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क्या भाजपा-वंशवाद गठबंधन सम्भव है?
देवेन्द्र स्वरूप
जोलार्ड मेघनाद देसाई और मा.गो.वैद्य को दिखाई देता है वह सोनिया को दिखाई नहीं देता? क्या सोनिया का गणित इतना कमजोर है कि वह वर्तमान लोकसभा में भाजपा और कांग्रेस की सीटों को जोड़कर यह देख सकें कि ये दोनों अखिल भारतीय दल गठबंधन करके भारत को आगामी तीन वर्ष तक राजनीतिक स्थिरता प्रदान कर सकते हैं और भारतीय राजनीति को व्यक्ति-केन्द्रित, जातिवादी व क्षेत्रवादी दलों की स्वार्थी सौदेबाजी से मुक्ति दिला सकते हैं? क्या सोनिया की राजनीतिक दृष्टि इतनी कमजोर है कि उन्हें यह भी नहीं दिखाई देता कि जिन वामपंथी पार्टियों के कन्धे पर बैठकर वह अपनी सत्ता-राजनीति को उसके गन्तव्य तक ले जाने के सपने संजोये है, वह वामपंथ उनके कंधों पर बैठकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ा रहा है। उसने सोनिया पार्टी की गठबंधन सरकार को अपना बंधक बना लिया है। वह हर कदम पर सोनिया की गठबंधन सरकार की आर्थिक व विदेश नीति का खुला विरोध करके संगठित श्रमिक वर्ग एवं अमरीका विरोधी मुस्लिम मानस पर अपनी पकड़ को व्यापक और गहरा बना रहा है। वह एक ओर घोषणा कर रहा है कि वह इस सरकार को पांच साल की अवधि पूरा होने तक गिरने नहीं देगा, क्योंकि वह गिरेगी तो भाजपा वापस आ जायेगी। स्पष्ट है कि उसे डर है तो केवल भाजपा का। वह किसी को अपना शत्रु मानता है तो वह भाजपा है और भाजपा को रोकने के लिए ही वह सोनिया पार्टी के कंधों का इस्तेमाल कर रहा है। उसे भय है कि यदि समान नीतियों के आधार पर भाजपा और सोनिया पार्टी राष्ट्रहित में एकत्र आ गयीं तो भारतीय राजनीति में उसका विखंडन का खेल खत्म हो जायेगा। इसलिए भाजपा-कांग्रेस के गठबंधन की बात किसी भी कोने से उठने पर वामपंथ घबरा-बौखला जाता है। अब देखिये न, मेघनाद देसाई की रगो में भारतीय रक्त है, अनेक वर्षों से वे इंग्लैंड में रह रहे हैं, अपनी बौद्धिक प्रतिभा के बल पर उन्होंने इंग्लैंड में अपने लिए ऊंचा स्थान बनाया है, वहां लार्ड की उपाधि अर्जित की है। पर भारत उनके खून में है, उन्हें भारत से प्यार है। वे भारत की सत्ता-राजनीति से बहुत दूर हैं, इसलिए वे तटस्थ भाव से भारत को दूरगामी राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से देख सकते हैं। उन्हें लगा कि यदि केन्द्र में भाजपा-कांग्रेस की गठबंधन सरकार बन जाये तो भारत आर्थिक मोर्चे पर तेजी से बढ़ सकेगा, क्योंकि दोनों की आर्थिक नीतियां समान हैं, तब केन्द्र सरकार के पैरों को उसका वर्तमान सहयोगी वामपंथ पीछे नहीं खींच सकेगा। उन्होंने यह भी देखा कि भारतीय वामपंथ अभी भी शीतयुद्ध कालीन अमरीकी विरोध में जी रहा है और अब उसने इस अमरीकी विरोध को मुस्लिम कट्टरवाद को रिझाने का हथियार बना लिया है। लार्ड मेघनाद देसाई का यह सुझाव आते ही वामपंथ घबरा गया। हरकिशन सिंह सुरजीत भाजपा-कांग्रेस गठबंधन के उनके सुझाव का विरोध करने के लिए सबसे पहले दौड़े। परम्परागत कम्युनिस्ट शैली में उन्होंने ओछा प्रहार दागा कि एक ब्रिटिश नागरिक की यह मजाल कि वह भाजपा-कांग्रेस गठबंधन का सुझाव दे। इस सुझाव के पीछे निश्चय ही अन्तरराष्ट्रीय पूंजीवादी शक्तियां सक्रिय हैं। जो पार्टी विदेशी विचारधारा पर पल रही है एवं माक्र्स, लेनिन, स्टालिन और माओ जैसे विदेशियों को पूजती है, उनके कालबाह्र उद्धरणों की तोता रटंत लगाती रहती है, उसे भारतीय मूल के एक भारत प्रेमी नागरिक के तटस्थ सुझाव पर इतना गुस्सा क्यों आया?
राष्ट्रीय नहीं, सोनिया कांग्रेस
चलिए, मेघनाद देसाई तो ब्रिटिश नागरिक ठहरे। पर आप मा.गो. वैद्य को क्या कहेंगे? 84 वर्षीय वैद्य ने पूरा जीवन राष्ट्र-साधना को समर्पित किया है। पद और सत्ता की कभी कामना नहीं की। आप उनके विश्लेषण, आकलन, निष्कर्षों और उपायों से असहमत हो सकते हैं किन्तु उनकी नि:स्वार्थ राष्ट्र भक्ति पर उंगली नहीं उठा सकते। यदि आयुष्य के इस बिन्दु पर पहुंच कर वे राष्ट्रीय एकता और प्रगति के हित में भाजपा-कांग्रेस गठबंधन का सुझाव देते हैं तो इस सुझाव के पीछे विद्यमान उनकी राष्ट्रहित की चिन्ता का आदर किया जाना चाहिए। पर प्रश्न यह है कि वे किस कांग्रेस के साथ भाजपा के गठबंधन की बात कर रहे हैं? कांग्रेस के नाम पर आज जो राजनीतिक टोला सत्ता-सुख भोग रहा है क्या उसका दूर तक भी लोकमान्य तिलक से लेकर गांधी तक स्वातन्त्र्य समर का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस से कोई सम्बंध है? क्या उसके पास भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा रखने वाले, आत्मसम्मान एवं आत्मविश्वास से युक्त स्वयंचेता, स्वयंभू सामूहिक नेतृत्व जैसी कोई चीज है? इतिहास की आंखों से देखें तो स्वतंत्रता आन्दोलन में से उपजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (इंडियन नेशनल कांग्रेस) कभी की मर चुकी है और अब उसकी खाल को ओढ़कर वंशवादी राजनीति नाच रही है। इंदिरा गांधी तक तो इस वंशवादी राजनीति का स्वतंत्रता आंदोलन से कुछ रिश्ता बना रहा, पर उसके बाद इस राजनीति की बागडोर ऐसे हाथों में चली गई है जिनका भारतीय समाज के दु:ख-दर्द और आकांक्षाओं से कोई रिश्ता नहीं है और अब तो उसकी बागडोर पूरी तरह विदेशी रक्त के हाथों में चली गई है।
केन्द्रीय मंत्रिमंडल के ताजे पुनर्गठन और तथाकथित कांग्रेस पार्टी के हैदराबाद अधिवेशन ने यह सिद्ध कर दिया है कि केन्द्रीय सरकार को मनमोहन सिंह सरकार के बजाय सोनिया सरकार और कांग्रेस पार्टी को सोनिया पार्टी कहना ही सच होगा, बाकी सब झूठ है। केन्द्रीय सरकार में मनमोहन की हैसियत एक परमुखापेक्षी आज्ञाकारी नौकरशाह से अधिक नहीं है और कांग्रेस में एक भी पत्ता सोनिया की इच्छा के बिना हिल नहीं सकता है। मंत्रिमंडल पुनर्गठन के पहले मनमोहन सिंह ने पूरा दिन 10, जनपथ पर बिताया और शपथ लेने वाले प्रत्येक मंत्री ने मनमोहन सिंह की बजाय सोनिया की चरणवंदना की। जहां तक हैदराबाद अधिवेशन का सम्बंध है वहां तो सोनिया और उनके बेटे राहुल के अलावा और किसी का स्तुतिगान ही नहीं था। वह सही अर्थों में सोनिया-राहुल अधिवेशन था। प्रत्येक तथाकथित कांग्रेसी केवल सोनिया भक्ति की शपथ खाता है। 10 जनपथ की स्थिति मुगलकालीन राजमहल से भिन्न नहीं है।
वंशवादी राजनीति की अगली कड़ी
इसलिए भाजपा-कांग्रेस गठबंधन का सुझाव देने से पहले यह समझना आवश्यक है कि सोनिया की राजनीति की प्रेरणा और लक्ष्य क्या है, उनकी राजनीतिक कार्यशैली क्या है? पी.वी. नरसिंहराव और सीताराम केसरी को धक्का देकर कांग्रेस पार्टी पर कब्जा जमाने से अब तक सोनिया की राजनीति का अध्ययन करें तो उनकी प्रेरणा वंशवाद से आगे नहीं जाती। उनका वंशवाद भी राजीव गांधी से शुरू होता है, उसके पहले नहीं। उनकी गठबंधन सरकार बनने के समय से आज तक अधिकांश सड़कों, भवनों, योजनाओं के नाम केवल राजीव गांधी पर टिके हैं। मानो भारत माता की कोख से राजीव गांधी से महान कोई पुत्र पैदा ही नहीं हुआ। जिस रफ्तार से राजीव गांधी का नाम सब योजनाओं और भवनों-सड़कों पर चिपकाया जा रहा है, उसे देखकर लगता है कि यदि सत्ता-राजनीति में सोनिया का वर्चस्व बना रहा तो शीघ्र ही इस देश का नाम भी भारत या इंडिया के बजाय राजीव वर्ष हो जायेगा। अब तो राजीव को जन्म देने वाली इंदिरा और उनके नाना जवाहरलाल भी विस्मृति के गर्भ में चले गये। कोई कांग्रेसी उनका नाम नहीं लेता, क्योंकि वह जानता है कि उसका राजनीतिक भविष्य जवाहरलाल और इंदिरा भक्ति पर नहीं सोनिया-राजीव भक्ति पर टिका है।
हैदराबाद अधिवेशन ने दिखाया कि वंशवाद की अगली कड़ी है राहुल गांधी। इसलिए पूरे अधिवेशन में राहुल भक्ति का वातावरण छाया रहा। “राहुल लाओ”, “राहुल लाओ” का नारा लगाता एक झुंड उछल-कूद करता रहा, टेलीविजन कैमरों और प्रिंट मीडिया पर छाया रहा। उन्हें शान्त करने के लिए राहुल को मंच पर लाया गया। उन्होंने युवराजी अंदाज में कहा कि मैं कल अपनी बात कहूंगा। पूरा मीडिया उनके शब्द चुनने के लिए जुट गया और उन्होंने मोटे-मोटे अक्षरों में लिखे एक भाषण को पढ़कर त्याग के पुराने नाटक को दोहरा दिया।
चतुर सोनिया
यहां सोनिया की राजनीतिक कार्यशैली को समझने की आवश्यकता है। यह सर्वविदित है कि मई, 2004 में सोनिया की ताजपोशी की तैयारी पूरी हो चुकी थी, वे कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुनी गई थीं, राष्ट्रपति के पास दावा पेश करने भी गई थीं, पर कुछ हुआ कि उन्हें उस समय स्वयं किनारे हटकर मनमोहन सिंह को लाना पड़ा और उसे त्याग के एक अद्वितीय उदाहरण के रूप में मीडिया ने प्रक्षेपित किया था। यद्यपि सोनिया का विदेशी मूल और नागरिकता के सवाल आज भी दिल्ली उच्च न्यायालय के विचाराधीन है, पर सोनिया ने पाया कि त्याग का नाटक भारत में बहुत ही लाभकारी है। स्वयं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बजाय “त्यागमूर्ति” की छवि लेकर उस कुर्सी का इस्तेमाल करना अधिक सरल है। यदि सोनिया स्वयं प्रधानमंत्री होतीं तो क्या 1984 के सिख नरमेध पर वे विपक्ष की मांग पर वक्तव्य देने से बच सकतीं थीं, पर वे नहीं बोलीं। बोलने का काम प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठै मनमोहन सिंह को करना पड़ा। वोल्कर घोटाले पर वे चुप रहीं पर, उनकी चिट्ठी ले जाने वाले नटवर सिंह की बलि चढ़ गई। सब जानते हैं कि क्वात्रोकी के बैंक खाते को खुलवाने में सोनिया के अतिरिक्त किसी अन्य का स्वार्थ नहीं है, पर वे अब तक एक शब्द नहीं बोलीं, कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज और सी.बी.आई. पिट रहे हैं। बिहार, झारखण्ड और गोवा में संविधान का चीरहरण करने वाले राज्यपालों का चयन तो सोनिया ने किया पर न्यायालय के सामने अपराधी के कटघरे में प्रधानमंत्री और गृह मंत्री खड़े हैं। अमर सिंह के फोन टेप कांड में अमर सिंह ने सीधे-सीधे सोनिया पर आरोप लगाया, तीखे से तीखे हमले करके उन्हें उत्तेजित करने की कोशिश की, पर उन्होंने अम्बिका सोनी को ढाल बनाकर आगे कर दिया और अमर सिंह अम्बिका सोनी से उलझते रह गए। अमेठी-रायबरेली चुनाव क्षेत्रों में खानदान के चौकीदार सतीश शर्मा के विरुद्ध न्यायालयी निर्णय के बावजूद सी.बी.आई. ने सब मामले वापस ले लिए, किसके इशारे पर? पर, सोनिया पर आंच नहीं आयी क्योंकि वे प्रधानमंत्री नहीं हैं। वंशवादी राजनीति का यह लक्षण है कि सत्ता पर बैठे प्यादे अपनी स्वामी भक्ति दिखाने के लिए प्रत्येक गलत हुक्म का पालन करते हैं और अपनी गद्दी बचाने के लिए हुक्मरान की ढाल बन जाते हैं।
बाकी युवाओं की उपेक्षा
सोनिया की कार्यशैली का अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने भारतीय जनमानस की कमजोरी और मीडिया के चरित्र को पूरी तरह समझ लिया है। वे जान चुकी हैं कि मीडिया वही दिखायेगा जो उसे दिखाई देगा। इसलिए जिन मुद्दों पर उनकी फजीहत हो सकती है उन पर वे पूरी तरह मौन रहती हैं और अपनी जो छवि वे बनाना चाहती हैं उसे मीडिया को पूरी तरह दिखाने की व्यवस्था करती हैं। स्मरण करें प्रधानमंत्री पद के त्याग के नाटक को राहुल के लिए हैदराबाद में दोहराया गया। “राहुल लाओ” का शोर मचाने वाली मंडली को पार्टी के अन्य युवा चेहरे जैसे सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया, नवीन जिन्दल, मिलिंद देवड़ा और उत्तर प्रदेश का जतिन प्रसाद क्यों नहीं दिखाई दिए? क्या इनमें से प्रत्येक ने राहुल की अपेक्षा कहीं अधिक योग्यता प्रदर्शित नहीं की है? क्यों इन क्षमतावान चेहरों को पिछले दो साल में योजनापूर्वक पीछे धकेला जा रहा है? क्यों अकेले राहुल का नाम ही तरह-तरह से मीडिया में उछाला जा रहा है? यहां तक कि राहुल का रास्ता साफ करने लिए बढेरा खानदान में ब्याही प्रियंका को भी पीछे धकेल दिया गया है। पिछले दो साल में राहुल की राजनीतिक सूझबूझ और प्रशासकीय निर्णय क्षमता का कोई उदाहरण आपने देखा हो तो हमें अवश्य बताएं।
वामपंथी मीडिया का उपयोग
सोनिया की राजनीतिक कार्यशैली की एक विशेषता यह है कि सभी अनैतिक निर्णयों से उपजे विवादों पर स्वयं मौन अपनाकर वे अपनी छवि एक संवेदनशील, जनहितैषी, करुणा की मूर्ति बनाने के लिए मीडिया का पूरी तरह इस्तेमाल करती हैं। वे जानती हैं कि मीडिया का इस्तेमाल करने के लिए कम्युनिस्टों की मदद जरूरी है। क्योंकि कम्युनिस्टों ने योजनापूर्वक मीडिया में घुसपैठ की है और हिन्दुत्वविरोधी सभी तत्वों के साथ गठजोड़ कर लिया है। इसलिए वे पहले घोषणा करके मीडिया की उपस्थिति में केवल ऐसे क्षेत्रों का दौरा करती हैं, जहां कोई प्राकृतिक आपदा आयी हो या भाजपा-गठबंधन सरकारों के विरुद्ध कोई जन आन्दोलन हुआ हो। शायद उनके वामपंथी मित्रों ने उन्हें यह मंत्र सिखा दिया है कि आज की भारतीय राजनीति में आदर्शवाद और वैचारिक निष्ठा से अधिक उपयोग “छवि” का है। छवि निर्माण केवल मीडिया कर सकता है इसलिए मीडिया रणनीति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इस क्षेत्र में हम ही आपके काम आ सकते हैं। इसलिए प्रकाश कारत बार-बार भरोसा दिलाते हैं कि चाहे जो हो हम आपकी सरकार गिरने नहीं देंगे। ज्योति बसु को पूर्ण विश्वास है कि ममता बनर्जी चाहे जितनी उछल-कूद करें पर प. बंगाल में वाममोर्चा विरोधी महाजोत बनने की कोई संभावना नहीं है क्योंकि केन्द्र की सरकार हमारे समर्थन पर टिकी है। इसीलिए हवाई अड्डों के निजीकरण के विरोध प्रदर्शन के बहाने वामपंथियों ने मीडिया का खूब इस्तेमाल किया और श्रमिकों के एकमात्र हितचिंतक के रूप में अपनी छवि बनायी। इसे मीडिया प्रबंधन का ही कमाल कहना होगा कि हिन्दुस्तान टाइम्स हजार-बारह सौ लोगों के जनमत सर्वेक्षण के आधार पर सोनिया पार्टी की लोकप्रियता का वातावरण बना रहा है और टाइम्स आफ इंडिया पूरा पृष्ठ राहुल की योग्यता और लोकप्रियता के आंकड़े गढ़ने में खर्च कर रहा है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि कमरतोड़ महंगाई से जनता परेशान हो, 7 साल बाद गेहूं के आयात की दु:स्थिति पैदा हुई हो, कर्नाटक में कांग्रेस सरकार गिरी हो, केन्द्र सरकार लड़खड़ा रही हो, पर सोनिया-राहुल की लोकप्रियता आकाश छू रही हो? लोकप्रियता के इस कृत्रिम वातावरण के चलते आर्गेनाइजर में प्रकाशित एक सम्पादकीय टिप्पणी को वंशवादी मीडिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मत के रूप में प्रचारित कर रहा है। कल (2 फरवरी को) तो जी.टी.वी. ने “संघ की सोनिया वंदना” शीर्षक से ही एक बहस आयोजित कर डाली, जिसमें एक वंशवादी चापलूस ने कह दिया कि हमें “वंश” पर गर्व है।
ऐसी स्थिति में भाजपा-कांग्रेस गठबंधन का अर्थ होता है लोकतंत्रवाद और वंशवाद का गठबंधन। और वह तब तक सम्भव नहीं है जब तक सोनिया की राजनीतिक दृष्टि वंशवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित पर केन्द्रित न हो।
(3 फरवरी, 2006)
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