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पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहले

by
Dec 3, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Dec 2006 00:00:00

वर्ष 10, अंक 25, सं. 2013 वि., 7 जनवरी, 1957, मूल्य 3आने

सम्पादक : तिलक सिंह परमार

प्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लि.,

गौतमबुद्ध मार्ग, लखनऊ (उ.प्र.)

भारतीय जनसंघ का पंचम अधिवेशन

अध्यक्ष श्री घोष का भव्य जुलूस

निष्पक्ष चुनाव, सांस्कृतिक एकता सम्बंधी प्रस्ताव

गोआ-बंदियों को मुक्त कराने की मांग व्यापारी, महिला व पुरुषार्थी सम्मेलन

(दिल्ली स्थित हमारे प्रतिनिधि द्वारा)

मुखर्जी नगर: भारतीय जनसंघ का पंचम वार्षिक अधिवेशन 29 दिसम्बर, 1956 को श्री देव प्रसाद घोष की अध्यक्षता में आरम्भ हुआ। इस अधिवेशन में देश के विभिन्न हिस्सों से आए लगभग 3000 प्रतिनिधियों तथा असंख्य दर्शकों ने भाग लिया। उस स्थान का नाम, जहां अनेक प्रतिनिधियों को ठहराया गया तथा विशेष मंडप बनाया गया, जनसंघ प्रतिष्ठाता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की स्मृति में “मुखर्जी नगर” रखा गया था।

अधिवेशन आरम्भ होने से पूर्व अध्यक्ष श्री घोष का भव्य जुलूस निकाला गया। स्वागताध्यक्ष श्री के. नरेन्द्र ने कहा कि कांग्रेस सरकार की नीतियों से देश का नैतिक और आर्थिक पतन ही हुआ है। पंजाब के क्षेत्रीय फार्मूले से साम्प्रदायिकता बढ़ेगी तथा राज्य में असंतोष फैलेगा। इसके पश्चात भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष आचार्य देव प्रसाद घोष ने अपना अध्यक्षीय भाषण प्रारम्भ किया जो दो घंटे तक चला। उन्होंने कहा, “देश में जीवनोपयोगी वस्तुएं सस्ती करना, सभी आवश्यक वस्तुएं सुलभ कराना, किसानों का लगान घटाकर आधा कर देना, प्रशासनिक अपव्यय कम करना, किसानों को भूमि मालिक बनाना, मजदूरों को पूरी मजदूरी दिलाना और गांवों-शहरों में उद्योग-वाणिज्य के क्षेत्रों में निजी प्रयत्नों को बढ़ावा देना ही जनसंघ की आर्थिक नीति है। जनसंघ 50 वर्ष बाद की अदृश्य पीढ़ी के लिए नहीं वर्तमान जनता को रोजी-रोटी दिलाने के कार्यक्रम में विश्वास रखता है।”

भारतीय जनसंघ: जनता का संघ

भारत की राजधानी दिल्ली में भारतीय जनसंघ की पंचम वर्षीय अधिवेशन जिस उत्साह और गरिमा के साथ सम्पन्न हुआ उसने प्रमाणित कर दिया कि सत्तारूढ दल कांग्रेस तथा उसके सर्वेसर्वा पं. नेहरू के असत्य प्रचार से जनता भारतीय संस्कृति, परम्पराओं तथा जीवन प्रणाली से प्रेम करना नहीं छोड़ सकती क्योंकि भारतीय जनसंघ उनका अनन्य पुजारी है, उससे विमुख नहीं हो सकती। अधिवेशन में तीन अत्यंत महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए। निष्पक्ष चुनाव, गोआ तथा सांस्कृतिक एकता।

निष्पक्ष चुनाव सम्बंधी प्रस्ताव के अन्तर्गत सभी दलों को समान अवसर तथा सुविधा प्राप्त होने की बात कही गई है। कोई भी लोकतंत्र का विश्वासी इस बात को अस्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि लोकतंत्र की सफलता इसी बात पर आधारित है।

गोआ सम्बधी प्रस्ताव में सरकार की नीति को किंकत्र्वव्यविमूढ़ता तथा निष्क्रियता का प्रतीक माना गया है और उसके द्वारा की गई आर्थिक नाकेबंदी को “गोआ के अपने ही बंधुओं के कष्टों में वृद्धि करने वाला घोषित किया गया। गोआ की जेलों में कठोर यातनाएं सहने वाले बंदियों की मुक्ति की मांग भी प्रस्ताव में की गई है।”

सांस्कृतिक एकता नामक प्रस्ताव में की गई मांग “भारत की एक राष्ट्रीयता के विकास के लिए यह आवश्यक है कि भारतीय जीवन की विविधता एवं उपासना स्वातंत्र्य के रहते हुए भी घटकों में एक संस्कृति का पोषण हो, एक अपना महत्व है जो भारत माता का सच्चा पुत्र है। इस मांग को किसी भी प्रकार अस्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि एक सांस्कृतिक विकास के अभाव में आज तक जिस प्रकार की साम्प्रदायिक समस्याएं उठती रही हैं वे राष्ट्र के लिए अत्यंत घातक हैं। महिला सम्मेलन, श्रमिक सम्मेलन, पुरुषार्थी सम्मेलन, व्यापारी सम्मेलन आदि का अधिवेशन के अवसर पर आयोजन किया जाना इस बात का प्रतीक है कि जन संघ जनजीवन की समस्त समस्याओं के प्रति पूर्ण सचेष्ट है।

भारतीय जनसंघ के भारतीय तथा जनता का संघ होने के लिए इससे अधिक क्या चाहिए? हम विश्वास करते हैं कि जनसंघ के “दीप” के प्रकाश में जनता अपने मार्ग का उचित रूप में अवलोकन कर सकेगी इसलिए उसका भविष्य उज्ज्वल है। (सम्पादकीय)

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