पुलिस प्रशासन का। बताया जा रहा है कि पुलिस ने पीछा करके हत्यारे युवकों को पकड़ लिया था। उनमें से एक युवक मनु शर्मा के इकबालिया बयान की वीडियो रिकार्डिंग भी करा ली थी। पर कहीं से तार हिले कि उन दोनों युवकों को हिरासत से भगा दिया गया। उनमें से एक युवक मनु शर्मा ने पूरी कानूनी घेराबंदी करके चंडीगढ़ की एक अदालत में आत्मसमर्पण कर दिया और दूसरे युवक विकास यादव ने सुदूर मणिपुर के इम्फाल शहर में किसी अदालत से जमानत ले ली। सात साल तक उनके खिलाफ हत्या का मुकदमा चलता रहा। उनके साथ सात अन्य व्यक्तियों को भी आरोपी बनाया गया। क्यों बनाया गया, यह एक रहस्य ही है क्योंकि हत्यारों के रूप में केवल दो ही नाम सबकी जुबान पर थे। आखिरकार, पिछले महीने के अंत में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश एस.एल.भयाना ने नौ के नौ आरोपियों को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में रिहा करने का निर्णय दे दिया। यानी 400 लोगों की आंखों के सामने हत्या हो गयी पर न्यायालय की दृष्टि में हत्यारा कोई नहीं।
अभिजात्य वर्ग का मीडिया?
मामला देश की राजधानी दिल्ली का था, दिल्ली के नवधनाढ अभिजात्य वर्ग का था। मीडिया भी तो इसी अभिजात्य वर्ग का हिस्सा है। यह उसकी प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया क्योंकि हत्यारों के रूप में जो दो नाम चर्चित हैं वे दोनों ही प्रभावशाली राजनेताओं के पुत्र हैं। मनु शर्मा के पिता विनोद शर्मा हरियाणा की कांग्रेस सरकार में मंत्री हैं, तो विकास यादव के पिता डी.पी. यादव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी सपा, बसपा, तो कभी भाजपा का झंडा उठाते रहे हैं। मीडिया को साफ दिखायी दिया कि पुलिस ने राजनीतिक दबाव में केस को गुमराह और कमजोर किया। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश एस.एल. भयाना की इस केस के निर्णय देने के दो दिन बाद ही दिल्ली उच्च न्यायालय में पदोन्नति से यह संदेह पैदा हो गया कि कहीं न कहीं इस पदोन्नति के पीछे भी कोई सौदेबाजी विद्यमान है।
अब क्या था, मीडिया पूरी ताकत के साथ मैदान में कूद पड़ा। प्रत्येक टी.वी. चैनल पर, प्रत्येक दैनिक पत्र के पहले पन्ने पर इस केस की परतें उधेड़ी जाने लगीं। दर्शकों-पाठकों का आह्वान किया गया कि वे एस.एम.एस. भेजें, ई-मेल करें, राष्ट्रपति को ज्ञापन लाखों हस्ताक्षरों से भेजें। जिस वर्ग में गवाही देने की हिम्मत नहीं हो रही थी, वही वर्ग तमरिंड कोर्ट रेस्त्रां पहुंच कर सहानुभूति और विरोध प्रदर्शन के लिए मोमबत्तियां जलाने लगा। तीन चार दिन में ही मीडिया ने ऐसा वातावरण पैदा कर दिया कि दिल्ली उच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों- विजेन्द्र जैन और रेखा शर्मा- ने बिना किसी याचिका के अपनी ओर से पहल करके दिल्ली के पुलिस आयुक्त को आदेश दिया कि चार सप्ताह के भीतर 19 अप्रैल तक जेसिका लाल हत्याकांड से सम्बंधित पूर्ण विवरण फाइलों सहित उनके सामने पेश करें। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री बी.एन. खरे, जिन्होंने गुजरात के बेस्ट बेकरी कांड में वडोदरा की त्वरित अदालत और गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णयों की उपेक्षा करके उस केस की दोबारा सुनवायी गुजरात के बाहर मुंबई में किसी विशेष अदालत में कराने का निर्देश देकर इतिहास रचा था, ने अपने बेस्ट बेकरी निर्णय के उदाहरण का अनुकरण करने का आग्रह किया।
इस सबसे ऐसा वातावरण पैदा हो गया कि जेसिका लाल हत्या केस के पीछे पूरे देश का भारी जनमत खड़ा है। ऐसे वातावरण की लहर पर राजनीतिक दल क्यों न सवार हों? कई बार का अनुभव है कि संसद में उनका एजेंडा मीडिया ही तय करता है। इस बार भी संसद के दोनों सदनों में जेसिका लाल केस गूंज उठा। राजनीतिक दलों में होड़ लग गयी कि कौन कितने जोर से मुकदमे की पुनर्सुनवायी की मांग उठाये। ऐसी स्थिति पैदा हुई कि गृहमंत्री को संसद में घोषणा करनी ही पड़ी कि गृह मंत्रालय दिल्ली पुलिस से इस केस की रपट मंगवा कर उचित कार्रवाई करेगा। इधर यह शोर-शराबा चलता रहा, उधर न्यायमूर्ति एस.एल. भयाना की पदोन्नति को रोकने यानी स्थगित करने के प्रयास विफल हो गये और उन्हें दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की शपथ दिलायी गयी।
राजनीतिक पूर्वाग्रह
जिस मीडिया ने जेसिका लाल केस में पुलिस प्रशासन एवं न्यायपालिका की प्रामाणिकता व निष्पक्षता पर उंगली उठायी, उसके खिलाफ अभियान छेड़ दिया, वही मीडिया दो दिन बाद 24 फरवरी को मुंबई की एक विशेष अदालत द्वारा दिए गए बेस्ट बेकरी कांड के निर्णय पर खुशी से नाचने लगा। उसे इस निर्णय में अपनी विजय दिखायी दी। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों में खुलकर लिखा कि हम पहले दिन से इस केस को उठाते रहे हैं। उनकी खुशी का कारण यह है कि मुंबई की विशेष अदालत ने बेस्ट बेकरी कांड के 21 आरोपियों में से 9 को सजा सुनायी, 8 को आरोप मुक्त कर दिया और जो चार पहले दिन से फरार घोषित किये गये हैं, उनके विरुद्ध गैर जमानती वारंट जारी कर दिये। मीडिया और मानवाधिकारियों को सबसे बड़ी प्रसन्नता इस बात की है कि बेस्ट बेकरी परिवार की सदस्या जाहिरा शेख, जिसकी गवाही को वडोदरा की त्वरित अदालत ने सभी आरोपियों को निर्दोष घोषित करने का आधार बनाया था, पर मुंबई की अदालत ने शपथपूर्वक दी गयी पहली साक्षी से बदलने का आरोप जड़ दिया है। जाहिरा शेख ने 17 मई, 2003 को त्वरित न्यायालय के सामने बयान दिया था कि 1 मार्च, 2002 की रात में बेस्ट बेकरी को हजार-बारह सौ की भीड़ ने घेर लिया था और आग लगा दी थी। इस कारण धुआं और अंधेरा छा गया था, इसलिए मेरे लिए यह पहचानना कठिन था कि उस विशाल भीड़ में से किसने सचमुच आग लगायी और हमारे परिवार के चौदह व्यक्तियों को उस आग में जला दिया। बाद में एक प्रेस कांफ्रेंस में जाहिरा शेख ने कहा कि जिस पहले बयान को बदलने का आरोप उस पर लगाया जा रहा है वह बयान उसने मुंबई की तीस्ता जावेद (सीतलवाड) के दबाव में दिया था। वस्तुत:, गुजरात के दंगों में तीस्ता जावेद की भूमिका की गहरी जांच बहुत आवश्यक है। उसका राजनीतिक रूझान और प्रभाव सर्वविदित है। अमदाबाद के दर्जी कुतुबुद्दीन अंसारी को मुंबई में छिपा कर रखने की बात सामने आ चुकी है। सहमत, अनहद जैसे वामपंथी संगठनों व मीडिया की मदद से वह न्याय प्रक्रिया को प्रभावित करने में जुटी हुई है। रात के अंधेरे में हजारों की भीड़ द्वारा की गयी घटना के लिये किन्हीं दो-चार चेहरों को चिन्हित करना आसान या अचूक नहीं हो सकता।
मीडिया के एक वर्ग की भूमिका गुजरात के मामले में निष्पक्ष या तटस्थ कदापि नहीं है। वह निश्चित रूप से राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त है। जो मीडिया बेस्ट बेकरी, नारोदा पटिया या गुलबर्ग सोसायटी के केसों में इतनी दिलचस्पी ले रहा है वह गोधरा में 27 फरवरी को साबरमती एक्सप्रेस में 59 हिन्दुओं को जिन्दा जलाने के अपराधियों को दण्डित कराने के लिए शोर क्यों नहीं मचाता? उलटे तीन दिन पहले एक चैनल पर गोधरा कांड के आरोपियों के परिवारजनों को स्क्रीन पर आंसू बहाते दिखला कर उनके प्रति सहानुभूति जगाने का प्रयास किया गया। यह सच है कि इस घटना के अपराधियों की कीमत उनके निर्दोष परिवारजनों को चुकानी पड़ती है। उनके प्रति सहानुभूति होनी ही चाहिए किन्तु उसी चैनल ने बेस्ट बेकरी केस में दंडित नौ आरोपियों के परिवारजनों की व्यथा-कथा क्यों नहीं दिखायी, उनकी पत्नियों और बच्चों का रुदन क्यों नहीं दिखाया? वे सभी मजदूरी करके पेट भरते थे और अब उनके सामने रोटी के लाले हैं। बेस्ट बेकरी कांड गोधरा में निर्दोष यात्रियों के जिन्दा जलाने की पाशविक घटना की स्वयंस्फूर्त तात्कालिक प्रतिक्रिया थी। जो मीडिया कार्टून विवाद पर मुस्लिम उन्माद-प्रदर्शन, कार्टूनकार की हत्या के फतवों पर चुप्पी साधे हुए है, वही एक भयंकर नरमेध की तात्कालिक प्रतिक्रिया पर इतनी शूरवीरता का प्रदर्शन कर रहा है। वह बेस्ट बेकरी केस में मुंबई की विशेष अदालत में सुनवाई के इस पक्ष को सामने क्यों नहीं ला रहा कि वहां सुनवायी के दौरान कोई नये तथ्य, कोई नये गवाह पेश नहीं हुए, किसी गवाह ने अपना बयान नहीं बदला, जैसा कि जेसिका लाल केस में हुआ। पूरा केस गुजरात पुलिस द्वारा की गयी जांच पर ही निर्भर रहा। इन तथ्यों के प्रकाश में मीडिया का यह आरोप कहां ठहरता है कि गुजरात में पुलिस व न्यायालय राजनीतिक दबाव में काम कर रहे हैं? यदि गुजरात के न्यायालयों पर यह आरोप लगाया जा सकता है तो क्या यही आरोप मुंबई की विशेष अदालत पर नहीं लगाया जा सकता? वहां भी तो भाजपा विरोधी कांग्रेस शासन है और तीस्ता जावेद की मंडली का दबदबा है। उसी मुंबई में 26 फरवरी को एक सत्र अदालत ने बाबरी ध्वंस के बाद 9 जनवरी, 1993 को हुए साम्प्रदायिक दंगों के लिए आरोपित सभी 15 लोगों को सबूतों के अभाव के कारण बरी कर दिया। इन दंगों के लिए 27 लोगों को प्राथमिकी में नामजद किया गया था। इनमें से सात जमानत मिलने के बाद से फरार हैं जबकि पांच की मृत्यु हो चुकी है। शेष 15 को तेरह साल बाद अदालत ने मुक्त कर दिया है। मीडिया के दोहरे मापदंड का यह ताजा प्रमाण है कि जो मीडिया जेसिका लाल केस और बेस्ट बेकरी केस पर इतना शोर मचा रहा है उसने इस चौंकाने वाले फैसले को पूरी तरह दबा दिया। मैं जिन तेरह दैनिक पत्रों को पढ़ता हूं, उनमें से केवल दो हिन्दी दैनिकों ने एक कालम हैडिंग से यह समाचार दिया। टाइम्स आफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे बड़े अंग्रेजी दैनिकों में, जिन्होंने बेस्ट बेकरी केस के निर्णय पर पूरे-पूरे पृष्ठ दिये, मुझे यह समाचार देखने को नहीं मिला।
नफरत के व्यापारी
मीडिया के राजनीतिक पूर्वाग्रह का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि दिल्ली में 1984 के सिख विरोधी दंगों में 2000 से अधिक सिखों की हत्या के लिए अब तक एक भी व्यक्ति को सजा नही दी गयी है। सब जानते हैं कि वह भीषण नरमेध तत्कालीन कांग्रेसी शासकों के इशारे पर रचा गया था और उनके दबाव पर पुलिस केवल मूकदर्शक बनी रही थी। क्यों नहीं मीडिया मांग उठाता कि सिख नरमेध से सम्बन्धित मुकदमों को दिल्ली से बाहर भेजा जाय?
इसी प्रकार 1989 का भागलपुर का नरमेध है। उस साम्प्रदायिक दंगे में गुजरात से कहीं ज्यादा- यानी 1891 लोगों की हत्या हुई थी, जिनमें अधिक संख्या मुसलमानों की थी। उस समय भी जन भावनायें इतनी अधिक उत्तेजित थीं कि लोंगाय नामक गांव की पूरी मुस्लिम जनसंख्या का सफाया हो गया था। वहां के 120 मुस्लिम पुरुष, स्त्रियों व बच्चों की लाशों को एक सूखे कुएं में फेंक दिया गया था। जब सड़ी हुई लाशों की बदबू असह्र हो गयी तो कुएं और उसके आसपास मिट्टी डालकर ऊपर गोभी के पौधे लगा दिये गये। चन्देरी नामक मुस्लिम मुहल्ले में 61 लोगों की हत्या हुई। 14 साल की मल्लिका के पैर काट कर उसे एक छिछले तालाब में फेंक दिया गया था। जब भीड़ पर उन्माद चढ़ता है तो वह पशु बन जाती है। जो लोग गोधरा के नरमेध पर पर्दा डालकर केवल उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया का रात-दिन राग अलापते हैं, उनकी रुचि साम्प्रदायिक सद्भाव में नहीं, साम्प्रदायिक कटुता पैदा करने में है। वे गुजरात के स्थानीय निकायों में साम्प्रदायिक सद्भाव और सहयोग का जो वातावरण दिखायी दिया उसकी चर्चा तक नहीं करना चाहते। ये नफरत के व्यापारी जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय उन पर नमक छिड़कने में आनंद लेते हैं। यह भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्रीय एकता के लिए चिन्ता की बात है कि ये लोग मीडिया के कंधों पर सवार होकर अब हमारी न्यायपालिका का भी एजेन्डा तय करने लगे हैं। न्यायपालिका को इससे ऊपर उठना होगा। द (3 मार्च, 2006)
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